श्लोकार्थ : — [अचलं ] अचल, [व्यक्तं ] व्यक्त और [चित्-शक्तीनां निकर-भरतः अत्यन्त-गम्भीरम् ] चित्शक्तियोंके ( – ज्ञानके अविभागप्रतिच्छेदोंके) समूहके भारसे अत्यन्त गम्भीर [एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति [अन्तः ] अन्तरङ्गमें [उच्चैः ] उग्रतासे [तथा ज्वलितम् ] ऐसी जाज्वल्यमान हुई कि — [यथा कर्ता कर्ता न भवति ] आत्मा अज्ञानमें कर्ता होता था सो अब वह कर्ता नहीं होता और [कर्म कर्म अपि न एव ] अज्ञानके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप होता था सो वह कर्मरूप नहीं होता; [यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च ] और ज्ञान ज्ञानरूप ही रहता है तथा [पुद्गलः पुद्गलः अपि ] पुद्गल पुद्गलरूप ही रहता है ।
भावार्थ : — जब आत्मा ज्ञानी होता है तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणमित होता है, पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं होता; और पुद्गल पुद्गल ही रहता है, कर्मरूप परिणमित नहीं होता । इसप्रकार यथार्थ ज्ञान होने पर दोनों द्रव्योंके परिणमनमें निमित्तनैमित्तिकभाव नहीं होता । ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टिके होता है ।९९।
प्रविष्ट हुए थे । जब सम्यग्दृष्टिने अपने यथार्थ-दर्शक ज्ञानसे उन्हें भिन्न-भिन्न लक्षणसे यह जान लिया कि वे एक नहीं, किन्तु दो अलग-अलग हैं तब वे वेषका त्याग करके रंगभूमिसे बाहर निकल गये । बहुरूपियाकी ऐसी प्रवृत्ति होती है कि जब तक देखनेवाले उसे पहिचान नहीं लेते तब तक वह अपनी चेष्टाएँ किया करता है, किन्तु जब कोई यथार्थरूपसे पहिचान लेता है तब वह निज रूपको प्रगट करके चेष्टा करना छोड़ देता है । इसी प्रकार यहाँ भी समझना ।
ताकरि बन्धन आन तणूं फल ले सुखदु:ख भवाश्रमवासो;
ज्ञान भये करता न बनै तब बन्ध न होय खुलै परपासो,
आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो ।
इसप्रकार श्री समयसार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें कर्ताकर्मका प्ररूपक दूसरा अंक समाप्त हुआ ।