श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
बंधन महीं जे बद्ध ते नर बंधछेदनथी छूटे,
त्यम जीव पण बंधो तणुं छेदन करी मुक्ति लहे. २९२.
बंधो तणो जाणी स्वभाव, स्वभाव जाणी आत्मनो,
जे बंध मांही विरक्त थाये, कर्ममोक्ष करे अहो! २९३.
जीव बंध बन्ने, नियत निज निज लक्षणे छेदाय छे,
प्रज्ञाछीणी थकी छेदतां बन्ने जुदा पडी जाय छे. २९४.
जीव बंध ज्यां छेदाय ए रीत नियत निज निज लक्षणे,
त्यां छोडवो ए बंधने, जीव ग्रहण करवो शुद्धने. २९५.
ए जीव केम ग्रहाय? जीव ग्रहाय छे प्रज्ञा वडे;
प्रज्ञाथी ज्यम जुदो कर्यो त्यम ग्रहण पण प्रज्ञा वडे. २९६.
प्रज्ञाथी ग्रहवो — निश्चये जे चेतनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी पर — जाणवुं. २९७.
प्रज्ञाथी ग्रहवो — निश्चये जे देखनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी पर — जाणवुं. २९८.
प्रज्ञाथी ग्रहवो — निश्चये जे जाणनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी पर — जाणवुं. २९९.
सौ भाव जे परकीय जाणे, शुद्ध जाणे आत्मने,
ते कोण ज्ञानी ‘मारुं आ’ एवुं वचन बोले खरे? ३००.
अपराध चौर्यादिक करे जे पुरुष ते शंकित फरे,
के लोकमां फरतां रखे को चोर जाणी बांधशे; ३०१.
अपराध जे करतो नथी, निःशंक लोक विषे फरे,
‘बंधाउं हुं’ एवी कदी चिंता न थाये तेहने. ३०२.
श्री समयसार-पद्यानुवाद ]
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