Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration).

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श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
कर्ता तथा भोक्ता, अनादि-अनंत, देहप्रमाण ने
वणमूर्ति, द्रगज्ञानोपयोगी जीव भाख्यो जिनवरे. १४८.
द्रगज्ञानआवृति, मोह तेम ज अंतरायक कर्मने
सम्यक्पणे जिनभावनाथी भव्य आत्मा क्षय करे. १४९.
चउघातिनाशे ज्ञान-दर्शन-सौख्य-बळ चारे गुणो
प्राकट्य पामे जीवने, परकाश लोकालोकनो. १५०.
ते ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी छे, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध छे,
आत्मा तथा परमातमा, सर्वज्ञ, कर्मविमुक्त छे. १५१.
चउघातिकर्मविमुक्त, दोष अढार रहित, सदेह ए
त्रिभुवनभवनना दीप जिनवर बोधि दो उत्तम मने. १५२.
जे परमभक्तिरागथी जिनवरपदांबुजने नमे,
ते जन्मवेलीमूळने वर भावशस्त्र वडे खणे. १५३.
ज्यम कमलिनीना पत्रने नहि सलिललेप स्वभावथी,
त्यम सत्पुरुषने लेप विषयकषायनो नहि भावथी. १५४.
कहुं ते ज मुनि जे शीलसंयमगुणसमस्त कळाधरे;
जे मलिनमन बहुदोषघर, ते तो न श्रावकतुल्य छे. १५५.
१. वणमूर्ति = अमूर्त; अरूपी.
२. द्रगज्ञानआवृति = दर्शनावरण ने ज्ञानावरण.
३. प्राकट्य = प्रगटपणुं.
४. त्रिभुवनभवनना दीप = त्रण लोकरूपी घरना दीपक अर्थात् दीवारूप.
५. वर = उत्तम.
६. खणे = खोदे छे.
७. सलिल = पाणी.
८. मलिनमन = मलिन चित्तवाळो.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय