श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
वळी कोई अध्यवसानमां अनुभाग तीक्षण-मंद जे,
एने ज माने आतमा, वळी अन्य को नोकर्मने! ४०.
को अन्य माने आतमा कर्मो तणा वळी उदयने,
को तीव्रमंद-गुणो सहित कर्मो तणा अनुभागने! ४१.
को कर्म ने जीव उभयमिलने जीवनी आशा धरे,
कर्मो तणा संयोगथी अभिलाष को जीवनी करे! ४२.
दुर्बुद्धिओ बहुविध आवा, आतमा परने कहे,
ते सर्वने परमार्थवादी कह्या न निश्चयवादीए. ४३.
पुद्गल तणा परिणामथी नीपजेल सर्वे भाव आ
सहु केवळीजिन भाखिया, ते जीव केम कहो भला? ४४.
रे! कर्म अष्ट प्रकारनुं जिन सर्व पुद्गलमय कहे,
परिपाक समये जेहनुं फळ दुःख नाम प्रसिद्ध छे. ४५.
व्यवहार ए दर्शावियो जिनवर तणा उपदेशमां,
आ सर्व अध्यवसान आदि भाव ज्यां जीव वर्णव्या. ४६.
‘निर्गमन आ नृपनुं थयुं’ — निर्देश सैन्यसमूहने,
व्यवहारथी कहेवाय ए, पण भूप एमां एक छे; ४७.
त्यम सर्व अध्यवसान आदि अन्यभावो जीव छे,
— सूत्रे कर्यो व्यवहार, पण त्यां जीव निश्चय एक छे. ४८.
जीव चेतनागुण, शब्द-रस-रूप-गंध-व्यक्तिविहीन छे,
निर्दिष्ट नहि संस्थान जीवनुं, ग्रहण लिंग थकी नहीं. ४९.
नथी वर्ण जीवने, गंध नहि, नहि स्पर्श, रस जीवने नहीं,
नहि रूप के न शरीर, नहि संस्थान, संहनने नहीं; ५०.
श्री समयसार-पद्यानुवाद ]
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