Atmadharma magazine - Ank 003
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: ४० : आत्मधर्म माह : २०००
. भ्रमणाथी मूर्छित थई, स्वस्वरूपनुं भूलवुं ते मदिरा पान छे.
४. कुबुद्धिना मार्गे चालवुं ते वेश्या सेवन छे.
प. कठोर परिणामथी प्राणघात करवो (भावमरण करवुं) ते शिकार छे.
६. देह–रागादिमां एकत्व बुद्धि
[आत्मबुद्धि] राखवी ते परनारीनो संग छे.
७. अनुराग पूर्वक परपदार्थोने ग्रहण करवानी अभिलाषा ते भावचोरी छे.
जे आत्मा शुद्ध स्वरूपने ओळखे ते ज आ सात व्यसनोने टाळी शके अने ते ज सुखी थाय.
‘अहिंसा परमो धर्म’ ए लोकमां प्रचलित सूत्र छे. सामान्य लोको त्यां अहिंसानो अर्थ ‘पर जीवनुं मरण न
करवुं’ एवो करे छे. पण ते अर्थ स्थुल छे, अहिंसानो खरो अर्थ नीचे प्रमाणे थाय छे:–
१:– आत्माना शुद्धोपयोग रूप परिणामने घातवावाळो भाव ते हिंसा छे, तेथी पोताना आत्मानो शुद्ध
उपयोग ते अहिंसा छे, ते अहिंसा ए परम धर्म छे. तत्त्व ज्ञाननी द्रष्टिथी अहिंसानो बीजो अर्थ संभवतो नथी.
[पुरुषार्थ सिद्धिउपाय गाथा ४२]
२:– खरेखर, रागादि भावोनुं प्रगट न थवुं ते अहिंसा छे, अने रागादि भावोनी उत्पत्ति थवी ते हिंसा छे.
एवुं जैन शासननुं टूंकुं रहस्य छे. (पु. सि. उ. गाथा ४४)
जीव स्वाश्रय अने पराश्रय एम बे प्रकारना भावो करी शके छे. स्वाश्रय भाव ते शुद्ध छे, अने ते ज धर्म छे.
पराश्रय (पराधीन) भाव बे प्रकारना छे (१) शुभ (२) अशुभ ते बन्ने संसारनुं कारण छे. लोकोमां पण कहेवत
उपर प्रमाणे करे छे.
पराश्रय भाव ते हमेशांं परनुं आलंबन मागे छे, जेमके कोईने मारवानो विचार थयो, तो ते पर तरफ लक्ष
आप्या वगर थाय नहीं, कोईने सगवड आपवानो भाव पण पर तरफना वलण वगर थाय नहीं माटे ते बन्ने विकारी
छे. हवे तेमांथी जैन ‘पाप’ (अशुभभाव) करवानी बधा जीवोने मनाई करे छे अने बधा पापोमांथी पोताना
स्वरूपनी भ्रमणा ते महापाप छे. ते टाळ्‌या सिवाय कोई जीवने धर्म थाय नहीं अने तेथी मिथ्यात्वनी टूंकी व्याख्या
नीचे करवामां आवे छे.
१:– स्वपर एकत्वनो अभिप्राय, एटले के आत्मा अने राग (पछी ते पुण्यनो होय के पापनो होय) तथा देह
वगेरेनी एकत्व बुद्धि. (समयसार पा. ३२२)
२:– जीवनी जे मान्यता प्रमाणे जगतमां बनतुं न होय तो ते मान्यता मिथ्यात्व छे.
[समयसार पा. ३१४]
३:– पोताना स्वरूपनो जुठो अभिप्राय ते ज मिथ्यात्व छे. [समयसार पा. ३२०]
ज्यारे जीवने मिथ्यात्व एटले के भ्रमणा होय छे त्यारे तेने निमित्त पण कुदेव, कुगुरु के कुशास्त्र होय छे. पण
जेने ते निमित्त साचां होय ते सम्यग्द्रष्टि होय ज छे–एम जाणवानुं नथी. तेथी कुदेव अने कुगुरु कोण कहेवाय ते
समजवा माटे सुदेव अने सुगुरुनुं स्वरूप शुं छे? ते जाणवुं जोईए. तेनुं स्वरूप जैन शास्त्रमां प्रसिद्ध ‘नमस्कार मंत्र’
छे तेमां जणाव्युं छे, ते:–
“नमो अरिहंताणं; नमो सिध्धाणं; नमो आयरियाणं, नमो उवजझायाणं; नमो लोए सव्वसाहूणं;” छे. तेमां
पहेलां बे पद सुदेवनुं स्वरूप संपूर्ण वीतरागता बतावे छे, अरिहंत सशरीरि वीतराग छे अने सिद्ध अशरीरि वीतराग
छे. छेल्ला त्रण पद सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक जेणे अंशे वीतरागता प्रगट करी होय अने पूरेपूरी थोडा वखतमां पामवाने
लायकात मेळवी होय–ते छे. पहेलांंने ‘आप्त’ पण कहेवामां आवे छे. ‘जैनधर्म वीतरागप्रणित छे’ ते आगळ कहेवाशे;
तेनुं ‘रहस्य’ एक शब्दमां कहीए तो ते ‘वीतरागता’ छे; माटे ते गुण प्रगट कर्या होय ते सुदेव अने सुगुरु थई शके,
अने आप्त पुरुषे प्रणित करेलां शास्त्रोने सुशास्त्र कहेवाय छे. जीवे पात्रता मेळवी आ वस्तु यथार्थ समजी लेवानी
जरूर छे. ते उपरथी एम पण जणाशे के जैन धर्म गुणपूजा स्वीकारे छे; व्यक्तिपूजा नहि.
गुण गुणी वगर होतो नथी
तेथी गुणीनी पूजा ते ज जैन शास्त्रने मान्य छे.
धर्मात्माने पोताना स्वरूपनुं भान थया पछी पूर्ण वीतरागता प्राप्त न थई होय त्यारे ते स्वरूपमां
रहेवानो पुरुषार्थ करे छे, पण ते ज्यारे रही शके नहीं त्यारे अशुभ भाव टाळवा शुभ भावमां आवे छे, पण ते
शुभभावने कदी धर्म मानता नथी. (अपूर्ण)