Samaysar (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 560 of 642
PDF/HTML Page 593 of 675

 

background image
५६०
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
गुरुस्पर्शनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९२ नाहं लघुस्पर्शनाम-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९३ नाहं मृदुस्पर्शनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९४ नाहं कर्कशस्पर्शनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९५ नाहं मधुररसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये ९६ नाहमाम्लरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ९७ नाहं तिक्त रसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९८
नाहं कटुकरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९९ नाहं
कषायरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०० नाहं सुरभिगन्धनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०१ नाहमसुरभिगन्धनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०२ नाहं शुक्लवर्णनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०३ नाहं रक्त वर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १०४ नाहं पीतवर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १०५ नाहं हरितवर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०६ नाहं
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९२। मैं लघुस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९३। मैं मृदुस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९४। मैं कर्कशस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९५। मैं मधुररसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९६। मैं आम्लरसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९७। मैं तिक्तरसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९८। मैं कटुकरसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९९। मैं कषायरसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१००। मैं सुरभिगंधनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०१। मैं असुरभिगंधनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०२। मैं शुक्लवर्णनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०३। मैं रक्तवर्णनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०४। मैं पीतवर्णनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०५। मैं हरितवर्णनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०६। मैं कृष्णवर्णनामकर्मके