श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जीव एकलो ज मरे, स्वयं जीव एकलो जन्मे अरे!
जीव एकनुं नीपजे मरण, जीव एकलो सिद्धि लहे. १०१.
मारो सुशाश्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे. १०२.
जे कांई पण दुश्चरित मुज ते सर्व हुं त्रिविधे तजुं;
करुं छुं निराकार ज समस्त चरित्र जे त्रयविधनुं. १०३.
सौ भूतमां समता मने, को साथ वेर मने नहीं;
आशा खरेखर छोडीने प्राप्ति करुं छुं समाधिनी. १०४.
अकषाय, उद्यमी, दान्त छे, संसारथी भयभीत छे,
शूरवीर छे, ते जीवने पचखाण सुखमय होय छे. १०५.
जीव-कर्म केरा भेदनो अभ्यास जे नित्ये करे,
ते संयमी पचखाण-धारणमां अवश्य समर्थ छे. १०६.
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७. परम-आलोचना अधिकार
ते श्रमणने आलोचना, जे श्रमण ध्यावे आत्मने,
नोकर्मकर्म-विभावगुणपर्यायथी व्यतिरिक्तने. १०७.
आलोचनानुं रूप चउविध वर्णव्युं छे शास्त्रमां,
— आलोचना, आलुंछना, अविकृतिकरण ने शुद्धता. १०८.
समभावमां परिणाम स्थापी देखतो जे आत्मने,
ते जीव छे आलोचना — जिनवरवृषभ-उपदेश छे. १०९.
छे कर्मतरुमूलछेदनुं सामर्थ्य जे परिणाममां,
स्वाधीन ते समभाव-निजपरिणाम आलुंछन कह्या. ११०.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय