ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिंगममकारेण मिथ्याहंकारं कुर्वन्ति, तेऽनादिरूढव्यवहारमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं न पश्यन्ति ।
(इसप्रकार, जो द्रव्यलिंगमें ममत्व करते हैं उन्हे निश्चय-कारणसमयसारका अनुभव नहीं है; तब फि र उनको कार्यसमयसारकी प्राप्ति कहाँसे होगी ?)।२४१।
गाथार्थ : — [ये ] जो [बहुप्रकारेषु ] बहुत प्रकारके [पाषण्डिलिङ्गेषु वा ] मुनिलिंगोंमें [गृहिलिङ्गेषु वा ] अथवा गृहस्थलिंगोंमें [ममत्वं कुर्वन्ति ] ममता करते हैं (अर्थात् यह मानते हैं कि यह द्रव्यलिंग ही मोक्षका दाता है), [तैः समयसारः न ज्ञातः ] उन्होंने समयसारको नहीं जाना।
टीका : — जो वास्तवमें ‘मैं श्रमण हूँ, मैं श्रमणोपासक ( – श्रावक) हूँ’ इसप्रकार द्रव्यलिंगमें ममत्वभावके द्वारा मिथ्या अहंकार करते हैं, वे अनादिरूढ़ (अनादिकालसे समागत) व्यवहारमें मूढ़ (मोही) होते हुए, प्रौढ़ विवेकवाले निश्चय ( – निश्चयनय) पर आरूढ़ न होते हुए, परमार्थसत्य ( – जो परमार्थसे सत्यार्थ है ऐसे) भगवान समयसारको नहीं देखते — अनुभव नहीं करते।
भावार्थ : — अनादिकालीन परद्रव्यके संयोगसे होनेवाले व्यवहार ही में जो पुरुष मूढ़ अर्थात् मोहित हैं, वे यह मानते हैं कि ‘यह बाह्य महाव्रतादिरूप वेश ही हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा’, परन्तु जिससे भेदज्ञान होता है ऐसे निश्चयको वे नहीं जानते। ऐसे पुरुष सत्यार्थ, परमात्मरूप, शुद्धज्ञानमय समयसारको नहीं देखते।।४१३।।