अध्याय-४ ][ ३७
अनुभवे जाण्युं मx आ चिदात्मा अहो !
शुं अनुपम महा शकितधाारी !
लोक ने सौ अलोकादि सर्वस्वने,
जाणी निजमां शमे, ज्ञानभारी ! १२ – १३.
अर्थ : — विकल्पोनी जाळरूप सेवाळमांथी बहार नीकळेलो आ
आत्मा सदा सुखी (छे) अने त्यां रहेलो दुःखी छे, एम अनुभवीने
निश्चय करो.
में अनुभवथी जाण्युं छे के आ आत्मा महान शक्तिशाळी छे,
कारण के पोते एकलो ज, सर्व लोक-अलोकने अंतरमां (ज्ञानमां) समावी
दे छे. १२ – १३.
स्मृतिमेति यतो नादौ पश्चादायाति किंचिन ।
कर्मोदयविशेषोऽयं ज्ञायते हि चिदात्मनः ।।१४।।
विस्फु रेन्मानसे पूर्वं पश्चान्नायाति चेतसि ।
किंचिद्वस्तु विशेषोऽयं कर्मणः किं न बुध्यते ।।१५।।
प्रथम स्मरतां स्मृतिमां न आवे कंइ,
जे धाीमेथी पछी याद आवे;
कर्मनो उदय त्यां आ चिदात्मा तणो,
स्पष्ट ते कोइ प्रकारे जणाये;
प्रथम मनमां स्फुरे स्मरण कंइ वस्तुनुं,
पछीथी संभारतां सांभरे ना;
ए ज को कर्मनो भेद विद्वज्जनो,
केम निश्चय करो अंतरे ना ? १४ – १५.
अर्थ : — केम के प्रथम स्मरणमां आवतुं नथी, पछीथी कंईक
आवे छे, खरेखर आ चिदात्मानो कर्मोदयनो प्रकार जणाय छे. १४.
पहेलां कंईक वस्तु मनमां याद आवे, पाछळथी चित्तमां याद
आवे नहि, आ कर्मनी विशेषता केम ख्यालमां आवती नथी? १५.