अथ रागाद्यसंकीर्णभावसम्भवं दर्शयति —
पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे ।
जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि ।।१६८।।
पक्वे फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनर्वृन्तैः ।
जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति ।।१६८।।
यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सकृद्विश्लिष्टं सत् न पुनर्वृन्तसम्बन्धमुपैति, तथा
क र्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृ द्विश्लिष्टः सन् न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो
रागाद्यसंकीर्णो भावः सम्भवति ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
साथ अमिश्रित ज्ञानमय भाव बन्धका कर्ता नहीं है, — यह नियम है ।।१६७।।
अब, रागादिके साथ अमिश्रित भावकी उत्पत्ति बतलाते हैं : —
फल पक्व खिरता, वृन्त सह सम्बन्ध फि र पाता नहीं ।
त्यों कर्मभाव खिरा, पुनः जीवमें उदय पाता नहीं ।।१६८।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [पक्वे फले ] पके हुए फलके [पतिते ] गिरने पर [पुनः ]
फि रसे [फलं ] वह फल [वृन्तैः ] उस डण्ठलके साथ [न बध्यते ] नहीं जुड़ता, उसीप्रकार
[जीवस्य ] जीवके [क र्मभावे ] क र्मभाव [पतिते ] खिर जाने पर वह [पुनः ] फि रसे [उदयम्
न उपैति ] उत्पन्न नहीं होता (अर्थात् वह कर्मभाव जीवके साथ पुनः नहीं जुड़ता) ।
टीका : — जैसे पका हुआ फल एक बार डण्ठलसे गिर जाने पर फि र वह उसके साथ
सम्बन्धको प्राप्त नहीं होता, इसीप्रकार कर्मोदयसे उत्पन्न होनेवाला भाव जीवभावसे एक बार अलग
होने पर फि र जीवभावको प्राप्त नहीं होता । इसप्रकार रागादिके साथ न मिला हुआ ज्ञानमय भाव
उत्पन्न होता है ।
भावार्थ : — यदि ज्ञान एक बार (अप्रतिपाती भावसे) रागादिकसे भिन्न परिणमित हो तो
वह पुनः कभी भी रागादिके साथ मिश्रित नहीं होता । इसप्रकार उत्पन्न हुआ, रागादिके साथ न
मिला हुआ ज्ञानमय भाव सदा रहता है । फि र जीव अस्थिरतारूपसे रागादिमें युक्त होता है वह
निश्चयदृष्टिसे युक्तता है ही नहीं और उसके जो अल्प बन्ध होता है वह भी निश्चयदृष्टिसे बन्ध है
ही नहीं; क्योंकि अबद्धस्पृष्टरूपसे परिणमन निरन्तर वर्तता ही रहता है । तथा उसे मिथ्यात्वके साथ
रहनेवाली प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और अन्य प्रकृतियाँ सामान्य संसारका कारण नहीं है; मूलसे