Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 103-128 ; 10. Lokanupreksha.

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निर्जरानुं स्वरूप
सव्वेसिं कम्माणं सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाओ
तदणंतरं तु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण ।।१०३।।
सर्वेषां कर्मणां शक्तिविपाकः भवति अनुभागः
तदनन्तरं तु शटनं कर्मणां निर्जरां जानीहि ।।१०३।।

अर्थःसमस्त जे ज्ञानावरणदि आठ कर्मनी शक्ति एटले फळ देवाना सामर्थ्यनो विपाक थवोउदय थवो, तेने अनुभाग कहीए छीए. ते उदय आवीने तुरत ज तेनुं खरवुं-झरवुं थाय तेने हे भव्य! तुं कर्मनी निर्जरा जाण!

भावार्थःकर्म, उदय आवीने, खरी जाय तेने निर्जरा कहीए छीए.

ते निर्जरा बे प्रकारनी छे, ते कहे छेः

निर्जराना बे प्रकार
सा पुण दुविहा णेया सकालपत्ता तवेण कयमाणा
चादुगदीणं पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ।।१०४।।
सा पुनः द्विविधा ज्ञेया स्वकालप्राप्ता तपसा क्रियमाणाः
चातुगरतिकानां प्रथमा व्रतयुक्तानां भवेत् द्वितीया ।।१०४।।

अर्थःउपर कहेली निर्जरा बे प्रकारनी छे. एक तो स्वकाळप्राप्त अने बीजी तप वडे थाय ते. तेमां प्रथमनी स्वकाळप्राप्त निर्जरा तो चारे गतिना जीवोने थाय छे तथा बीजी जे तप वडे थाय छे, ते व्रतयुक्त जीवोने थाय छे.

भावार्थःनिर्जरा बे प्रकारनी छे. तेमां जे कर्म स्थिति पूरी


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थतां उदय पामी रस आपी खरी जाय तेने तो सविपाकनिर्जरा कहीए छीए. आ निर्जरा तो सघळा जीवोने थाय छे. तथा तप वडे कर्मो अपूर्ण स्थितिए पण परिपक्व थई खरी जाय तेने अविपाकनिर्जरा कहीए छीए अने ते व्रतधारीने थाय छे.

हवे निर्जरानी वृद्धि शाथी थाय छे ते कहे छेः

उवसमभावतवाणं जह जह वड्ढी हवेइ साहूणं
तहं तह णिज्जर वड्ढी विसेसदो धम्मसुक्कादो ।।१०५।।
उपशमभावतपसां यथा यथा वृद्धिः भवति साधोः
तथा तथा निर्जरावृद्धिः विशेषतः धर्मशुक्लाभ्याम् ।।१०५।।

अर्थःमुनिजनोने जेम जेम उपशमभाव तथा तपनी वृद्धि थाय छे तेम तेम निर्जरानी पण वृद्धि थाय छे. वळी धर्मध्यान अने शुक्लध्यानथी तो विशेष वृद्धि थाय छे.

हवे ए वृद्धिनां स्थान कहे छेः

मिच्छादो सद्दिट्ठी असंखगुणकम्मणिज्जरा होदि
तत्तो अणुवयधारी तत्तो य महव्वई णाणी ।।१०६।।
पढमकसायचउण्हं विजोजओ तह य खवयसीलो य
दंसणमोहतियस्स य तत्तो उवसमगचत्तरि ।।१०७।।
खवगो य खीणमोहो सजोइणाहो तहा अजोईया
एदे उवरिं उवरिं असंखगुणकम्मणिज्जरया ।।१०८।।
मिथ्यात्वतः सद्दृष्टिः असंख्यगुणकमरनिर्जरो भवति
ततः अणुव्रतधारी ततः च महाव्रती ज्ञानी ।।१०६।।
प्रथमकषायचतुर्णां वियोजकः तथा च क्षपकशीलः च
दर्शनमोहत्रिकस्य च ततः उपशमकचत्वारः ।।१०७।।

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क्षपकः च क्षीणमोहः सयोगिनाथः तथा अयोगिनः
एते उपरि उपरि असंख्यगुणकमरनिर्जरकाः ।।१०८।।

अर्थःप्रथमोपशमसम्यक्त्वनी उत्पत्ति वखते त्रण करणवर्ती (अधःकरण-अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण ए त्रण करणमां वर्तता) विशुद्धपरिणाम सहित मिथ्याद्रष्टिने जे निर्जरा थाय छे, तेनाथी असंयतसम्यग्द्रष्टिने असंख्यात गणी निर्जरा थाय छे. तेनाथी देशव्रती श्रावकने असंख्यात गणी थाय छे अने तेनाथी महाव्रती मुनिजनोने असंख्यात गणी थाय छे.

तेनाथी अनंतानुबंधीकषायनुं विसंयोजन करवावाळाने एटले तेने अप्रत्याख्यानावरणदिरूपे परिणमावनारने असंख्यात गणी थाय छे, तेनाथी दर्शनमोहनो क्षय करवावाळाने असंख्यात गणी थाय छे, तेनाथी उपशमश्रेणीवाळा त्रण गुणस्थानवर्तीने असंख्यात गणी थाय छे अने तेनाथी अगियारमा उपशांतमोह गुणस्थानवाळाने असंख्यात गणी थाय छे.

तेनाथी क्षपकश्रेणीवाळा त्रण गुणस्थानमां असंख्यात गणी थाय छे, तेनाथी बारमा क्षीणमोहगुणस्थानमां असंख्यात गणी थाय छे, तेनाथी सयोगकेवलीने असंख्यात गणी थाय छे, तथा तेनाथी अयोगकेवलीने असंख्यात गणी थाय छे. ए प्रमाणे उपर उपर असंख्यात गुणाकाररूप निर्जरा छे तेथी तेने गुणश्रेणी निर्जरा कहीए छीए.

हवे गुणाकार रहित अधिकरूप निर्जरा जेनाथी थाय छे ते अहीं कहीए छीएः

जो विसहदि दुव्वयणं साहम्मियहीलणं च उवसग्गं
जीणिऊण कसायरिउं तस्स हवे णिज्जरा विउला ।।१०९।।
यः विषहते दुर्वचनं साधर्मिकहीलनं च उपसर्गम्
जित्वा कषायरिपुं तस्य भवेत् निर्जरा विपुला ।।१०९।।

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अर्थःजे मुनि दुर्वचन सहन करे छे, अन्य साधर्मी मुनि अदि द्वारा करायेला अनादरने सहन करे छे, देवदिकोए करेला उपसर्गने सहन करे छे;ए प्रमाणे कषायरूप वैरिओने जीते छे, तेने विपुल अर्थात् घणी निर्जरा थाय छे.

भावार्थःकोई कुवचन कहे तेना प्रत्ये कषाय न करे, पोताने अतिचारदि दोष लागतां आचायारदिक कठोर वचन कही प्रायश्चित आपेनिरादर करे तोपण तेने निष्कषायपणे सहन करे तथा कोई उपसर्ग करे तेनी साथे पण कषाय न करे, तेने घणी निर्जरा थाय छे.

रिणमोयणुव्व मण्णइ जो उवसग्गं परीसहं तिव्वं
पावफलं मे एदं मया वि जे संचिदं पुव्वं ।।११०।।
ऋणमोचनवत् मन्यते यः उपसर्गं परीषहं तीव्रम्
पापफलं मे एतत् मया अपि यत् संचितं पूर्वम् ।।११०।।

अर्थःजे मुनि उपसर्ग तथा तीव्र परीषह आवतां एम माने छे के में पूर्वजन्ममां पापनो संचय कर्यो हतो तेनुं आ फळ छे, तेने (शांतिपूर्वक) भोगववुं पण तेमां व्याकुल न थवुं. जेम के कोईनां करजे नाणां लीधां होय ते ज्यारे पेलो मागे त्यारे आपी देवां, पण तेथी व्याकुळता शा माटे करवी? ए प्रमाणे माननारने घणी निर्जरा थाय छे.

जो चिंतेइ सरीरं ममत्तजणयं विणस्सरं असुइं
दंसणणाणचरित्तं सुहजणयं णिम्मलं णिच्चं ।।१११।।
यः चिन्तयति शरीरं ममत्वजनकं विनश्वरं अशुचिम्
दर्शनज्ञानचरित्रं शुभजनकं निर्मलं नित्यम् ।।१११।।

अर्थःजे मुनि, आ शरीरने ममत्व-मोहनुं उपजाववावाळुं, विनाशी तथा अपवित्र माने छे अने दर्शन-ज्ञान-चरित्रने शुभजनक (सुख उपजावनार), निर्मळ तथा नित्य माने छे तेने घणी निर्जरा थाय छे.

भावार्थःशरीरने मोहना कारणरूप, अस्थिर अने अशुचिरूप


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माने तो तेनो शोच न रहे. अने पोते पोताना स्वरूपमां लागे त्यारे निर्जरा अवश्य थाय.

अप्पाणं जो णिंदइ गुणवंताणं करेदि बहुमाणं
मणइंदियाण विजई स सरूवपरायणो होदि ।।११२।।
आत्मानं यः निन्दयति गुणवतां करोति बहुमानम्
मनइन्द्रियाणां विजयी स स्वरूपपरायणो भवति ।।११२।।

अर्थःजे साधु पोताना स्वरूपमां तत्पर थई पोते करेलां दुष्कृतोनी निंदा करे छे, गुणवान पुरुषोनो प्रत्यक्ष के परोक्ष घणो ज आदर करे छे तथा पोतानां मन-इन्द्रियोने जीते छेवश करे छे तेने घणी निर्जरा थाय छे.

भावार्थःमिथ्यात्वदि दोषोनो निरादर करे तो ते मिथ्यात्वदिकर्मो क्यांथी टके! झडी ज जाय.

तस्स य सहलो जम्मो तस्स वि पावस्स णिज्जरा होदि
तस्स वि पुण्णं वढ्ढदि तस्स य सोक्खं परं होदि ।।११३।।
तस्य च सफलं जन्म तस्य अपि पापस्य निर्जरा भवति
तस्य अपि पुण्यं वर्धते तस्य च सौख्यं परं भवति ।।११३।।

अर्थःजे साधु ए प्रमाणे पूर्वोक्त प्रकारे निर्जरानां कारणोमां प्रवर्ते छे तेनो ज जन्म सफळ छे, तेने ज पापकर्मोनी निर्जरा थाय छे अने पुण्यकर्मनो अनुभाग वधे छे, वळी तेने ज उत्कृष्ट सुख प्राप्त थाय छे.

भावार्थःजे निर्जरानां कारणोमां प्रवर्ते छे तेने पापनो नाश थाय छे, पुण्यनी वृद्धि थाय छे तथा ते स्वगारदिनां सुख भोगवी (अनुक्रमे) मोक्षने प्राप्त थाय छे.

हवे उत्कृष्ट निर्जराना स्वामीनुं स्वरूप कहीने निर्जरानुं कथन पूरुं करे छे


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जो समसोक्खणिलीणो वारंवारं सरेइ अप्पाणं
इंदियकसायविजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ।।११४।।
यः समसौख्यनिलीनः वारंवारं स्मरति आत्मानम्
इन्द्रियकषायविजयी तस्य भवेत् निर्जरा परमा ।।११४।।

अर्थःजे मुनि, वीतरागभावरूप सुख के जेनुं नाम परमचरित्र छे तेमां लीन अर्थात् तन्मय थाय छे, वारंवार आत्मानुं स्मरण-चिंतवन करे छे तथा इन्द्रियोने जीतवावाळा छे तेमने उत्कृष्ट निर्जरा थाय छे.

भावार्थःइन्द्रियोनो तेम ज कषायोनो निग्रह करी परम वीतरागभावरूप आत्मध्यानमां जे लीन थाय छे तेने उत्कृष्ट निर्जरा थाय छे.

(दोहरो)
पूर्वे बांध्यां कर्म जे, खरे तपोबल पाय;
सो निर्जरा कहाय है, धारे ते शिव जाय.
इति निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त.

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१०. लोकानुप्रेक्षा

हवे लोकानुप्रेक्षानुं वर्णन करीए छीए. त्यां प्रथम ज लोकनो आकारदि कहीशुं. तेमां कंईक गणितने प्रयोजनरूप जाणीने तेनो संक्षेपमां भावार्थ अन्य ग्रंथानुसार अहीं लखीए छीए. त्यां प्रथम तो परिकर्माष्टक छे. तेमां, पहेलुंसंकलन एटले जोडी देवुं तेसरवाळो करवो ते; जेम केआठ ने सातनो सरवाळो करतां पंदर थाय. बीजुंव्यवकलन एटले बादबाकी काढवी ते, जेम के आठमांथी त्रण घटाडतां पांच रहे. त्रीजुं गुणाकार; जेम के आठने सातथी गुणतां छप्पन थाय. चोथुंभागाकार; जेम के आठने बेनो भाग आपतां चार थाय. पांचमुंवर्ग एटले बराबरनी संख्यानी बे राशी गुणतां जेटला थाय तेटला तेना वर्ग कहेवाय; जेम के आठनो वर्ग चोसठ. छठ्ठुंवर्गमूळ एटले जेम चोसठनुं वर्गमूळ आठ. सातमुंघन एटले त्रण रशि बराबर गुणतां जे थाय ते; जेम के आठनो घन पांचसो बार तथा आठमुंघनमूल एटले पांचसो बारनुं घनमूळ आठ. ए प्रमाणे परिकर्माष्टक जाणवुं.

वळी त्रैरशिक छे, जेमां एक प्रमाणरशि, एक फळरशि तथा एक इच्छारशि; जेम के कोई वस्तु बे रूपियानी सोळ शेर आवे तो आठ रूपियानी केटली आवे? अहीं प्रमाणरशि बे छे, फळरशि सोळ छे तथा इच्छारशि आठ छे. त्यां फळरशिने इच्छारशि साथे गुणतां एक सो अठ्ठावीस थाय, तेने प्रमाणरशिनी बे संख्याथी भाग आपतां चोसठ शेर आवेएम जाणवुं.

वळी क्षेत्रफळएटले ज्यां समान खंड (भाग) करीए तेने क्षेत्रफळ कहीए छीए; जेम के खेतरमां दोरी मापीए त्यारे कचवांसी, विसवांसी, वीघा करीए छीए ते क्षेत्रफळ कहेवाय छे; जेम केएंशी हाथनी दोरी होय, तेना वीस गुंठा करतां चार हाथनो गूंठो थाय. ए


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प्रमाणे एक दोरी लांबुपहोळुं खेतर होय तेना चार चार हाथना लांबापहोळा खंड करीए तो वीसने वीसे गुणतां चारसो थाय, तेने कचवांसी कहे छे. तेनी वीस विसवांसी थई, तेनो एक वीघो थयो. ए प्रमाणे चोरस, त्रिकोण वा गोळ अदि खेतर होय तेने समान खंडथी मापी क्षेत्रफळ लाववामां आवे छे; ए ज प्रमाणे लोकना क्षेत्रने योजनदिनी संख्या वडे जेवुं क्षेत्र होय तेवा विधानथी क्षेत्रफळ लाववानुं विधान गणितशास्त्रथी जाणवुं.

अहीं लोकना क्षेत्रमां अने द्रव्योनी गणनामां अलौकिक गणित एकवीस छे, तथा उपमागणित आठ छे. त्यां संख्यातना त्रण भेद छे जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट. असंख्यातना नव भेद छेतेमां जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट ए त्रण प्रकारे परीतासंख्यात; जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट ए त्रण प्रकारे युक्तासंख्यात; तथा जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट ए त्रण प्रकारे असंख्यातासंख्यात. ए प्रमाणे असंख्यातना नव भेद थया. वळी अनंतना पण नव भेद छे. ते आ प्रमाणेजघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट ए त्रण प्रकारथी परीतानंत; जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट ए त्रण प्रकारथी युक्तानंत; तथा जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट ए त्रण प्रकारथी अनंतानंतए प्रमाणे अनंतना नव भेद छे. ए प्रमाणे संख्यातना त्रण, असंख्यातना नव तथा अनंतना नव मळी अलौकिक गणितना एकवीस भेद थया.

त्यां जघन्यपरीतासंख्यात (नुं माप) लाववा माटे जंबूद्वीप जेवडा लाख-लाख योजनना व्यासवाळा तथा हजार-हजार योजन ऊंडा चार कुंड करीए. तेमां एकनुं नाम अनवस्थाकुंड, बीजानुं नाम शलाकाकुंड, त्रीजानुं नाम प्रतिशलाकाकुंड तथा चोथानुं नाम महाशलाकाकुंड. तेमां प्रथमना अनवस्थाकुंडने सरसवना दाणाथी पूरेपूरो भरीए तो तेमां छेंतालीस अंक प्रमाण सरसव समाय. तेने संकल्पमात्र लईने चालीए; तेमांथी एक द्वीपमां अने एक समुद्रमां ए प्रमाणे नाखता जईए; त्यां ज्यां ए सरसव पूरा थाय ते द्वीप वा समुद्रना माप प्रमाणे


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अनवस्थाकुंड करी तेमां सरसव भरीए अने शलाकाकुंडमां एक सरसव बीजो लावीने नाखीए, हवे ए बीजा अनवस्थाकुंडमांथी एक सरसव एक द्वीपमां अने एक समुद्रमां ए प्रमाणे नाखता जईए. ए प्रमाणे करतां करतां ते अनवस्थाकुंडना सरसव ज्यां पूरा थाय त्यां ते द्वीप वा समुद्रना माप प्रमाणे त्रीजो अनवस्थाकुंड करी तेने पण एवी ज रीते सरसवथी भरीए, अने एक सरसव शलाकाकुंडमां बीजो लावीने नांखीए. ए प्रमाणे करतां करतां छेंतालीस अंकप्रमाण अनवस्थाकुंड पूरा थाय त्यारे एक शलाकाकुंड भराय अने ते वेळा एक सरसव प्रतिशलाकाकुंडमां नाखवो, ए ज प्रमाणे अनवस्थाकुंड थतो जाय तथा शलाकाकुंड पण थतो जाय; ए प्रमाणे करतां करतां छेंतालीस अंकप्रमाण शलाकाकुंड भराई जाय त्यारे एक प्रतिशलाकाकुंड भराय. ए प्रमाणे अनवस्थाकुंड थतो जाय, शलाकाकुंड भरातो जाय तथा प्रतिशलाकाकुंड पण भरातो जाय. ज्यारे छेंतालीस अंकप्रमाण प्रतिशलाकाकुंड भराई जाय त्यारे एक महाशलाकाकुंड भराय. ए प्रमाणे करतां छेंतालीस अंकोना घनप्रमाण अनवस्थाकुंड थया. तेमां छेल्लो अनवस्थाकुंड जे द्वीप वा समुद्रना माप प्रमाणे बन्यो तेमां जेटला सरसव समाय तेटलुं जघन्य परीतासंख्यातनुं प्रमाण छे.

तेमांथी एक सरसव घटाडतां ते उत्कृष्ट संख्यात कहेवाय, तथा बे सरसव प्रमाण जघन्य संख्यात कहेवाय, तथा वच्चेना बधाय मध्यम संख्यातना भेद जाणवा.

वळी ते जघन्य परीतासंख्यातना सरसवनी रशिने एक एक विखेरी एक एक उपर ते ज रशिने स्थपि परस्पर गुणतां अंतमां जे रशि आवे तेने जघन्य युक्तासंख्यात कहीए छीए, तेमांथी एक रूप घटाडतां उत्कृष्ट परीतासंख्यात कहेवाय अने मध्यना नाना (अनेक) भेद जाणवा.

वळी जघन्य युक्तासंख्यातने जघन्य युक्तासंख्यात वडे एक वार परस्पर गुणतां जे प्रमाण आवे ते जघन्य असंख्यातासंख्यात कहेवाय


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छे. तेमांथी एक घटाडतां उत्कृष्ट युक्तासंख्यात थाय छे. वच्चेना नाना भेद मध्यम युक्तासंख्यातना जाणवा.

हवे ए जघन्य असंख्यातासंख्यातप्रमाण त्रण रशि करवी. एक शलाकारशि, एक विरलनरशि, एक देयरशि. त्यां विरलनरशिने विखेरी एक एक जुदा जुदा करवा, एक एकना उपर एक एक देयरशि मुकवी. तेने परस्पर गुणतां ज्यारे सर्व गुणाकार थई रहे त्यारे एक रूप शलाकारशिमांथी घटाडवुं. वळी त्यां जे रशि थई ते प्रमाणे विरलन देयरशि करवी. त्यां ए विरलनने विखेरी एक एकने जुदा करी एक एकना उपर देयरशि मूकवी अने तेनो परस्पर गुणाकार करतां जे रशि ऊपजे त्यारे एक शलाकारशिमांथी पाछो घटाडवो. वळी जे रशि उपजी तेना प्रमाणमां विरलन देयरशि करवी. पछी विरलनने विखेरी देयने एक एकना उपर स्थापी परस्पर गुणाकार करवो अने एक रूप शलाकामांथी घटाडवुं. ए प्रमाणे विरलनरशि देय वडे गुणाकार करता जवुं तथा शलाकामांथी घटाडता जवुं, एम करतां करतां ज्यारे शलाकारशि पूरेपूरी निःशेष थई जाय त्यारे जे कंई प्रमाण आवे ते मध्यम असंख्यातासंख्यातनो भेद छे. वळी तेटला तेटला प्रमाण शलाका, विरलन, देय

ए त्रण रशि फरी करवी. तेने पण उपर

प्रमाणे करतां ज्यारे शलाकारशि निःशेष थई जाय त्यारे जे महारशि प्रमाण आवे ते पण मध्यम असंख्यातासंख्यातनो भेद छे. वळी ते रशि प्रमाण फरीथी शलाका, विरलन, देयरशि करी तेने पूर्वोक्त विधानथी गुणतां जे महारशि थई ते पण मध्यम असंख्यातासंख्यातनो भेद छे. त्यां शलाकात्रयनिष्ठापन एक वार थयुं.

वळी ते रशिमां असंख्यातासंख्यात प्रमाण छ रशि बीजी मेळववी. ते छ रशि आ प्रमाणे(१) लोकप्रमाण धर्मद्रव्यना प्रदेश, (२) अधर्मद्रव्यना प्रदेश, (३) एक जीवना प्रदेश, (४) लोकाकाशना प्रदेश, (५) ते लोकथी असंख्यात गणा अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवोनुं प्रमाण, तथा (६) तेनाथी असंख्यात गणा सप्रतिष्ठित प्रत्येक


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वनस्पति जीवोनुं प्रमाण. ए छ रशि मेळवी पूर्वोक्त प्रकारथी शलाका, विरलन, देयरशिना विधानथी शलाकात्रय निष्ठापन करवुं. त्यां जे महारशि आवे ते पण मध्यम असंख्यातासंख्यातनो भेद छे. तेमां चार रशि बीजी मेळववी. ते आ प्रमाणे(१) वीस कोडाकोडी सागरप्रमाण कल्पकाळना समय, (२) स्थितिबंधना कारणरूप कषायोनां स्थान, (३) अनुभागबंधना कारणरूप कषायोनां स्थान तथा (४) योगना अविभागप्रतिच्छेद. ए प्रमाणे चार रशि मेळवी पूर्वोक्त विधानथी शलाकात्रय निष्ठापन करवुं. ए प्रमाणे करतां जे प्रमाण थयुं ते जघन्य परितानंतरशि थई. तेमांथी एक रूप घटाडतां उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात थाय छे. अने वच्चेना जुदाजुदा भेद मध्यमना जाणवा.

वळी जघन्य परीतानंत रशिनुं विरलन करी एक एक उपर एक एक जघन्य परीतानन्त स्थापन करी परस्पर गुणतां जे प्रमाण थाय ते जघन्य युक्तानंत जाणवुं. तेमांथी एक घटाडतां उत्कृष्ट परीतानंत थाय छे. वच्चेना जुदा जुदा भेद मध्यम परीतानंतना छे. वळी जघन्य युक्तानंतने जघन्य युक्तानंत वडे एक वार परस्पर गुणतां जघन्य अनंतानंत थाय छे. तेमांथी एक घटाडतां उत्कृष्ट युक्तानंत थाय छे, तथा वच्चेना जुदा जुदा भेद मध्यम युक्तानंतना जाणवा.

हवे उत्कृष्ट अनंतानंतने लाववानो उपाय कहे छेः

जघन्य अनंतानंत प्रमाण शलाका, विरलन, देयए त्रण रशि वडे अनुक्रमे प्रथम कह्या प्रमाणे शलाकात्रय निष्ठापन करतां मध्यम अनंतानंतना भेदरूप रशि आवे छे. तेमां सिद्धरशि, निगोदरशि, प्रत्येक वनस्पति सहित निगोदरशि, पुद्गलरशि, काळना समय तथा आकाशना प्रदेशए छ रशि मध्यम अनंतानंतना भेदरूपे मेळवीने शलाकात्रय निष्ठापन पूर्ववत् विधानथी करतां मध्यम अनंतानंतना भेदरूप रशि आवे छे. तेमां फरी धर्मद्रव्य-अधर्मद्रव्यना अगुरुलघु गुणना अविभागप्रतिच्छेद मेळवतां जे महारशिप्रमाण रशि थई तेने फरी पूर्वोक्त विधानथी शलाकात्रय निष्ठापन करतां जे कोई मध्यम


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अनंतानंतना भेदरूप रशि थाय तेने केवळज्ञानना अविभागप्रतिच्छेदनो समूह प्रमाणमां घटावी फरी मेळववी, त्यारे केवळज्ञानना अविभागप्रतिच्छेदरूप उत्कृष्ट अनंतानंतप्रमाण रशि थाय छे.

उपमाप्रमाण आठ प्रकारथी कह्युं छेःपल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगत्श्रेणी, जगत्प्रतर अने जगत्घन. तेमां पल्यना त्रण प्रकार छेव्यवहारपल्य, उद्धारपल्य तथा अद्धापल्य. त्यां व्यवहारपल्य तो रोमोनी संख्या प्रमाण ज छे. उद्धारपल्य वडे द्वीप- समुद्रोनी संख्या गणवामां आवे छे तथा अद्धापल्य वडे कर्मोनी स्थिति तथा देवदिकनी आयुस्थिति गणवामां आवे छे.

हवे तेमनुं परिमाण जाणवा माटे परिभाषा कहे छेः

अनंत पुद्गलना परमाणुओना स्कंधने एक अवसन्नासन्न कहे छे, तेनाथी आठ आठ गुणा क्रमथी बार स्थानक जाणवां. सन्नासन्न, तृटरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु उत्तम भोगभूमिना वाळनो अग्रभाग, मध्यम भोगभूमिना वाळनो अग्रभाग, जघन्यभोगभूमिना वाळनो अग्रभाग, कर्मभूमिना वाळनो अग्रभाग, लीख, सरसव, जव अने आंगळ बार स्थानक छे. आ आंगळ छे ते उत्सेधआंगळ छे, ए वडे नारकी, देव, तिर्यंच अने मनुष्योना शरीरनुं प्रमाण वर्णन करवामां आवे छे तथा देवोनां नगर-मंदिरदिनुं वर्णन करवामां आवे छे. वळी उत्सेधआंगळथी पांचसो गणा प्रमाणांगुल छे. ए वडे द्वीप, समुद्र अने पर्वतदिना परिमाणनुं वर्णन करवामां आवे छे. तथा आत्मांगुल, ज्यां जेवा मनुष्यो होय त्यां ते प्रमाणे जाणवो. छ आंगळनो पाद थाय छे, बे पादनो एक विलस्त (वेंत) थाय छे, बे विलस्तनो एक हाथ थाय छे. बे हाथनो एक भीष (वार) थाय छे, बे भीषनो एक धनुष थाय छे, बे हजार धनुषनो एक कोष थाय छे, चार कोषनो एक योजन थाय छे.

अहीं प्रमाणांगुल वडे ऊपज्यो एवो, एक योजन प्रमाण ऊंडो अने पहोळो एक खाडो करवो अने तेने उत्तम भोगभूमिमां ऊपजेला,


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जन्मथी मांडीने सात दिवस सुधीना, मेंढाना वाळना अग्रभाग वडे, भूमि समान अत्यंत दाबीने भरवो; ए प्रमाणे भरतां ते खाडामां पिस्ताळीस अंको प्रमाण रोम समाय छे. तेमांथी दर सो सो वर्ष वीत्ये एक एक रोम काढवो; ए प्रमाण करतां ए खाडो तद्दन खाली थतां जेटलां वर्ष थाय तेटलां वर्षने एक व्यवहारपल्य कहे छे. ए वर्षोना असंख्यात समय थाय छे.

वळी एक एक रोमना, असंख्यात करोड वर्षना जेटला समय थाय, तेटला तेटला खंड करवामां आवे ते उद्धारपल्यना रोमखंड छे अने तेटला समय उद्धारपल्यना छे.

ए उद्धारपल्यना असंख्यात वर्षना जेटला समय थाय तेटला, एक एक रोमना खंड करतां एक अद्धापल्यना रोमखंड थाय छे, तेना समय पण तेटला ज छे. दश कोडाकोडी पल्यनो एक सागर थाय छे.

वळी एक प्रमाणांगुलप्रमाण लांबा अने एक प्रदेशप्रमाण पहोळा ऊंचा क्षेत्रने एक सूच्यंगुल कहीए छीए. तेना प्रदेश अद्धापल्यना अर्धछेदोनुं विरलन करी एक एक अद्धापल्य ते उपर स्थापी परस्पर गुणतां जे प्रमाण आवे तेटला तेना प्रदेश छे. तेना वर्गने एक प्रतरांगुल कहीए छीए. सूच्यंगुलना घनने एक घनांगुल कहीए छीए. एक अंगुल लांबा, पहोळा अने ऊंचा भागने घनांगुल कहीए छीए. सात राजु लांबा अने एक प्रदेशप्रमाण पहोळा ऊंचा क्षेत्रने एक जगत्श्रेणी कहीए छीए. तेनी उत्पत्ति आ प्रमाणे छेः

अद्धापल्यना अर्धछेदोना असंख्यातमा भागना प्रमाणनुं विरलन करी एक एक उपर घनांगुल आपी परस्पर गुणतां जे रशि आवे ते जगत्श्रेणि छे. जगत्श्रेणिनो वर्ग छे ते जगत्प्रतर छे अने जगत्श्रेणिनुं घन छे ते जगत्घन छे. ते जगत्घन सात राजु लांबो, पहोळो, उंचो छे. ए प्रमाणे लोकना प्रदेशोनुं प्रमाण छे अने ते पण मध्यम असंख्यातनो भेद छे. ए प्रमाणे अहीं संक्षेपमां गणित कह्युं; विशेषतापूर्वक तो तेनुं कथन गोम्मटसार ने त्रिलोकसारमांथी जाणवुं.


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द्रव्यमां सूक्ष्म तो पुद्गलपरमाणु, क्षेत्रमां आकाशनो प्रदेश, काळमां समय तथा भावमां अविभागप्रतिच्छेद. ए चारेने परस्पर प्रमाण संज्ञा छे. अल्पमां अल्प तो आ प्रमाणे छे तथा वधारेमां वधारे द्रव्यमां तो महास्कंध, क्षेत्रमां आकाश, काळमां त्रणे काळ तथा भावमां केवळज्ञान जाणवुं. काळमां एक आवलीना जघन्ययुक्तासंख्यात समय छे, असंख्यात आवलीनुं एक मुहूर्त छे, त्रीस मुहूर्तनो एक रत्रिदिवस छे, त्रीस रत्रिदिवसनो एक मास छे अने बार मासनुं एक वर्ष छे. इत्यदि जाणवुं.

हवे प्रथम ज लोकाकाशनुं स्वरूप कहे छेः

सव्वायासमणंतं तस्स य बहुमज्झसंट्ठिओ लोओ
सो केण वि णेव कओ ण य धरिओ हरिहरादीहिं ।।११५।।
सर्वाकाशमनन्तं तस्य च बहुमध्यसंस्थितः लोकः
सः केन अपि नैव कृतः न च धृतः हरिहरदिभिः ।।११५।।

अर्थःआकाशद्रव्यनो क्षेत्र-प्रदेश अनंत छे. तेना अति मध्यदेशमां अर्थात् वच्चोवच्चना क्षेत्रमां रहे छे ते लोक छे. ते (लोक) कोईए कर्यो नथी तथा कोई हरिहरदिए धारेलो वा राखेलो नथी.

भावार्थःअन्यमतमां घणा कहे छे के‘‘लोकनी रचना ब्रह्मा करे छे, नारायण रक्षा करे छे, शिव संहार करे छे; काचबाए वा शेषनागे तेने धारण कर्यो छे, प्रलय थाय छे त्यारे सर्व शून्य थई जाय छे अने ब्रह्मनी सत्ता मात्र रही जाय छे तथा ए ब्रह्मनी सत्तामांथी (फरीथी) सृष्टिनी रचना थाय छे.’’इत्यदि अनेक कल्पित वातो कहे छे. ते सर्वनो निषेध आ सूत्रथी जाणवो. आ लोक कोईए करेलो नथी, कोईए (पोताना उपर) धारण करेलो नथी तथा कोईथी नाश पामतो नथी, जेवो छे तेवो ज श्री सर्वज्ञे दीठो छे अने ते ज वस्तुस्वरूप छे.

हवे आ लोकमां शुं छे? ते कहे छेः


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अण्णोण्णपदेसेण य दव्वाणं अच्छणं भवे लोओ
दव्वाण णिवत्तो लोयस्य वि मुणह णिच्चत्तं ।।११६।।
अन्योन्यप्रदेशेन च द्रव्याणां आसनं भवेत् लोकः
द्रव्याणां नित्यत्वात् लोकस्य अपि जानीहि नित्यत्वम् ।।११६।।

अर्थःजीवदि द्रव्योना परस्पर एकक्षेत्रावगाहरूप प्रवेश अर्थात् मेळापरूप अवस्थान छे ते लोक छे. जे द्रव्यो छे ते नित्य छे तेथी लोक पण नित्य छे एम जाणो.

भावार्थःछ द्रव्योनो समुदाय छे ते लोक छे, ते (छए) द्रव्यो नित्य छे तेथी लोक पण नित्य ज छे.

हवे कोई तर्क करे केजो ते नित्य छे तो आ ऊपजे-विणसे छे ते कोण छे? तेना समाधानरूप सूत्र कहे छेः

परिणामसहादादो पडिसमयं परिणमंति दव्वणि
तेसिं परिणामादो लोयस्स वि मुणह परिणामं ।।११७
परिणामस्वभावात् प्रतिसमयं परिणमन्ति द्रव्यणि
तेषां परिणामात् लोकस्य अपि जानीहि परिणामम् ।।११७।।

अर्थःआ लोकमां छए द्रव्यो छे ते परिणामस्वभावी छे तेथी तेओ समये समये परिणमे छे; तेमना परिणमवाथी लोकना पण परिणाम जाणो.

भावार्थःद्रव्यो छे ते परिणामी छे अने द्रव्योनो समुदाय छे ते लोक छे; तेथी द्रव्योना परिणाम छे ते ज लोकना पण परिणाम थया. अहीं कोई पूछे केपरिणाम एटले शुं? तेनो उत्तरःपरिणाम नाम पर्यायनुं छे; जे द्रव्य एक अवस्थारूप हतुं ते पलटाई अन्य अवस्थारूप थयुं ( ते ज परिणाम वा पर्याय छे). जेम माटी पिंड-अवस्थारूप हती, ते ज पलटाईने घट बन्यो. ए प्रमाणे परिणामनुं स्वरूप जाणवुं. अहीं लोकनो आकार तो नित्य छे तथा द्रव्योनी पर्याय पलटाय छे; ए अपेक्षाए परिणाम कहीए छीए.


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हवे लोकनो आकार तो नित्य छेएम धारीने तेना व्यासदि (माप) कहे छेः

सत्तेक्क-पंच-इक्का मूले मज्झे तहेव बंभंते
लोयंते रज्जूओ पुव्वावरदो य वित्थारो ।।११८।।
सप्त-एकः-पंच-एकाः मूले मध्ये तथैव ब्रह्मान्ते
लोकान्ते रज्जवः पूर्वापरतः च विस्तारः ।।११८।।

अर्थःलोकनो नीचे मूळमां पूर्व-पश्चिम तो सात राजु विस्तार छे, मध्यमां एक राजु विस्तार छे. उपर ब्रह्मस्वर्गना अंतमां पांच राजु विस्तार छे तथा लोकना अंतमां एक राजुनो विस्तार छे.

भावार्थःआ लोकना नीचला भागमां पूर्व-पश्चिमदिशामां सात राजु पहोळो छे, त्यांथी अनुक्रमे घटतो घटतो मध्यलोकमां एक राजु रहे छे, पछी उपर अनुक्रमे वधतो वधतो ब्रह्मस्वर्गना अंतमां पांच राजु पहोळो थाय छे, पछी घटतो घटतो अंतमां एक राजु रहे छे, ए प्रमाणे थतां दोढ मृदंग ऊभां मूकीए तेवा आकार थाय छे.

हवे दक्षिण-उत्तर विस्तार वा उंचाई कहे छेः

दक्खिण-उत्तरदो पुण सत्त वि रज्जू हवंति सव्वत्थ
उड्ढो चउदश रज्जू सत्त वि रज्जू घणो लोओ ।।११९।।
दक्षिणोत्तरतः पुनः सप्त अपि रज्जवः भवन्ति सर्वत्र
ऊर्ध्वः चतुर्दश रज्जवः सप्त अपि रज्जवः घनः लोकः ।।११९।।

अर्थदक्षिण-उत्तर दिशामां सर्वत्र आ लोकनो विस्तार सात राजु छे, उंचाई चौद राजु छे तथा सात राजुनुं घनप्रमाण छे.

भावार्थःदक्षिण-उत्तर सर्वत्र सात राजु पहोळो अने चौद राजु ऊंचाईमां छे एवा लोकनुं घनफळ करवामां आवे त्यारे ते ३४३ घनराजु थाय छे. एक राजु पहोळाई, एक राजु लंबाई तथा एक राजुनी ऊंचाईवाळा समान क्षेत्रखंडने घनफळ कहेवामां आवे छे.


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हवे त्रण लोकनी ऊंचाईना विभाग कहे छेः

मेरुस्स हिट्ठभाए सत्त वि रज्जू हवेइ अहलोओ
उड्ढम्हि उड्ढलोओ मेरुसमो मज्झिमो लोओ ।।१२०।।
मेरोः अधोभागे सप्त अपि रज्जवः भवति अधोलोकः
ऊर्ध्वे ऊ र्ध्वलोकः मेरुसमः मध्यमः लोकः ।।१२०।।

अर्थःमेरुना नीचेना भागमां सात राजु अधोलोक छे, उपर सात राजु ऊर्ध्वलोक छे अने वच्चे मेरु समान लाख योजननो मध्यलोक छे. ए प्रमाणे त्रण लोकनो विभाग जाणवो.

हवे ‘लोक’ शब्दनो अर्थ कहे छेः

दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ
तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंतविहीणा विरायंते ।।१२१।।
दृश्यन्ते यत्र अर्थाः जीवदिकाः स भण्यते लोकः
तस्य शिखरे सिद्धाः अन्तविहीनाः विराजन्ते ।।१२१।।

अर्थःज्यां जीवदिक पदार्थ जोवामां आवे छे तेने लोक कहे छे; तेना शिखर उपर अनंत सिद्धो बिराजे छे.

भावार्थःव्याकरणमां दर्शनना अर्थमां ‘लुक्’ नामनो धातु छे; तेना आश्रयार्थमां अकार प्रत्ययथी ‘लोक’ शब्द नीपजे छे. तेथी जेमां जीवदिक द्रव्यो जोवामां आवे तेने ‘लोक’ कहेवामां आवे छे. तेना उपर अंत(भाग)मां कर्मरहित अने अनंत गुणसहित अविनाशी अनंत शुद्ध जीव बिराजे छे.

हवे, आ लोकमां जीवदिक छ द्रव्य छे तेनुं वर्णन करे छे. त्यां प्रथम ज जीवद्रव्य विषे कहे छेः

एइंदिएहिं भरिदो पंचपयारेहिं सव्वदो लोओ
तसणाडीए वि तसा ण बहिरा होंति सव्वत्थ ।।१२२।।

‘वायरा’ एवो पण पाठ छे. तेनो एवो अर्थ छे के सर्व लोकमां पृथ्वीकायदिक

स्थूल तथा त्रस नथी.

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एकेन्द्रियैः भृतः पंचप्रकारैः सर्वतः लोकः
त्रसनाडयां अपि त्रसा न बाह्याः भवन्ति सर्वत्र ।।१२२।।

अर्थःआ लोक पृथ्वी, अप, तेज, वायु अने वनस्पति ए पांच प्रकारनी कायाना धारक एवा जे एकेन्द्रिय जीवो तेनाथी सर्वत्र भरेलो छे; वळी त्रस जीवो त्रसनाडीमां ज छेबहार नथी.

भावार्थःसमान परिणामनी अपेक्षाए उपयोग लक्षणवान जीवद्रव्य सामान्यपणे एक छे तोपण वस्तु (जीवो) भिन्नप्रदेशपणाथी पोतपोताना स्वरूप सहित जुदी जुदी अनंत छे. तेमां जे एकेन्द्रिय छे ते तो सर्वलोकमां छे तथा बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रिय अने पंचेन्द्रिय त्रस जीवो छे ते त्रसनाडीमां ज छे.

हवे बादर-सूक्ष्मदि भेद कहे छेः

पुण्णा वि अपुण्णा वि य थूला जीवा हवंति साहारा
छविहसुहुमा जीवा लोयायासे वि सव्वत्थ ।।१२३।।
पूर्णाः अपि अपूर्णाः अपि च स्थूलाः जीवाः भवन्ति साधाराः
षडविधसूक्ष्माः जीवाः लोकाकाशे अपि सर्वत्र ।।१२३।।

अर्थःजे जीव आधार सहित छे ते तो स्थूळ एटले बादर छे, अने ते पर्याप्त छे तथा अपर्याप्त पण छे; तथा जे लोकाकाशमां सर्वत्र अन्य आधार रहित छे ते जीव सूक्ष्म छे. तेना छ प्रकार छे.

हवे बादर तथा सूक्ष्म कोण कोण छे ते कहे छेः

पुढवीजलग्गिवाऊ चत्तरि वि होंति बायरा सुहुमा
साहारणपत्तेया वणप्फ दी पंचमा दुविहा ।।१२४।।
पृथ्वीजलग्निवायवः चत्वारः अपि भवन्ति बादराः सूक्ष्माः
साधारणप्रत्येकाः वनस्पतयः पंचमाः द्विविधाः ।।१२४।।

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अर्थःपृथ्वी, जळ, अग्नि अने वायु ए चार तो बादर पण छे तथा सूक्ष्म पण छे, तथा पांचमी वनस्पति छे ते प्रत्येक अने साधारणएवा भेदथी बे प्रकारनी छे.

हवे साधारण अने प्रत्येकना सूक्ष्मपणाने कहे छेः

साहारणा वि दुविहा अणाइकाला य साइकाला य
ते वि य बादरसुहुमा सेसा पुण बायरा सव्वे ।।१२५।।
साधारणाः अपि द्विविधाः अनदिकालाः च सदिकालाः च
ते अपि च बादरसूक्ष्माः शेषाः पुनः बादराः सर्वे ।।१२५।।

अर्थःसाधारण जीवो बे प्रकारना छेः अनदिकालीन एटले नित्यनिगोद तथा सदिकालीन एटले इतरनिगोद. ए बंने बादर पण छे तथा सूक्ष्म पण छेः बाकीना प्रत्येक वनस्पतिना अने त्रसना ए बधा बादर ज छे.

भावार्थःपूर्वे कहेला जे छ प्रकारना सूक्ष्म जीवो छे ते पृथ्वी, जळ, तेज अने वायु तो पहेली गाथामां कह्या, तथा नित्यनिगोद अने इतरनिगोद ए बंनेए प्रमाणे छ प्रकारना तो सूक्ष्म जाणवा. वळी छ प्रकार ए कह्या, (ते सिवाय) बाकीना रह्या ते सर्व बादर जाणवा.

हवे साधारणनुं स्वरूप कहे छेः

साहारणणि जेसिं आहारुस्सासकायआऊणि
ते साहारणजीवा णताणंतप्पमाणाणं ।।१२६।।
साधारणनि येषां आहारोच्छ्वासकायआयूंषि
ते साधारणजीवाः अनन्तानन्तप्रमाणानाम् ।।१२६।।

अर्थःजे अनंतानंत प्रमाण जीवोने आहार, उच्छ्वास, काय अने आयु साधारण एटले समान छे ते बधा साधारण जीव छे.

वळी गोम्मटसारमां कह्युं छे के


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‘जत्थेक्कु मरदि जीवो तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं
चंकमइ जत्थ एक्को चंकमणं तत्थ णंताणं ।।
(गोम्मट० जीव० गा० १९३)
यत्र एकः म्रियते जीवः तत्र तु मरणं भवेत् अनन्तानाम्
चंक्रमति यत्र एकः चंक्रमणं तत्र अनन्तानाम् ।।

अर्थःज्यां एक साधारण निगोद जीव ऊपजे त्यां तेनी साथे ज अनंतानंत ऊपजे तथा एक निगोद जीव मरे त्यां तेनी साथे ज अनंतानंत समानआयुवाळा मरे छे.

भावार्थःएक जीव जे आहार करे ते ज अनंतानंत जीवोनो आहार, एक जीव श्वासोच्छ्वास ले ते ज अनंतानंत जीवोनो श्वासोच्छ्श्वास, एक जीवनुं शरीर ते ज अनंतानंत जीवोनुं शरीर तथा एक जीवनुं आयुष ते ज अनंतानंत जीवोनुं आयुष. ए प्रमाणे सर्व समान छे तेथी तेमनुं साधारण नाम जाणवुं.

हवे सूक्ष्म अने बादरनुं स्वरूप कहे छेः

ण य जेसिं पडिखलणं पुढवीतोएहिं अग्गिवाएहिं
ते जाण सुहुमकाया इयरा पुण थूलकाया य ।।१२७।।
न च येषां प्रतिस्खलनं पृथ्वीतोयाभ्याम् अग्निवाताभ्याम्
ते जानीहि सूक्ष्मकायाः इतरे पुनः स्थूलकायाः च ।।१२७।।

अर्थःजे जीवो पृथ्वी, जळ, अग्नि अने पवनथी रोकाता नथी ते जीवोने सूक्ष्म जाणवा तथा जे तेमनाथी रोकाय छे तेओने बादर जाणवा.

हवे, प्रत्येकनुं ने त्रसनुं स्वरूप कहे छेः

पचेया वि य दुविहा णिगोदसहिदा तहेव रहिया य
दुविहा होंति तसा वि य वितिचउरक्खा तहेव पंचक्खा ।।१२८।।