यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सकृद्विश्लिष्टं सत् न पुनर्वृन्तसम्बन्धमुपैति, तथा क र्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृ द्विश्लिष्टः सन् न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसंकीर्णो भावः सम्भवति । साथ अमिश्रित ज्ञानमय भाव बन्धका कर्ता नहीं है, — यह नियम है ।।१६७।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [पक्वे फले ] पके हुए फलके [पतिते ] गिरने पर [पुनः ] फि रसे [फलं ] वह फल [वृन्तैः ] उस डण्ठलके साथ [न बध्यते ] नहीं जुड़ता, उसीप्रकार [जीवस्य ] जीवके [क र्मभावे ] क र्मभाव [पतिते ] खिर जाने पर वह [पुनः ] फि रसे [उदयम् न उपैति ] उत्पन्न नहीं होता (अर्थात् वह कर्मभाव जीवके साथ पुनः नहीं जुड़ता) ।
टीका : — जैसे पका हुआ फल एक बार डण्ठलसे गिर जाने पर फि र वह उसके साथ सम्बन्धको प्राप्त नहीं होता, इसीप्रकार कर्मोदयसे उत्पन्न होनेवाला भाव जीवभावसे एक बार अलग होने पर फि र जीवभावको प्राप्त नहीं होता । इसप्रकार रागादिके साथ न मिला हुआ ज्ञानमय भाव उत्पन्न होता है ।
भावार्थ : — यदि ज्ञान एक बार (अप्रतिपाती भावसे) रागादिकसे भिन्न परिणमित हो तो वह पुनः कभी भी रागादिके साथ मिश्रित नहीं होता । इसप्रकार उत्पन्न हुआ, रागादिके साथ न मिला हुआ ज्ञानमय भाव सदा रहता है । फि र जीव अस्थिरतारूपसे रागादिमें युक्त होता है वह निश्चयदृष्टिसे युक्तता है ही नहीं और उसके जो अल्प बन्ध होता है वह भी निश्चयदृष्टिसे बन्ध है ही नहीं; क्योंकि अबद्धस्पृष्टरूपसे परिणमन निरन्तर वर्तता ही रहता है । तथा उसे मिथ्यात्वके साथ रहनेवाली प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और अन्य प्रकृतियाँ सामान्य संसारका कारण नहीं है; मूलसे