— इसप्रकार जैसे किसीको अग्निमें ही सत्यार्थ अग्निका विकल्प हो सो प्रतिबुद्धका लक्षण है,
इसीप्रकार ‘‘मैं यह परद्रव्य नहीं हूँ, यह परद्रव्य मुझस्वरूप नहीं है, — मैं तो मैं ही हूँ, परद्रव्य
है वह परद्रव्य ही है; मेरा यह परद्रव्य नहीं, इस परद्रव्यका मैं नहीं था, — मेरा ही मैं हूँ, परद्रव्यका
परद्रव्य है; यह परद्रव्य मेरा पहले नहीं था, इस परद्रव्यका मैं पहले नहीं था, — मेरा मैं ही पहले
था, परद्रव्यका परद्रव्य पहले था; यह परद्रव्य मेरा भविष्यमें नहीं होगा, इसका मैं भविष्यमें नहीं होऊँगा, — मैं अपना ही भविष्यमें होऊँगा, इस (परद्रव्य)का यह (परद्रव्य) भविष्यमें होगा’’ ।
— ऐसा जो स्वद्रव्यमें ही सत्यार्थ आत्मविकल्प होता है वही प्रतिबुद्ध(ज्ञानी)का लक्षण है, इससे
ज्ञानी पहिचाना जाता है ।
भावार्थ : — जो परद्रव्यमें आत्माका विकल्प करता है वह तो अज्ञानी है और जो अपनेआत्माको ही अपना मानता है वह ज्ञानी है — यह अग्नि-ईंधनके दृष्टान्तसे दृढ़ किया है ।।२०से२२।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [जगत् ] जगत् अर्थात् जगत्के जीवो ! [आजन्मलीढं मोहम् ] अनादिसंसारसे लेकर आज तक अनुभव किये गये मोहको [इदानीं त्यजतु ] अब तो छोड़ो और [रसिकानां रोचनं ] रसिक जनोंको रुचिकर, [उद्यत् ज्ञानम् ] उदय हुआ जो ज्ञान उसका [रसयतु ] आस्वादन करो; क्योंकि [इह ] इस लोकमें [आत्मा ] आत्मा [किल ] वास्तवमें [कथम् अपि ] किसीप्रकार भी [अनात्मना साकम् ] अनात्मा(परद्रव्य)के साथ [क्व अपि काले ] कदापि [तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न ] तादात्म्यवृत्ति (एकत्व)को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि [एकः ] आत्मा एक है वह अन्य द्रव्यके साथ एकतारूप नहीं होता
।
भावार्थ : — आत्मा परद्रव्यके साथ किसीप्रकार किसी समय एकताके भावको प्राप्त नहीं