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✽ भगवानश्रीकुंदकुंद-कहानजैनशास्त्रमाळा, पुष्प – १०१ ✽
ॐ
शुद्धात्मने नमः
शास्त्र-स्वाधयाय
ः प्रकाशकः
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ – (सौराष्ट्र)
श्री समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसंग्रह,
नियमसार ने अष्टप्राभृतनी मूळ गाथाओना
गुजराती पद्यानुवाद तथा समाधिातंत्र,
£ष्टोपदेश ने योगसारना गुजराती दोहरा
तथा मूळ (हिन्दी) उपादान-निमित्तसंवाद
अने छ ढाळा सहित
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मुद्रकः
स्मृति ओफसेट
सोनगढ-
किंमत रूा. २५=००
छठ्ठी आवत्तिा प्रत : २००० वि.सं. २०७१ ई.स. २०१५
शास्त्र स्वाध्याय (गुजराती)ना
✽ स्थायी प्रकाशन–पुरस्कर्ता ✽
स्व. जितेन्द्रभाई केशवलाल शाहना स्मरणार्थे
ह. शान्ताबेन केशवलाल शाह, दादर
आ शास्त्रनी पडतर किंमत रूा. ४८ = ०० छे. अनेक मुमुक्षुनी
आर्थिक सहायथी आ शास्त्रनी वेचाण किंमत रूा. २५ = ०० राखवामां आवेल छे.
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अध्यात्मनिधिना स्वामी परमकृपाळु परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री
कानजीस्वामीनो ए महान उपकार छे के तेओश्रीना पावन प्रतापे आ युगमां आबाळगोपाळ सर्व जिज्ञासुओमां अध्यात्मतत्त्वना श्रवणनी तेम ज अभ्यासनी रुचि जाग्रत थई छे.
श्रुतावतार भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव प्रणीत श्रुतरत्नो श्री समयसार,
प्रवचनसार, पंचास्तिकायसंग्रह, नियमसार अने अष्टप्राभृतनुं अध्यात्मअमृत, अनेक वार तेमनां उपर प्रवचनो आपीने, अध्यात्मश्रुतलब्धिवंत पूज्य गुरुदेवे मुमुक्षु समाजने पायुं छे. तेमना ज पुनित प्रतापे ने कल्याणी प्रेरणाथी, मूळ गाथाओना भावो समजवामां तेम ज याद राखवामां सरळ पडे ते माटे, परमागमोनो गुजराती पद्यानुवाद आदरणीय पंडित श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह द्वारा थयो छे.
आ मधुर, सरळ, सुगम ने भाववाही हरिगीत-पद्यानुवादोनी तथा
तदुपरान्त समाधितंत्र, इष्टोपदेश ने योगसारना गुजराती दोहरा अने उपादान- निमित्तना (हिंदी) दोहा तथा छ ढाळानी सोनगढमां दर महिने समुदायरूपे अनुक्रमे स्वाध्याय करवानी प्रथा परमपूज्य गुरुदेवश्रीनी तेम ज प्रशममूर्ति पूज्य बहेनश्री चंपाबेननी उपस्थितिरूप मंगल छायामां प्रवर्तती हती ते हजु पण पूर्ववत् नियमित प्रवर्तमान छे.
उक्त प्रयोजन माटे संस्था द्वारा ते बधांनो संग्रह करीने ‘शास्त्र-स्वाध्याय’
ग्रंथ प्रकाशित थयो छे, जेनी पांच आवृत्तिओ पहेलां प्रसिद्ध थई चूकी छे; तेनी आ छठ्ठी आवृत्ति प्रकाशित थाय छे.
आ ‘शास्त्र-स्वाध्याय’नो ऊंडो स्वाध्याय करी — तेमां दर्शावेल अध्यात्म-
भावोनुं सम्यक् अवगाहन करी — भव्य आत्माओ पोताना अंतरमां तेनुं
यथायोग्य परिणमन प्रगट करो — ए भावना.
निवेदक —
साहित्यप्रकाशनसमिति,
श्री दि. जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ-
श्री सीमंधर जिनालय हीरक-जयंती महोत्सव ता. २०-२-२०१५
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ः हरिगीतः
संसारी जीवनां भावमरणो टाळवा करुणा करी,
सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी, मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
ः अनुष्टुपः
कुंदकुंद रच्युं शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या; ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
ः शिखरिणीः
अहो! वाणी तारी प्रशमरस भावे नीतरती,
मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी;
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी ऊतरती, विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
ः शार्दूलविक्रीडितः
तुं छे निश्चयग्रंथ भंग सघळा व्यवहारना भेदवा,
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो, विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
ः वसंततिलकाः
सुण्ये तने रसनिबंध शिथिल थाय,
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ, तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
ः अनुष्टुपः
बनावुं पत्र कुंदननां, रत्नोना अक्षरो लखी; तथापि कुंदसूत्रोनां अंकाये मूल्य ना कदी.
– हिंमतलाल जेठालाल शाह
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जिनजीनी वाणी
सीमंधर मुखथी फूलडां खरे,
एनी कुंदकुंद गूंथे माळ रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वाणी भली मन लागे रळी,
जेमां सार-समय शिरताज रे,
जिनजीनी वाणी भली रे......सीमंधर०
गूंथ्यां पाहुड ने गूंथ्युं पंचास्ति,
गूंथ्युं प्रवचनसार रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
गूंथ्युं नियमसार, गूंथ्युं रयणसार,
गूंथ्यो समयनो सार रे,
जिनजीनी वाणी भली रे......सीमंधर०
स्याद्वाद केरी सुवासे भरेलो,
जिनजीनो ॐकारनाद रे,
जिनजीनी वाणी भली रे.
वंदुं जिनेश्वर, वंदुं हुं कुंदकुंद,
वंदुं ए ॐकारनाद रे,
जिनजीनी वाणी भली रे......सीमंधर०
हैडे हजो, मारा भावे हजो,
मारा ध्याने हजो जिनवाण रे,
जिनजीनी वाणी भली रे,
जिनेश्वरदेवनी वाणीना वायरा,
वाजो मने दिनरात रे,
जिनजीनी वाणी भली रे......सीमंधर०
—
हिंमतलाल जेठालाल शाह
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(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो, मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्यो.
(अनुष्टुप)
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना! बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां,
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे, निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दूलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु-सत्त्व झळके, परद्रव्य नातो तूटे;
— रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां — अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं, आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं — मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!
— हिंमतलाल जेठालाल शाह
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स्वानुभूति प्राप्त करवा जीवे शुं करवुं? स्वानुभूतिनी प्राप्ति माटे ज्ञानस्वभावी आत्मानो
गमे तेम करीने पण द्रढ निर्णय करवो. ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय द्रढ करवामां सहायभूत तत्त्वज्ञाननो —
द्रव्योनुं स्वयंसिद्ध सत्पणुं ने स्वतंत्रता, द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, नव तत्त्वनुं साचुं स्वरूप, जीव अने शरीरनी तद्दन भिन्नभिन्न क्रियाओ, पुण्य अने धर्मना लक्षणभेद, निश्चय-व्यवहार इत्यादि अनेक विषयोना साचा बोधनो — अभ्यास करवो. तीर्थंकर भगवंतोए
कहेलां आवां अनेक प्रयोजनभूत सत्योना अभ्यासनी साथे साथे सर्व तत्त्वज्ञाननो शिरमोर — मुगटमणि जे
शुद्धद्रव्य-सामान्य अर्थात् परम पारिणामिकभाव एटले के ज्ञायकस्वभावी शुद्धात्मद्रव्यसामान्य — जे स्वानुभूतिनो
आधार छे, सम्यग्दर्शननो आश्रय छे, मोक्षमार्गनुं आलंबन छे, सर्व शुद्धभावोनो नाथ छे — तेनो दिव्य
महिमा हृदयमां सर्वाधिकपणे अंकित करवा योग्य छे. ते निज शुद्धात्मद्रव्यसामान्यनो आश्रय करवाथी ज अतीन्द्रिय आनंदमय स्वानुभूति प्राप्त थाय छे.
— पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी
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जीव परद्रव्यनी क्रिया तो करतो नथी, परंतु
विकारकाळे पण स्वभाव-अपेक्षाए निर्विकार रहे छे, अपूर्ण दशा वखते पण परिपूर्ण रहे छे, सदाशुद्ध छे, कृतकृत्य भगवान छे. जेम रंगित दशा वखते स्फटिकमणिना विद्यमान निर्मळ स्वभावनुं भान थई शके छे, तेम विकारी, अधूरी दशा वखते पण जीवना विद्यमान निर्विकारी, परिपूर्ण स्वभावनुं भान थई शके छे. आवा शुद्धस्वभावना अनुभव विना मोक्षमार्गनो प्रारंभ पण थतो नथी, मुनिपणुं पण नरकादिनां दुःखोना डरथी के बीजा कोई हेतुए पळाय छे. ‘हुं कृतकृत्य छुं, परिपूर्ण छुं, सहजानंद छुं, मारे कांई जोईतुं नथी’ एवी परम उपेक्षारूप, सहज उदासीनतारूप, स्वाभाविक तटस्थतारूप मुनिपणुं द्रव्यस्वभावना अनुभव विना कदी आवतुं नथी. आवा शुद्धद्रव्यस्वभावना — ज्ञायकस्वभावना निर्णयना
पुरुषार्थ प्रत्ये, तेनी लगनी प्रत्ये वळवानो प्रयास आत्मार्थीओए — भवभ्रमणथी मूंझायेला मुमुक्षुओए
— करवा जेवो छे.
— पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी
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अनुक्रमणिका
विषय
पृष्ठ
१.
श्री समयसार-पद्यानुवाद
१-४०
२.
श्री प्रवचनसार-पद्यानुवाद
४१-६६
३.
श्री पंचास्तिकायसंग्रह-पद्यानुवाद
६७-८३
४.
श्री नियमसार-पद्यानुवाद
८४-१०२
५.
श्री अष्टप्राभृत-पद्यानुवाद
१०३-१६४१
६.
श्री समाधितंत्र-पद्यानुवाद
१६५-१७५
७.
श्री इष्टोपदेश-पद्यानुवाद
१७६-१८०
८.
श्री योगसार-पद्यानुवाद
१८१-१९०
९.
श्री उपादान-निमित्त-संवाद
१९१-१९५
(भैया भगवतीदासजी कृत)
१०. श्री उपादान-निमित्त-दोहा
१९६
(पं. बनारसीदासजी कृत)
११. श्री छ ढाळा
१९७-२१३
✽
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श्री
समयसार
(पद्यानुवाद)
पूर्वरंग
(हरिगीत)
ध्रुव, अचल ने अनुपम गति पामेल सर्वे सिद्धने
वंदी कहुं श्रुतकेवळी-भाषित आ समयप्राभृत अहो! १.
जीव चरित-दर्शन-ज्ञानस्थित स्वसमय निश्चय जाणवो;
स्थित कर्मपुद्गलना प्रदेशे परसमय जीव जाणवो. २.
एकत्वनिश्चय-गत समय सर्वत्र सुंदर लोकमां;
तेथी बने विखवादिनी बंधनकथा एकत्वमां. ३.
श्रुत-परिचित-अनुभूत सर्वने कामभोगबंधननी कथा;
परथी जुदा एकत्वनी उपलब्धि केवळ सुलभ ना. ४.
दर्शावुं एक विभक्त ए, आत्मा तणा निज विभवथी;
दर्शावुं तो करजो प्रमाण, न दोष ग्रह स्खलना यदि. ५.
नथी अप्रमत्त के प्रमत्त नथी जे एक ज्ञायक भाव छे,
ए रीत ‘शुद्ध’ कथाय, ने जे ज्ञात ते तो ते ज छे. ६.
चारित्र, दर्शन, ज्ञान पण व्यवहार-कथने ज्ञानीने;
चारित्र नहि, दर्शन नहीं, नहि ज्ञान, ज्ञायक शुद्ध छे. ७.
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भाषा अनार्य विना न समजावी शकाय अनार्यने,
व्यवहार विण परमार्थनो उपदेश एम अशक्य छे. ८.
श्रुतथी खरे जे शुद्ध केवळ जाणतो आ आत्मने,
लोकप्रदीपकरा ॠषि श्रुतकेवळी तेने कहे. ९.
श्रुतज्ञान सौ जाणे, जिनो श्रुतकेवळी तेने कहे;
सौ ज्ञान आत्मा होईने श्रुतकेवळी तेथी ठरे. १०.
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे;
भूतार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे. ११.
देखे परम जे भाव तेने शुद्धनय ज्ञातव्य छे;
अपरम भावे स्थितने व्यवहारनो उपदेश छे. १२.
भूतार्थथी जाणेल जीव, अजीव, वळी पुण्य, पाप ने
आसरव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ते सम्यक्त्व छे. १३.
अबद्धस्पृष्ट, अनन्य ने जे नियत देखे आत्मने,
अविशेष, अणसंयुक्त, तेने शुद्धनय तुं जाणजे. १४.
अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जे अविशेष देखे आत्मने,
ते द्रव्य तेम ज भाव जिनशासन सकल देखे खरे. १५.
दर्शन, वळी नित ज्ञान ने चारित्र साधु सेववां;
पण ए त्रणे आत्मा ज केवळ जाण निश्चयद्रष्टिमां. १६.
ज्यम पुरुष कोई नृपतिने जाणे, पछी श्रद्धा करे,
पछी यत्नथी धन-अर्थी ए अनुचरण नृपतिनुं करे; १७.
जीवराज एम ज जाणवो, वळी श्रद्धवो पण ए रीते,
एनुं ज करवुं अनुचरण पछी यत्नथी मोक्षार्थीए. १८.
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नोकर्म-कर्मे ‘हुं’, हुंमां वळी ‘कर्म ने नोकर्म छे’,
— ए बुद्धि ज्यां लगी जीवनी, अज्ञानी त्यां लगी ते रहे. १९.
हुं आ अने आ हुं, हुं छुं आनो अने छे मारुं आ,
जे अन्य को परद्रव्य मिश्र, सचित्त अगर अचित्त वा; २०.
हतुं मारुं आ पूर्वे, हुं पण आनो हतो गतकाळमां,
वळी आ थशे मारुं अने आनो हुं थईश भविष्यमां; २१.
अयथार्थ आत्मविकल्प आवो, जीव संमूढ आचरे;
भूतार्थने जाणेल ज्ञानी ए विकल्प नहीं करे. २२.
अज्ञानथी मोहितमति बहुभावसंयुत जीव जे,
‘आ बद्ध तेम अबद्ध पुद्गलद्रव्य मारुं’ ते कहे. २३.
सर्वज्ञज्ञान विषे सदा उपयोगलक्षण जीव जे,
ते केम पुद्गल थई शके के ‘मारुं आ’ तुं कहे अरे? २४.
जो जीव पुद्गल थाय, पामे पुद्गलो जीवत्वने,
तुं तो ज एम कही शके ‘आ मारुं पुद्गलद्रव्य छे’. २५.
जो जीव होय न देह तो आचार्य-तीर्थंकर तणी
स्तुति सौ ठरे मिथ्या ज, तेथी एकता जीव-देहनी! २६.
जीव-देह बन्ने एक छे — व्यवहारनयनुं वचन आ;
पण निश्चये तो जीव-देह कदापि एक पदार्थ ना. २७.
जीवथी जुदा पुद्गलमयी आ देहने स्तवीने मुनि;
माने प्रभु केवळी तणुं वंदन थयुं, स्तवना थई. २८.
पण निश्चये नथी योग्य ए, नहि देहगुण केवळी तणा;
जे केवळीगुणने स्तवे परमार्थ केवळी ते स्तवे. २९.
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वर्णन कर्ये नगरी तणुं नहि थाय वर्णन भूपनुं,
कीधे शरीरगुणनी स्तुति नहि स्तवन केवळीगुणनुं. ३०.
जीती इन्द्रियो ज्ञानस्वभावे अधिक जाणे आत्मने,
निश्चय विषे स्थित साधुओ भाखे जितेन्द्रिय तेहने. ३१.
जीती मोह ज्ञानस्वभावथी जे अधिक जाणे आत्मने,
परमार्थना विज्ञायको ते साधु जितमोही कहे. ३२.
जितमोह साधु तणो वळी क्षय मोह ज्यारे थाय छे,
निश्चयविदो थकी तेहने क्षीणमोह नाम कथाय छे. ३३.
सौ भावने पर जाणीने पचखाण भावोनुं करे,
तेथी नियमथी जाणवुं के ज्ञान प्रत्याख्यान छे. ३४.
आ पारकुं एम जाणीने परद्रव्यने को नर तजे,
त्यम पारका सौ जाणीने परभाव ज्ञानी परित्यजे. ३५.
नथी मोह ते मारो कंई, उपयोग केवळ एक हुं,
— ए ज्ञानने, ज्ञायक समयना मोहनिर्ममता कहे. ३६.
धर्मादि ते मारां नथी, उपयोग केवळ एक हुं,
— ए ज्ञानने, ज्ञायक समयना धर्मनिर्ममता कहे. ३७.
हुं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदर्शनमय खरे;
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे! ३८.
१. जीव-अजीव अधिकार
को मूढ, आत्म तणा अजाण, परात्मवादी जीव जे,
‘छे कर्म, अध्यवसान ते जीव’ एम ए निरूपण करे! ३९.
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वळी कोई अध्यवसानमां अनुभाग तीक्षण-मंद जे,
एने ज माने आतमा, वळी अन्य को नोकर्मने! ४०.
को अन्य माने आतमा कर्मो तणा वळी उदयने,
को तीव्रमंद-गुणो सहित कर्मो तणा अनुभागने! ४१.
को कर्म ने जीव उभयमिलने जीवनी आशा धरे,
कर्मो तणा संयोगथी अभिलाष को जीवनी करे! ४२.
दुर्बुद्धिओ बहुविध आवा, आतमा परने कहे,
ते सर्वने परमार्थवादी कह्या न निश्चयवादीए. ४३.
पुद्गल तणा परिणामथी नीपजेल सर्वे भाव आ
सहु केवळीजिन भाखिया, ते जीव केम कहो भला? ४४.
रे! कर्म अष्ट प्रकारनुं जिन सर्व पुद्गलमय कहे,
परिपाक समये जेहनुं फळ दुःख नाम प्रसिद्ध छे. ४५.
व्यवहार ए दर्शावियो जिनवर तणा उपदेशमां,
आ सर्व अध्यवसान आदि भाव ज्यां जीव वर्णव्या. ४६.
‘निर्गमन आ नृपनुं थयुं’ — निर्देश सैन्यसमूहने,
व्यवहारथी कहेवाय ए, पण भूप एमां एक छे; ४७.
त्यम सर्व अध्यवसान आदि अन्यभावो जीव छे,
— सूत्रे कर्यो व्यवहार, पण त्यां जीव निश्चय एक छे. ४८.
जीव चेतनागुण, शब्द-रस-रूप-गंध-व्यक्तिविहीन छे,
निर्दिष्ट नहि संस्थान जीवनुं, ग्रहण लिंग थकी नहीं. ४९.
नथी वर्ण जीवने, गंध नहि, नहि स्पर्श, रस जीवने नहीं,
नहि रूप के न शरीर, नहि संस्थान, संहनने नहीं; ५०.
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नथी राग जीवने द्वेष नहि, वळी मोह जीवने छे नहीं,
नहि प्रत्ययो, नहि कर्म के नोकर्म पण जीवने नहीं; ५१.
नथी वर्ग जीवने, वर्गणा नहि, स्पर्धको कंई छे नहीं,
अध्यात्मस्थान न जीवने, अनुभागस्थानो पण नहीं; ५२.
जीवने नथी कंई योगस्थानो, बंधस्थानो छे नहीं,
नहि उदयस्थानो जीवने, को मार्गणास्थानो नहीं; ५३.
स्थितिबंधस्थान न जीवने, संक्लेशस्थानो पण नहीं,
स्थानो विशुद्धि तणां न, संयमलब्धिनां स्थानो नहीं; ५४.
नथी जीवस्थानो जीवने, गुणस्थान पण जीवने नहीं,
परिणाम पुद्गलद्रव्यना आ सर्व होवाथी नक्की. ५५.
वर्णादि गुणस्थानांत भावो जीवना व्यवहारथी,
पण कोई ए भावो नथी आत्मा तणा निश्चय थकी. ५६.
आ भाव सह संबंध जीवनो क्षीरनीरवत् जाणवो;
उपयोगगुणथी अधिक तेथी जीवना नहि भाव को. ५७.
देखी लूंटातुं पंथमां को, ‘पंथ आ लूंटाय छे’ —
बोले जनो व्यवहारी पण नहि पंथ को लूंटाय छे. ५८.
त्यम वर्ण देखी जीवमां कर्मो अने नोकर्मनो,
भाखे जिनो व्यवहारथी ‘आ वर्ण छे आ जीवनो’. ५९.
एम गंध, रस, रूप, स्पर्श ने संस्थान, देहादिक जे,
निश्चय तणा द्रष्टा बधुं व्यवहारथी ते वर्णवे. ६०.
संसारी जीवने वर्ण आदि भाव छे संसारमां,
संसारथी परिमुक्तने नहि भाव को वर्णादिना. ६१.
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आ भाव सर्वे जीव छे जो एम तुं माने कदी,
तो जीव तेम अजीवमां कंई भेद तुज रहेतो नथी! ६२.
वर्णादि छे संसारी जीवनां एम जो तुज मत बने,
संसारमां स्थित सौ जीवो पाम्या तदा रूपित्वने; ६३.
ए रीत पुद्गल ते ज जीव, हे मूढमति! समलक्षणे,
ने मोक्षप्राप्त थतांय पुद्गलद्रव्य पाम्युं जीवत्वने! ६४.
जीव एक-द्वि-त्रि-चर्तु-पंचेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म ने
पर्याप्त आदि नामकर्म तणी प्रकृति छे खरे. ६५.
प्रकृति आ पुद्गलमयी थकी करणरूप थतां अरे,
रचना थती जीवस्थाननी जे, जीव केम कहाय ते? ६६.
पर्याप्त अणपर्याप्त, जे सूक्षम अने बादर बधी
कही जीवसंज्ञा देहने ते सूत्रमां व्यवहारथी. ६७.
मोहनकरमना उदयथी गुणस्थान जे आ वर्णव्यां,
ते जीव केम बने, निरंतर जे अचेतन भाखियां? ६८.
❖
२. कर्ताकर्म अधिकार
आत्मा अने आस्रव तणो ज्यां भेद जीव जाणे नहीं,
क्रोधादिमां स्थिति त्यां लगी अज्ञानी एवा जीवनी. ६९.
जीव वर्ततां क्रोधादिमां संचय करमनो थाय छे,
सहु सर्वदर्शी ए रीते बंधन कहे छे जीवने. ७०.
आ जीव ज्यारे आस्रवोनुं तेम निज आत्मा तणुं
जाणे विशेषांतर, तदा बंधन नहीं तेने थतुं. ७१.
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अशुचिपणुं, विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुखकारणो, एथी निवर्तन जीव करे. ७२.
छुं एक, शुद्ध, ममत्वहीन हुं, ज्ञानदर्शनपूर्ण छुं;
एमां रही स्थित, लीन एमां, शीघ्र आ सौ क्षय करुं. ७३.
आ सर्व जीवनिबद्ध, अध्रुव, शरणहीन, अनित्य छे,
ए दुःख, दुखफळ जाणीने एनाथी जीव पाछो वळे. ७४.
परिणाम कर्म तणुं अने नोकर्मनुं परिणाम जे
ते नव करे जे, मात्र जाणे, ते ज आत्मा ज्ञानी छे. ७५.
विधविध पुद्गलकर्मने ज्ञानी जरूर जाणे भले,
परद्रव्यपर्याये न प्रणमे, नव ग्रहे, नव ऊपजे. ७६.
विधविध निज परिणामने ज्ञानी जरूर जाणे भले,
परद्रव्यपर्याये न प्रणमे, नव ग्रहे, नव ऊपजे. ७७.
पुद्गलकरमनुं फळ अनंतुं ज्ञानी जीव जाणे भले,
परद्रव्यपर्याये न प्रणमे, नव ग्रहे, नव ऊपजे. ७८.
ए रीत पुद्गलद्रव्य ते पण निज भावे परिणमे,
परद्रव्यपर्याये न प्रणमे, नव ग्रहे, नव ऊपजे. ७९.
जीवभावहेतु पामी पुद्गल कर्मरूपे परिणमे;
एवी रीते पुद्गलकरमनिमित्त जीव पण परिणमे. ८०.
जीव कर्मगुण करतो नथी, नहि जीवगुण कर्मो करे;
अन्योन्यना निमित्तथी परिणाम बेउ तणा बने. ८१.
ए कारणे आत्मा ठरे कर्ता खरे निज भावथी,
पुद्गलकरमकृत सर्व भावोनो कदी कर्ता नथी. ८२.