कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५४७
चेति ४२ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति ४३ । न करोमि वाचा चेति ४४ ।
न कारयामि वाचा चेति ४५ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि वाचा चेति ४६ । न करोमि
कायेन चेति ४७ । न कारयामि कायेन चेति ४८ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि कायेन
चेति ४९ ।
(आर्या)
मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य ।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।।२२७।।
— इत्यालोचनाकल्पः समाप्तः ।
अनुमोदन करता हूँ।४३। न मैं करता हूँ वचनसे।४४। न मैं कराता हूँ वचनसे।४५। न मैं
अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ वचनसे।४६। न मैं करता हूँ कायासे।४७। न मैं
कराता हूँ कायासे।४८। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ कायासे।४९।
(इसप्रकार, प्रतिक्रमणके समान आलोचनामें भी ४९ भंग कहे।)
अब, इस कथनका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — (निश्चय चारित्रको अंगीकार करनेवाला कहता है कि – ) [मोह-विलास-
विजृम्भितम् इदम् उदयत् कर्म ] मोहके विलाससे फै ला हुआ जो यह उदयमान (उदयमें आता
हुआ) कर्म [सकलम् आलोच्य ] उस सबकी आलोचना करके ( – उन सर्व कर्मोंकी आलोचना
करके – ) [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्व
कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही निरन्तर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ : — वर्तमान कालमें कर्मका उदय आता है, उसके विषयमें ज्ञानी यह विचार
करता है कि — पहले जो कर्म बांधा था उसका यह कार्य है, मेरा तो यह कार्य नहीं। मैं इसका
कर्ता नहीं हूँ, मै तो शुद्धचैतन्यमात्र आत्मा हूँ। उसकी दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति है। उस दर्शनज्ञानरूप
प्रवृत्तिके द्वारा मैं इस उदयागत कर्मका देखने-जाननेवाला हूँ। मैं अपने स्वरूपमें ही प्रवर्तमान हूँ।
ऐसा अनुभव करना ही निश्चयचारित्र है।२२७।
इसप्रकार आलोचनाकल्प समाप्त हुआ।
(अब, टीकामें प्रत्याख्यानकल्प अर्थात् प्रत्याख्यानकी विधि कहते हैं : — )
(प्रत्याख्यान करनेवाला कहता है कि : – )