Samaysar (Hindi). Kalash: 22.

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ममैतत्पूर्वमासीन्नैतस्याहं पूर्वमासं ममाहं पूर्वमासमेतस्यैतत्पूर्वमासीत्, न ममैतत्पुनर्भविष्यति
नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं पुनर्भविष्याम्येतस्यैतत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एव
सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात
(मालिनी)
त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीढं
रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत
इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेकः
किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम
।।२२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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इसप्रकार जैसे किसीको अग्निमें ही सत्यार्थ अग्निका विकल्प हो सो प्रतिबुद्धका लक्षण है,
इसीप्रकार ‘‘मैं यह परद्रव्य नहीं हूँ, यह परद्रव्य मुझस्वरूप नहीं है,मैं तो मैं ही हूँ, परद्रव्य
है वह परद्रव्य ही है; मेरा यह परद्रव्य नहीं, इस परद्रव्यका मैं नहीं था,मेरा ही मैं हूँ, परद्रव्यका
परद्रव्य है; यह परद्रव्य मेरा पहले नहीं था, इस परद्रव्यका मैं पहले नहीं था,मेरा मैं ही पहले
था, परद्रव्यका परद्रव्य पहले था; यह परद्रव्य मेरा भविष्यमें नहीं होगा, इसका मैं भविष्यमें नहीं
होऊँगा,
मैं अपना ही भविष्यमें होऊँगा, इस (परद्रव्य)का यह (परद्रव्य) भविष्यमें होगा’’
ऐसा जो स्वद्रव्यमें ही सत्यार्थ आत्मविकल्प होता है वही प्रतिबुद्ध(ज्ञानी)का लक्षण है, इससे
ज्ञानी पहिचाना जाता है
भावार्थ :जो परद्रव्यमें आत्माका विकल्प करता है वह तो अज्ञानी है और जो अपने
आत्माको ही अपना मानता है वह ज्ञानी हैयह अग्नि-ईंधनके दृष्टान्तसे दृढ़ किया है ।।२०से२२।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[जगत् ] जगत् अर्थात् जगत्के जीवो ! [आजन्मलीढं मोहम् ] अनादि
संसारसे लेकर आज तक अनुभव किये गये मोहको [इदानीं त्यजतु ] अब तो छोड़ो और
[रसिकानां रोचनं ] रसिक जनोंको रुचिकर, [उद्यत् ज्ञानम् ] उदय हुआ जो ज्ञान उसका [रसयतु ]
आस्वादन करो; क्योंकि [इह ] इस लोकमें [आत्मा ] आत्मा [किल ] वास्तवमें [कथम् अपि ]
किसीप्रकार भी [अनात्मना साकम् ] अनात्मा(परद्रव्य)के साथ [क्व अपि काले ] कदापि
[तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न ] तादात्म्यवृत्ति (एकत्व)को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि [एकः ] आत्मा
एक है वह अन्य द्रव्यके साथ एकतारूप नहीं होता
भावार्थ :आत्मा परद्रव्यके साथ किसीप्रकार किसी समय एकताके भावको प्राप्त नहीं