Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration).

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श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
ग्रहणे विसर्गे सेवतां नहि छेद जेथी थाय छे,
ते उपधि सह वर्तो भले मुनि काळक्षेत्र विजाणीने. २२२.
उपधि अनिंदितने, असंयत जन थकी अणप्रार्थ्यने,
मूर्छादिजननरहितने ज ग्रहो श्रमण, थोडो भले. २२३.
क्यम अन्य परिग्रह होय ज्यां कही देहने परिग्रह अहो!
मोक्षेच्छुने देहेय निष्प्रतिकर्म उपदेशे जिनो ? २२४.
जन्म्या प्रमाणे रूप भाख्युं उपकरण जिनमार्गमां,
गुरुवचन ने सूत्राध्ययन, वळी विनय पण उपकरणमां. २२५.
आ लोकमां निरपेक्ष ने परलोक-अणप्रतिबद्ध छे
साधु कषायरहित, तेथी युक्त आ’र-विहारी छे. २२६.
आत्मा अनेषक ते य तप, तत्सिद्धिमां उद्यत रही
वण-एषणा भिक्षा वळी, तेथी अनाहारी मुनि. २२७.
केवलशरीर मुनि त्यांय ‘मारुं न’ जाणी वण-प्रतिकर्म छे,
निज शक्तिना गोपन विना तप साथ तन योजेल छे. २२८.
आहार ते एक ज, ऊणोदर ने यथा-उपलब्ध छे,
भिक्षा वडे, दिवसे, रसेच्छाहीन, वण-मधुमांस छे. २२९.
वृद्धत्व, बाळपणा विषे, ग्लानत्व, श्रांत दशा विषे,
चर्या चरो निजयोग्य, जे रीत मूळछेद न थाय छे. २३०.
जो देश-काळ तथा क्षमा-श्रम-उपधिने मुनि जाणीने
वर्ते अहारविहारमां, तो अल्पलेपी श्रमण ते. २३१.
श्रामण्य ज्यां ऐकाग्र्य, ने ऐकाग्र्य वस्तुनिश्चये,
निश्चय बने आगम वडे, आगमप्रवर्तन मुख्य छे. २३२.
६२ ]
[ शास्त्र-स्वाध्याय