(अनुष्टुभ्)
रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः ।
तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणम् ।।११९।।
रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स ।
तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति ।।१७७।।
हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं ।
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति ।।१७८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
आस्रव अधिकार
२७७
करनेवाला (अपने अपने समयमें उदयमें आनेवाले) [पूर्वबद्धाः ] पूर्वबद्ध (पहले अज्ञान-
अवस्थामें बँधे हुवे) [द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः ] द्रव्यरूप प्रत्यय [सत्तां ] अपनी सत्ताको [न हि
विजहति ] नहीं छोड़ते (वे सत्तामें रहते हैं ), [तदपि ] तथापि [सक लरागद्वेषमोहव्युदासात् ] सर्व
रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [क र्मबन्धः ] क र्मबन्ध [जातु ] क दापि
[अवतरति न ] अवतार नहीं धरता — नहीं होता
।
भावार्थ : — ज्ञानीके भी पहले अज्ञान-अवस्थामें बाँधे हुए द्रव्यास्रव सत्ताअवस्थामें
विद्यमान हैं और वे अपने उदयकालमें उदयमें आते रहते हैं । किन्तु वे द्रव्यास्रव ज्ञानीके कर्मबन्धके
कारण नहीं होते, क्योंकि ज्ञानीके समस्त रागद्वेषमोहभावोंका अभाव है । यहाँ समस्त रागद्वेषमोहका
अभाव बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोहकी अपेक्षासे समझना चाहिये ।११८।
अब इसी अर्थको दृढ़ करनेवाली आगामी दो गाथाओंका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [यत् ] क्योंकि [ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः ] ज्ञानीके
रागद्वेषमोहका असम्भव है, [ततः एव ] इसलिये [अस्य बन्धः न ] उसको बन्ध नहीं है; [हि ]
कारण कि [ते बन्धस्य कारणम् ] वे (रागद्वेषमोह) ही बंधका कारण है ।११९।
अब इस अर्थकी समर्थक दो गाथाएँ कहते हैं : —
नहिं रागद्वेष, न मोह — वे आस्रव नहीं सद्दृष्टिके ।
इससे हि आस्रवभाव बिन, प्रत्यय नहीं हेतु बने ।।१७७।।
हेतू चतुर्विध कर्म अष्ट प्रकारका कारण कहा ।
उनका हि रागादिक कहा, रागादि नहिं वहाँ बंध ना ।।१७८।।