श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
पण कर्मभावे परिणमन छे एक पुद्गलद्रव्यने,
जीवभावहेतुथी अलग, तेथी, कर्मना परिणाम छे. १३८.
जीवना, करम भेळा ज, जो परिणाम रागादिक बने,
तो कर्म ने जीव उभय पण रागादिपणुं पामे अरे! १३९.
पण परिणमन रागादिरूप तो थाय छे जीव एकने,
तेथी ज कर्मोदयनिमित्तथी अलग जीवपरिणाम छे. १४०.
छे कर्म जीवमां बद्धस्पृष्ट — कथित नय व्यवहारनुं;
पण बद्धस्पृष्ट न कर्म जीवमां — कथन छे नय शुद्धनुं. १४१.
छे कर्म जीवमां बद्ध वा अणबद्ध ए नयपक्ष छे;
पण पक्षथी अतिक्रांत भाख्यो ते ‘समयनो सार’ छे. १४२.
नयद्वयकथन जाणे ज केवळ समयमां प्रतिबद्ध जे,
नयपक्ष कंई पण नव ग्रहे, नयपक्षथी परिहीन ते. १४३.
सम्यक्त्व तेम ज ज्ञाननी जे एकने संज्ञा मळे,
नयपक्ष सकल रहित भाख्यो, ते ‘समयनो सार’ छे. १४४.
३. पुण्य-पाप अधिकार
छे कर्म अशुभ कुशील ने जाणो सुशील शुभकर्मने!
ते केम होय सुशील जे संसारमां दाखल करे? १४५.
ज्यम लोहनुं त्यम कनकनुं जंजीर जकडे पुरुषने,
एवी रीते शुभ के अशुभ कृत कर्म बांधे जीवने. १४६.
तेथी करो नहि राग के संसर्ग ए कुशीलो तणो,
छे कुशीलना संसर्ग-रागे नाश स्वाधीनता तणो. १४७.
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