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आत्मा करे निजने ज ए मंतव्य निश्चयनय तणुं,
वळी भोगवे निजने ज आत्मा एम निश्चय जाणवुं. ८३.
आत्मा करे विधविध पुद्गलकर्म — मत व्यवहारनुं,
वळी ते ज पुद्गलकर्म आत्मा भोगवे विधविधनुं. ८४.
पुद्गलकरम जीव जो करे, एने ज जो जीव भोगवे,
जिनने असंमत द्विक्रियाथी अभिन्न ते आत्मा ठरे. ८५.
जीवभाव, पुद्गलभाव — बन्ने भावने जेथी करे,
तेथी ज मिथ्याद्रष्टि एवा द्विक्रियावादी ठरे. ८६.
मिथ्यात्व जीव अजीव द्विविध, एम वळी अज्ञान ने
अविरमण, योगो, मोह ने क्रोधादि उभयप्रकार छे. ८७.
मिथ्यात्व ने अज्ञान आदि अजीव, पुद्गलकर्म छे;
अज्ञान ने अविरमण वळी मिथ्यात्व जीव, उपयोग छे. ८८.
छे मोहयुत उपयोगना परिणाम त्रण अनादिना,
— मिथ्यात्व ने अज्ञान, अविरतभाव ए त्रण जाणवा. ८९.
एनाथी छे उपयोग त्रणविध, शुद्ध निर्मळ भाव जे;
जे भाव कंई पण ते करे, ते भावनो कर्ता बने. ९०.
जे भाव जीव करे अरे! जीव तेहनो कर्ता बने;
कर्ता थतां, पुद्गल स्वयं त्यां कर्मरूपे परिणमे. ९१.
परने करे निजरूप ने निज आत्मने पण पर करे,
अज्ञानमय ए जीव एवो कर्मनो कारक बने. ९२.
परने न करतो निजरूप, निज आत्मने पर नव करे,
ए ज्ञानमय आत्मा अकारक कर्मनो एम ज बने. ९३.
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‘हुं क्रोध’ एम विकल्प ए उपयोग त्रणविध आचरे,
त्यां जीव ए उपयोगरूप जीवभावनो कर्ता बने. ९४.
‘हुं धर्म आदि’ विकल्प ए उपयोग त्रणविध आचरे,
त्यां जीव ए उपयोगरूप जीवभावनो कर्ता बने. ९५.
जीव मंदबुद्धि ए रीते परद्रव्यने निजरूप करे,
निज आत्मने पण ए रीते अज्ञानभावे पर करे. ९६.
ए कारणे आत्मा कह्यो कर्ता सहु निश्चयविदे,
— ए ज्ञान जेने थाय ते छोडे सकल कर्तृत्वने. ९७.
घट-पट-रथादिक वस्तुओ, करणो अने कर्मो वळी,
नोकर्म विधविध जगतमां आत्मा करे व्यवहारथी. ९८.
परद्रव्यने जीव जो करे तो जरूर तन्मय ते बने,
पण ते नथी तन्मय अरे! तेथी नहीं कर्ता ठरे. ९९.
जीव नव करे घट, पट नहीं, जीव शेष द्रव्यो नव करे;
उत्पादको उपयोगयोगो, तेमनो कर्ता बने. १००.
ज्ञानावरणआदिक जे पुद्गल तणा परिणाम छे,
करतो न आत्मा तेमने, जे जाणतो ते ज्ञानी छे. १०१.
जे भाव जीव करे शुभाशुभ तेहनो कर्ता खरे,
तेनुं बने ते कर्म, आत्मा तेहनो वेदक बने १०२.
जे द्रव्य जे गुण-द्रव्यमां, नहि अन्य द्रव्ये संक्रमे;
अणसंक्रम्युं ते केम अन्य परिणमावे द्रव्यने? १०३.
आत्मा करे नहि द्रव्य-गुण पुद्गलमयी कर्मो विषे,
ते उभयने तेमां न करतो केम तत्कर्ता बने? १०४.
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जीव हेतुभूत थतां अरे! परिणाम देखी बंधनुं,
उपचारमात्र कथाय के आ कर्म आत्माए कर्युं. १०५.
योद्धा करे ज्यां युद्ध त्यां ए नृपकर्युं लोको कहे,
एम ज कर्यां व्यवहारथी ज्ञानावरण आदि जीवे. १०६.
उपजावतो, प्रणमावतो, ग्रहतो अने बांधे, करे,
पुद्गलदरवने आतमा — व्यवहारनयवक्तव्य छे. १०७.
गुणदोषउत्पादक कह्यो ज्यम भूपने व्यवहारथी,
त्यम द्रव्यगुणउत्पन्नकर्ता जीव कह्यो व्यवहारथी. १०८.
सामान्य प्रत्यय चार निश्चय बंधना कर्ता कह्या,
— मिथ्यात्व ने अविरमण तेम कषाययोगो जाणवा. १०९.
वळी तेमनो पण वर्णव्यो आ भेद तेर प्रकारनो,
— मिथ्यात्वथी आदि करीने चरम भेद सयोगीनो. ११०.
पुद्गलकरमना उदयथी उत्पन्न तेथी अजीव आ,
ते जो करे कर्मो भले, भोक्ताय तेनो जीव ना. १११.
जेथी खरे ‘गुण’ नामना आ प्रत्ययो कर्मो करे,
तेथी अकर्ता जीव छे, ‘गुणो’ करे छे कर्मने. ११२.
उपयोग जेम अनन्य जीवनो, क्रोध तेम अनन्य जो,
तो दोष आवे जीव तेम अजीवना एकत्वनो. ११३.
तो जगतमां जे जीव ते ज अजीव पण निश्चय ठरे;
नोकर्म, प्रत्यय, कर्मना एकत्वमां पण दोष ए. ११४.
जो क्रोध ए रीत अन्य, जीव उपयोगआत्मक अन्य छे,
तो क्रोधवत् नोकर्म, प्रत्यय, कर्म ते पण अन्य छे. ११५.
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जीवमां स्वयं नहि बद्ध, न स्वयं कर्मभावे परिणमे,
तो एवुं पुद्गलद्रव्य आ परिणमनहीन बने अरे! ११६.
जो वर्गणा कार्मण तणी नहि कर्मभावे परिणमे,
संसारनो ज अभाव अथवा समय सांख्य तणो ठरे! ११७.
जो कर्मभावे परिणमावे जीव पुद्गलद्रव्यने,
क्यम जीव तेने परिणमावे जे स्वयं नहि परिणमे? ११८.
स्वयमेव पुद्गलद्रव्य वळी जो कर्मभावे परिणमे,
जीव परिणमावे कर्मने कर्मत्वमां — मिथ्या बने. ११९.
पुद्गलदरव जे कर्मपरिणत, निश्चये कर्म ज बने;
ज्ञानावरणइत्यादिपरिणत, ते ज जाणो तेहने. १२०.
कर्मे स्वयं नहि बद्ध, न स्वयं क्रोधभावे परिणमे,
तो जीव आ तुज मत विषे परिणमनहीन बने अरे! १२१.
क्रोधादिभावे जो स्वयं नहि जीव पोते परिणमे,
संसारनो ज अभाव अथवा समय सांख्य तणो ठरे! १२२.
जो क्रोध — पुद्गलकर्म — जीवने परिणमावे क्रोधमां,
क्यम क्रोध तेने परिणमावे जे स्वयं नहि परिणमे? १२३.
अथवा स्वयं जीव क्रोधभावे परिणमे — तुज बुद्धि छे,
तो क्रोध जीवने परिणमावे क्रोधमां — मिथ्या बने. १२४.
क्रोधोपयोगी क्रोध, जीव मानोपयोगी मान छे,
मायोपयुत माया अने लोभोपयुत लोभ ज बने. १२५.
जे भावने आत्मा करे, कर्ता बने ते कर्मनो;
ते ज्ञानमय छे ज्ञानीनो, अज्ञानमय अज्ञानीनो. १२६.
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अज्ञानमय अज्ञानीनो, तेथी करे ते कर्मने;
पण ज्ञानमय छे ज्ञानीनो, तेथी करे नहि कर्मने. १२७.
वळी ज्ञानमय को भावमांथी ज्ञानभाव ज ऊपजे,
ते कारणे ज्ञानी तणा सौ भाव ज्ञानमयी खरे; १२८.
अज्ञानमय को भावथी अज्ञानभाव ज ऊपजे,
ते कारणेे अज्ञानीना अज्ञानमय भावो बने. १२९.
ज्यम कनकमय को भावमांथी कुंडलादिक ऊपजे,
पण लोहमय को भावथी कटकादि भावो नीपजे. १३०.
त्यम भाव बहुविध ऊपजे अज्ञानमय अज्ञानीने,
पण ज्ञानीने तो सर्व भावो ज्ञानमय एम ज बने. १३१.
अज्ञान तत्त्व तणुं जीवोने, उदय ते अज्ञाननो,
अप्रतीत तत्त्वनी जीवने जे, उदय ते मिथ्यात्वनो; १३२.
जीवने अविरतभाव जे, ते उदय अणसंयम तणो,
जीवने कलुष उपयोग जे, ते उदय जाण कषायनो; १३३.
शुभ के अशुभ प्रवृत्ति के निवृत्तिनी चेष्टा तणो
उत्साह वर्ते जीवने, ते उदय जाण तुं योगनो. १३४.
आ हेतुभूत ज्यां थाय त्यां कार्मणवरगणारूप जे,
ते अष्टविध ज्ञानावरणइत्यादिभावे परिणमे; १३५.
कार्मणवरगणारूप ते ज्यां जीवनिबद्ध बने खरे,
आत्माय जीवपरिणामभावोनो तदा हेतु बने. १३६.
जो कर्मरूप परिणाम, जीव भेळा ज, पुद्गलना बने,
तो जीव ने पुद्गल उभय पण कर्मपणुं पामे अरे! १३७.
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पण कर्मभावे परिणमन छे एक पुद्गलद्रव्यने,
जीवभावहेतुथी अलग, तेथी, कर्मना परिणाम छे. १३८.
जीवना, करम भेळा ज, जो परिणाम रागादिक बने,
तो कर्म ने जीव उभय पण रागादिपणुं पामे अरे! १३९.
पण परिणमन रागादिरूप तो थाय छे जीव एकने,
तेथी ज कर्मोदयनिमित्तथी अलग जीवपरिणाम छे. १४०.
छे कर्म जीवमां बद्धस्पृष्ट — कथित नय व्यवहारनुं;
पण बद्धस्पृष्ट न कर्म जीवमां — कथन छे नय शुद्धनुं. १४१.
छे कर्म जीवमां बद्ध वा अणबद्ध ए नयपक्ष छे;
पण पक्षथी अतिक्रांत भाख्यो ते ‘समयनो सार’ छे. १४२.
नयद्वयकथन जाणे ज केवळ समयमां प्रतिबद्ध जे,
नयपक्ष कंई पण नव ग्रहे, नयपक्षथी परिहीन ते. १४३.
सम्यक्त्व तेम ज ज्ञाननी जे एकने संज्ञा मळे,
नयपक्ष सकल रहित भाख्यो, ते ‘समयनो सार’ छे. १४४.
३. पुण्य-पाप अधिकार
छे कर्म अशुभ कुशील ने जाणो सुशील शुभकर्मने!
ते केम होय सुशील जे संसारमां दाखल करे? १४५.
ज्यम लोहनुं त्यम कनकनुं जंजीर जकडे पुरुषने,
एवी रीते शुभ के अशुभ कृत कर्म बांधे जीवने. १४६.
तेथी करो नहि राग के संसर्ग ए कुशीलो तणो,
छे कुशीलना संसर्ग-रागे नाश स्वाधीनता तणो. १४७.
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जेवी रीते को पुरुष कुत्सितशील जनने जाणीने,
संसर्ग तेनी साथ तेम ज राग करवो परितजे; १४८.
एम ज करमप्रकृतिशीलस्वभाव कुत्सित जाणीने,
निज भावमां रत राग ने संसर्ग तेनो परिहरे. १४९.
जीव रक्त बांधे कर्मने, वैराग्यप्राप्त मुकाय छे,
— ए जिन तणो उपदेश, तेथी न राच तुं कर्मो विषे. १५०.
परमार्थ छे, नक्की समय छे, शुध, केवळी, मुनि, ज्ञानी छे,
एवा स्वभावे स्थित मुनिओ मोक्षनी प्राप्ति करे. १५१.
परमार्थमां अणस्थित जे तपने करे, व्रतने धरे,
सघळुंय ते तप बाळ ने व्रत बाळ सर्वज्ञो कहे. १५२.
व्रतनियमने धारे भले, तपशीलने पण आचरे,
परमार्थथी जे बाह्य ते निर्वाणप्राप्ति नहीं करे. १५३.
परमार्थबाह्य जीवो अरे! जाणे न हेतु मोक्षनो,
अज्ञानथी ते पुण्य इच्छे हेतु जे संसारनो. १५४.
जीवादिनुं श्रद्धान समकित, ज्ञान तेमनुं ज्ञान छे,
रागादि-वर्जन चरण छे, ने आ ज मुक्तिपंथ छे. १५५.
विद्वज्जनो भूतार्थ तजी व्यवहारमां वर्तन करे,
पण कर्मक्षयनुं विधान तो परमार्थ-आश्रित संतने. १५६.
मळमिलनलेपथी नाश पामे श्वेतपणुं ज्यम वस्त्रनुं,
मिथ्यात्वमळना लेपथी सम्यक्त्व ए रीत जाणवुं. १५७.
मळमिलनलेपथी नाश पामे श्वेतपणुं ज्यम वस्त्रनुं,
अज्ञानमळना लेपथी वळी ज्ञान ए रीत जाणवुं. १५८.
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मळमिलनलेपथी नाश पामे श्वेतपणुं ज्यम वस्त्रनुं,
चारित्र पामे नाश लिप्त कषायमळथी जाणवुं. १५९.
ते सर्वज्ञानी-दर्शी पण निज कर्मरज-आच्छादने,
संसारप्राप्त न जाणतो ते सर्व रीते सर्वने. १६०.
सम्यक्त्वप्रतिबंधक करम मिथ्यात्व जिनदेवे कह्युं,
एना उदयथी जीव मिथ्यात्वी बने एम जाणवुं. १६१.
एम ज्ञानप्रतिबंधक करम अज्ञान जिनदेवे कह्युं,
एना उदयथी जीव अज्ञानी बने एम जाणवुं. १६२.
चारित्रने प्रतिबंध कर्म कषाय जिनदेवे कह्युं,
एना उदयथी जीव बने चारित्रहीन एम जाणवुं. १६३.
४. आस्रव अधिकार
मिथ्यात्व ने अविरत, कषायो, योग १संज्ञ २असंज्ञ छे,
१ए विविध भेदे जीवमां, जीवना अनन्य परिणाम छे; १६४.
वळी २तेह ज्ञानावरणआदिक कर्मनां कारण बने,
ने तेमनुं पण जीव बने जे रागद्वेषादिक करे. १६५.
सुद्रष्टिने आस्रवनिमित्त न बंध, आस्रवरोध छे;
नहि बांधतो, जाणे ज पूर्वनिबद्ध जे सत्ता विषे. १६६.
रागादियुत जे भाव जीवकृत तेहने बंधक कह्यो;
रागादिथी प्रविमुक्त ते बंधक नहीं, ज्ञायक नर्यो. १६७.
फळ पक्व खरतां, वृंत सह संबंध फरी पामे नहीं,
त्यम कर्मभाव खर्ये, फरी जीवमां उदय पामे नहीं. १६८.
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जे सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय वर्तता ते ज्ञानीने,
छे पृथ्वीपिंड समान ने सौ कर्मशरीरे बद्ध छे. १६९.
चउविध प्रत्यय समयसमये ज्ञानदर्शनगुणथी
बहुभेद बांधे कर्म, तेथी ज्ञानी तो बंधक नथी. १७०.
जे ज्ञानगुणनी जघन्यतामां वर्ततो गुण ज्ञाननो,
फरीफरी प्रणमतो अन्यरूपमां, तेथी ते बंधक कह्यो. १७१.
चारित्र, दर्शन, ज्ञान जेथी जघन्य भावे परिणमे,
तेथी ज ज्ञानी विविध पुद्गलकर्मथी बंधाय छे. १७२.
जे सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय वर्तता सुद्रष्टिने,
उपयोगने प्रायोग्य बंधन कर्मभाव वडे करे. १७३.
अणभोग्य बनी उपभोग्य जे रीत थाय ते रीत बांधता,
ज्ञानावरण इत्यादि कर्मो सप्त-अष्ट प्रकारनां. १७४.
सत्ता विषे ते निरुपभोग्य ज, बाळ स्त्री ज्यम पुरुषने;
उपभोग्य बनतां तेह बांधे, युवती जेम पुरुषने. १७५.
आ कारणे सम्यक्त्वसंयुत जीव अणबंधक कह्या,
आसरवभावअभावमां नहि प्रत्ययो बंधक कह्या. १७६.
नहि रागद्वेष, न मोह — ए आस्रव नथी सुद्रष्टिने,
तेथी ज आस्रवभाव विण नहि प्रत्ययो हेतु बने; १७७.
हेतु चतुर्विध अष्टविध कर्मो तणां कारण कह्या,
तेनांय रागादिक कह्या, रागादि नहि त्यां बंध ना. १७८.
पुरुषे ग्रहेल अहार जे, उदराग्निने संयोग ते
बहुविध मांस, वसा अने रुधिरादि भावे परिणमे; १७९.
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त्यम ज्ञानीने पण प्रत्ययो जे पूर्वकाळनिबद्ध ते
बहुविध बांधे कर्म, जो जीव शुद्धनयपरिच्युत बने. १८०.
५. संवर अधिकार
उपयोगमां उपयोग, को उपयोग नहि क्रोधादिमां,
छे क्रोध क्रोध महीं ज, निश्चय क्रोध नहि उपयोगमां. १८१.
उपयोग छे नहि अष्टविध कर्मो अने नोकर्ममां,
कर्मो अने नोकर्म कंई पण छे नहि उपयोगमां. १८२.
आवुं अविपरीत ज्ञान ज्यारे उद्भवे छे जीवने,
त्यारे न कंई पण भाव ते उपयोगशुद्धात्मा करे. १८३.
ज्यम अग्नितप्त सुवर्ण पण निज स्वर्णभाव नहीं तजे,
त्यम कर्मउदये तप्त पण ज्ञानी न ज्ञानीपणुं तजे. १८४.
जीव ज्ञानी जाणे आम, पण अज्ञानी राग ज जीव गणे,
आत्मस्वभाव-अजाण जे अज्ञानतम-आच्छादने. १८५.
जे शुद्ध जाणे आत्मने ते शुद्ध आत्म ज मेळवे;
अणशुद्ध जाणे आत्मने अणशुद्ध आत्म ज ते लहे. १८६.
पुण्यपापयोगथी रोकीने निज आत्मने आत्मा थकी,
दर्शन अने ज्ञाने ठरी, परद्रव्यइच्छा परिहरी, १८७.
जे सर्वसंगविमुक्त, ध्यावे आत्मने आत्मा वडे, —
— नहि कर्म के नोकर्म, चेतक चेततो एकत्वने, १८८.
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ते आत्म ध्यातो, ज्ञानदर्शनमय, अनन्यमयी खरे,
बस अल्प काळे कर्मथी प्रविमुक्त आत्माने वरे. १८९.
रागादिना हेतु कहे सर्वज्ञ अध्यवसानने,
— मिथ्यात्व ने अज्ञान, अविरतभाव तेम ज योगने. १९०.
हेतुअभावे जरूर आस्रवरोध ज्ञानीने बने,
आस्रवभाव विना वळी निरोध कर्म तणो बने; १९१.
कर्मो तणा य अभावथी नोकर्मनुं रोधन अने
नोकर्मना रोधन थकी संसारसंरोधन बने. १९२.
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६. निर्जरा अधिकार
चेतन अचेतन द्रव्यनो उपभोग इन्द्रियो वडे
जे जे करे सुद्रष्टि ते सौ निर्जराकारण बने. १९३.
वस्तु तणे उपभोग निश्चय सुख वा दुःख थाय छे,
ए उदित सुखदुख भोगवे पछी निर्जरा थई जाय छे. १९४.
ज्यम झेरना उपभोगथी पण वैद्य जन मरतो नथी,
त्यम कर्मउदयो भोगवे पण ज्ञानी बंधातो नथी. १९५.
ज्यम अरतिभावे मद्य पीतां मत्त जन बनतो नथी,
द्रव्योपभोग विषे अरत ज्ञानीय बंधातो नथी. १९६.
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सेवे छतां नहि सेवतो, अणसेवतो सेवक बने,
प्रकरण तणी चेष्टा करे पण प्राकरण ज्यम नहि ठरे. १९७.
कर्मो तणो जे विविध उदयविपाक जिनवर वर्णव्यो,
ते मुज स्वभावो छे नहीं, हुं एक ज्ञायकभाव छुं. १९८.
पुद्गलकरमरूप रागनो ज विपाकरूप छे उदय आ,
आ छे नहीं मुज भाव, निश्चय एक ज्ञायकभाव छुं. १९९.
सुद्रष्टि ए रीत आत्मने ज्ञायकस्वभाव ज जाणतो,
ने उदय कर्मविपाकरूप ते तत्त्वज्ञायक छोडतो. २००.
अणुमात्र पण रागादिनो सद्भाव वर्ते जेहने,
ते सर्वआगमधर भले पण जाणतो नहि आत्मने; २०१.
नहि जाणतो ज्यां आत्मने ज, अनात्म पण नहि जाणतो,
ते केम होय सुद्रष्टि जे जीव-अजीवने नहि जाणतो? २०२.
जीवमां अपदभूत द्रव्यभावो छोडीने ग्रह तुं यथा,
स्थिर, नियत, एक ज भाव जेह स्वभावरूप उपलभ्य आ. २०३.
मति, श्रुत, अवधि, मनः, केवल तेह पद एक ज खरे,
आ ज्ञानपद परमार्थ छे जे पामी जीव मुक्ति लहे. २०४.
बहु लोक ज्ञानगुणे रहित आ पद नहीं पामी शके;
रे! ग्रहण कर तुं नियत आ, जो कर्ममोक्षेच्छा तने. २०५.
आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे. २०६.
‘परद्रव्य आ मुज द्रव्य’ एवुं कोण ज्ञानी कहे अरे!
निज आत्मने निजनो परिग्रह जाणतो जे निश्चये? २०७.
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परिग्रह कदी मारो बने तो हुं अजीव बनुं खरे,
हुं तो खरे ज्ञाता ज, तेथी नहि परिग्रह मुज बने. २०८.
छेदाव, वा भेदाव, को लई जाव, नष्ट बनो भले,
वा अन्य को रीत जाव, पण परिग्रह नथी मारो खरे. २०९.
अनिच्छक कह्यो अपरिग्रही, ज्ञानी न इच्छे पुण्यने,
तेथी न परिग्रही पुण्यनो ते, पुण्यनो ज्ञायक रहे. २१०.
अनिच्छक कह्यो अपरिग्रही, ज्ञानी न इच्छे पापने,
तेथी न परिग्रही पापनो ते, पापनो ज्ञायक रहे. २११.
अनिच्छक कह्यो अपरिग्रही, ज्ञानी न इच्छे अशनने,
तेथी न परिग्रही अशननो ते, अशननो ज्ञायक रहे. २१२.
अनिच्छक कह्यो अपरिग्रही, ज्ञानी न इच्छे पानने,
तेथी न परिग्रही पाननो ते, पाननो ज्ञायक रहे. २१३.
ए आदि विधविध भाव बहु ज्ञानी न इच्छे सर्वने;
सर्वत्र आलंबन रहित बस नियत ज्ञायकभाव ते. २१४.
उत्पन्न उदयनो भोग नित्य वियोगभावे ज्ञानीने,
ने भावी कर्मोदय तणी कांक्षा नहीं ज्ञानी करे. २१५.
रे! वेद्य वेदक भाव बन्ने समय समये विणसे,
— ए जाणतो ज्ञानी कदापि न उभयनी कांक्षा करे. २१६.
संसारदेहसंबंधी ने बंधोपभोगनिमित्त जे,
ते सर्व अध्यवसानउदये राग थाय न ज्ञानीने. २१७.
छो सर्व द्रव्ये रागवर्जक ज्ञानी कर्मनी मध्यमां,
पण रज थकी लेपाय नहि, ज्यम कनक कर्दममध्यमां. २१८.
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पण सर्व द्रव्ये रागशील अज्ञानी कर्मनी मध्यमां,
ते कर्मरज लेपाय छे, ज्यम लोह कर्दममध्यमां. २१९.
ज्यम शंख विविध सचित्त, मिश्र, अचित्त द्रव्यो भोगवे,
पण शंखना शुक्लत्वने नहि कृष्ण कोई करी शके; २२०.
त्यम ज्ञानी विविध सचित्त, मिश्र, अचित्त द्रव्यो भोगवे,
पण ज्ञान ज्ञानी तणुं नहीं अज्ञान कोई करी शके. २२१.
ज्यारे स्वयं ते शंख श्वेतस्वभाव निजनो छोडीने
पामे स्वयं कृष्णत्व, त्यारे छोडतो शुक्लत्वने; २२२.
त्यम ज्ञानी पण ज्यारे स्वयं निज छोडी ज्ञानस्वभावने
अज्ञानभावे परिणमे, अज्ञानता त्यारे लहे. २२३.
ज्यम जगतमां को पुरुष वृत्तिनिमित्त सेवे भूपने,
तो भूप पण सुखजनक विधविध भोग आपे पुरुषने. २२४.
त्यम जीवपुरुष पण कर्मरजनुं सुखअरथ सेवन करे,
तो कर्म पण सुखजनक विधविध भोग आपे जीवने. २२५.
वळी ते ज नर ज्यम वृत्ति अर्थे भूपने सेवे नहीं,
तो भूप पण सुखजनक विधविध भोगने आपे नहीं; २२६.
सुद्रष्टिने त्यम विषय अर्थे कर्मरजसेवन नथी,
तो कर्म पण सुखजनक विधविध भोगने देतां नथी. २२७.
सम्यक्त्ववंत जीवो निःशंकित, तेथी छे निर्भय अने
छे सप्तभयप्रविमुक्त जेथी, तेथी ते निःशंक छे. २२८.
जे कर्मबंधनमोहकर्ता पाद चारे छेदतो,
चिन्मूर्ति ते शंकारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २२९.
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जे कर्मफळ ने सर्व धर्म तणी न कांक्षा राखतो,
चिन्मूर्ति ते कांक्षारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २३०.
सौ कोई धर्म विषे जुगुप्साभाव जे नहि धारतो,
चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३१.
संमूढ नहि जे सर्व भावे, — सत्य द्रष्टि धारतो,
ते मूढद्रष्टिरहित समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३२.
जे सिद्धभक्तिसहित छे, उपगूहक छे सौ धर्मनो,
चिन्मूर्ति ते उपगूहनकर समकितद्रष्टि जाणवो. २३३.
उन्मार्गगमने स्वात्मने पण मार्गमां जे स्थापतो,
चिन्मूर्ति ते स्थितिकरणयुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३४.
जे मोक्षमार्गे ‘साधु’त्रयनुं वत्सलत्व करे अहो!
चिन्मूर्ति ते वात्सल्ययुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३५.
चिन्मूर्ति मन-रथपंथमां विद्यारथारूढ घूमतो,
ते जिनज्ञानप्रभावकर समकितद्रष्टि जाणवो. २३६.
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७. बंध अधिकार
जेवी रीते को पुरुष पोते तेलनुं मर्दन करी,
व्यायाम करतो शस्त्रथी बहु रजभर्या स्थाने रही; २३७.
वळी ताड, कदळी, वांस आदि छिन्नभिन्न करे अने
उपघात तेह सचित्त तेम अचित्त द्रव्य तणो करे. २३८.
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बहु जातनां करणो वडे उपघात करता तेहने,
निश्चय थकी चिंतन करो, रजबंध थाय शुं कारणे? २३९.
एम जाणवुं निश्चय थकी — चीकणाई जे ते नर विषे
रजबंधकारण ते ज छे, नहि कायचेष्टा शेष जे. २४०.
चेष्टा विविधमां वर्ततो ए रीत मिथ्याद्रष्टि जे,
उपयोगमां रागादि करतो रज थकी लेपाय ते. २४१.
जेवी रीते वळी ते ज नर ते तेल सर्व दूरे करी,
व्यायाम करतो शस्त्रथी बहु रजभर्या स्थाने रही; २४२.
वळी ताड, कदळी, वांस आदि छिन्नभिन्न करे अने,
उपघात तेह सचित्त तेम अचित्त द्रव्य तणो करे. २४३.
बहु जातनां करणो वडे उपघात करता तेहने,
निश्चय थकी चिंतन करो, रजबंध नहि शुं कारणे? २४४.
एम जाणवुं निश्चय थकी — चीकणाई जे ते नर विषे
रजबंधकारण ते ज छे, नहि कायचेष्टा शेष जे. २४५.
योगो विविधमां वर्ततो ए रीत सम्यग्द्रष्टि जे,
रागादि उपयोगे न करतो रजथी नव लेपाय ते. २४६.
जे मानतो — हुं मारुं ने पर जीव मारे मुजने,
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २४७.
छे आयुक्षयथी मरण जीवनुं एम जिनदेवे कह्युं,
तुं आयु तो हरतो नथी, तें मरण क्यम तेनुं कर्युं? २४८.
छे आयुक्षयथी मरण जीवनुं एम जिनदेवे कह्युं,
ते आयु तुज हरता नथी, तो मरण क्यम तारुं कर्युं? २४९.
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जे मानतो — हुं जिवाडुं ने पर जीव जिवाडे मुजने,
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २५०.
छे आयु-उदये जीवन जीवनुं एम सर्वज्ञे कह्युं,
तुं आयु तो देतो नथी, तें जीवन क्यम तेनुं कर्युं? २५१.
छे आयु-उदये जीवन जीवनुं एम सर्वज्ञे कह्युं,
ते आयु तुज देता नथी, तो जीवन क्यम तारुं कर्युं? २५२.
जे मानतो — मुजथी दुखीसुखी हुं करुं पर जीवने,
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत एथी ज्ञानी छे. २५३.
ज्यां कर्म-उदये जीव सर्वे दुखित तेम सुखी थता,
तुं कर्म तो देतो नथी, तें केम दुखित-सुखी कर्या? २५४.
ज्यां कर्म-उदये जीव सर्वे दुखित तेम सुखी बने,
ते कर्म तुज देता नथी, तो दुखित केम कर्यो तने? २५५.
ज्यां कर्म-उदये जीव सर्वे दुखित तेम सुखी बने,
ते कर्म तुज देता नथी, तो सुखित केम कर्यो तने? २५६.
मरतो अने जे दुखी थतो — सौ कर्मना उदये बने,
तेथी ‘हण्यो में, दुखी कर्यो’ — तुज मत शुं नहि मिथ्या खरे? २५७.
वळी नव मरे, नव दुखी बने, ते कर्मना उदये खरे,
‘में नव हण्यो, नव दुखी कर्यो’ – तुज मत शुं नहि मिथ्या खरे? २५८.
आ बुद्धि जे तुज — ‘दुखित तेम सुखी करुं छुं जीवने’,
ते मूढ मति तारी अरे! शुभ अशुभ बांधे कर्मने. २५९.
करतो तुं अध्यवसान — ‘दुखित-सुखी करुं छुं जीवने’,
ते पापनुं बंधक अगर तो पुण्यनुं बंधक बने. २६०.
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करतो तुं अध्यवसान — ‘मारुं जिवाडुं छुं पर जीवने’,
ते पापनुं बंधक अगर तो पुण्यनुं बंधक बने. २६१.
मारो — न मारो जीवने, छे बंध अध्यवसानथी,
— आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चयनय थकी. २६२.
एम अलीकमांही, अदत्तमां, अब्रह्म ने परिग्रह विषे
जे थाय अध्यवसान तेथी पापबंधन थाय छे. २६३.
ए रीत सत्ये, दत्तमां, वळी ब्रह्म ने अपरिग्रहे
जे थाय अध्यवसान तेथी पुण्यबंधन थाय छे. २६४.
जे थाय अध्यवसान जीवने, वस्तु-आश्रित ते बने,
पण वस्तुथी नथी बंध, अध्यवसानमात्रथी बंध छे. २६५.
करुं छुं दुखी-सुखी जीवने, वळी बद्ध-मुक्त करुं अरे!
आ मूढ मति तुज छे निरर्थक, तेथी छे मिथ्या खरे. २६६.
सौ जीव अध्यवसानकारण कर्मथी बंधाय ज्यां
ने मोक्षमार्गे स्थित जीवो मुकाय, तुं शुं करे भला? २६७.
तिर्यंच, नारक, देव, मानव, पुण्य-पाप विविध जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी. २६८.
वळी एम धर्म-अधर्म, जीव-अजीव, लोक-अलोक जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी. २६९.
ए आदि अध्यवसान विधविध वर्ततां नहि जेमने,
ते मुनिवरो लेपाय नहि शुभ के अशुभ कर्मो वडे. २७०.
बुद्धि, मति, व्यवसाय, अध्यवसान, वळी विज्ञान ने
परिणाम, चित्त ने भाव — शब्दो सर्व आ एकार्थ छे. २७१.
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व्यवहारनय ए रीत जाण निषिद्ध निश्चयनय थकी;
निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी. २७२.
जिनवरकहेलां व्रत, समिति, गुप्ति, वळी तप-शीलने
करतां छतांय अभव्य जीव अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. २७३.
मुक्ति तणी श्रद्धारहित अभव्य जीव शास्त्रो भणे,
पण ज्ञाननी श्रद्धारहितने पठन ए नहि गुण करे. २७४.
ते धर्मने श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अने स्पर्शन करे,
ते भोगहेतु धर्मने, नहि कर्मक्षयना हेतुने. २७५.
‘आचार’ आदि ज्ञान छे, जीवादि दर्शन जाणवुं,
षट्जीवनिकाय चरित छे, — ए कथन नय व्यवहारनुं. २७६.
मुज आत्म निश्चय ज्ञान छे, मुज आत्म दर्शन चरित छे,
मुज आत्म प्रत्याख्यान ने मुज आत्म संवर – योग छे. २७७.
ज्यम स्फटिकमणि छे शुद्ध, रक्तरूपे स्वयं नहि परिणमे,
पण अन्य जे रक्तादि द्रव्यो ते वडे रातो बने; २७८.
त्यम ‘ज्ञानी’ पण छे शुद्ध, रागरूपे स्वयं नहि परिणमे,
पण अन्य जे रागादि दोषो ते वडे रागी बने. २७९.
कदी रागद्वेषविमोह अगर कषायभावो निज विषे
ज्ञानी स्वयं करतो नथी, तेथी न तत्कारक ठरे. २८०.
पण राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त थाये भाव जे,
ते-रूप जे प्रणमे, फरी ते बांधतो रागादिने. २८१.
एम राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त थाये भाव जे,
ते-रूप आत्मा परिणमे, ते बांधतो रागादिने. २८२.
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अणप्रतिक्रमण द्वयविध, अणपचखाण पण द्वयविध छे,
— आ रीतना उपदेशथी वर्ण्यो अकारक जीवने. २८३.
अणप्रतिक्रमण बे — द्रव्यभावे, एम अणपचखाण छे,
— आ रीतना उपदेशथी वर्ण्यो अकारक जीवने. २८४.
अणप्रतिक्रमण वळी एम अणपचखाण द्रव्यनुं, भावनुं,
आत्मा करे छे त्यां लगी कर्ता बने छे जाणवुं. २८५.
आधाकरम इत्यादि पुद्गलद्रव्यना आ दोष जे,
ते केम ‘ज्ञानी’ करे सदा परद्रव्यना जे गुण छे? २८६.
उद्देशी तेम ज अधःकर्मी पौद्गलिक आ द्रव्य जे,
ते केम मुजकृत होय नित्य अजीव भाख्युं जेहने? २८७.
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८. मोक्ष अधिकार
ज्यम पुरुष को बंधन महीं प्रतिबद्ध जे चिरकाळनो,
ते तीव्र-मंद स्वभाव तेम ज काळ जाणे बंधनो. २८८.
पण जो करे नहि छेद तो न मुकाय, बंधनवश रहे,
ने काळ बहुये जाय तोपण मुक्त ते नर नहि बने; २८९.
त्यम कर्मबंधननां प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभागने
जाणे छतां न मुकाय जीव, जो शुद्ध तो ज मुकाय छे. २९०.
बंधन महीं जे बद्ध ते नहि बंधचिंताथी छूटे,
त्यम जीव पण बंधो तणी चिंता कर्याथी नव छूटे. २९१.