Atmadharma magazine - Ank 003
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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माह : २००० आत्मधर्म : ३९ :
ध्याये छे, कर्म अने नोकर्मने [शरीरने] ध्यावतो नथी. देखनार जाणनार (चेतयिता) होवाथी एकत्वने ज चिंतवे छे. चेते छे.
अनुभवे छे. ते आत्माने ध्यातो दर्शनज्ञानमय थईने अने बीजा रूप नहीं थईने अल्पकाळमां विकारथी रहितपणुं पामे छे.
(१९) पूर्वना विकारी भावोने टाळवानुं (निर्जरानुं) स्वरूप.
कर्मो तणो जे विविध उदय विपाक जिनवर वर्णव्यो;
ते मुज स्वभावो छे नहि, हुं एक ज्ञायक भाव छुं.
।। १९८।।
अर्थ:– कर्मोना उदयनो विपाक [फळ] जिनवरोए अनेक प्रकारनो वर्णव्यो छे, ते मारा स्वभावो नथी, हुं तो एक
ज्ञायकभाव छुं.
सुद्रष्टि ए रीते आत्मने ज्ञायक स्वभाव ज जाण तो,
ने उदय कर्म विपाकरूप ए तत्त्व ज्ञायक छोडतो.
।। २००।।
अर्थ:– आ रीते सम्यग्द्रष्टि आत्माने [पोताने] ज्ञायकस्वभाव जाणे छे, अने तत्त्वने (यथार्थ स्वरूपने) जाणतो
थको कर्मना विपाकरूप उदयने छोडे छे.
[२०] बंध:– –मिथ्याअभिप्रायपूर्वकना रागद्वेषथी थाय छे.
जे मानतो––हुं मारुं ने पर जीव मारे मुजने,
ते मूढ छे अज्ञानी छे विपरीत एथी ज्ञानी छे. २४७
वळी नव मरे नव दुःखी बने ते कर्मना उदये खरे,
में नव हण्यो, नव दुःखी कर्यो तुज मत शुं नहि मिथ्या खरे.
आ बुद्धि जे तु ज ‘दुःखित तेम सुखी करूं छुं जीवने’
ते मूढ मति तारी अरे! शुभ–अशुभ बांधे कर्मने.२प९
अर्थ:– जे एम माने छे के हुं पर जीवोने मारुं छुं (हणुं छुं) अने पर जीवो मने मारे छे, ते मूढ छे, अज्ञानी छे.
अने आनाथी विपरीत [अर्थात् आवुं नथी मानतो] ते ज्ञानी छे.।। ४७।।
वळी जे नथी मरतो अने दुःखी थतो ते पण खरेखर कर्मना उदयथी ज थाय छे; तेथी ‘में न मार्यो में न दुःखी
कर्यो. ’ एवो तारो अभिप्राय शुं खरेखर मिथ्या नथी?।। २प८।।
तारी जे आ बुद्धि छे के हुं जीवोने सुखी दुःखी करूं छुं, ते तारी मूढ बुद्धि ज (मोहस्वरूप बुद्धि ज) शुभाशुभ कर्मने
बांधे छे. ।। २प९।।
(२२) संपूर्ण विकारी भाव टाळवाथी मोक्ष थाय छे:–
बंधो तणो जाणी स्वभाव, स्वभाव जाणी आत्मनो;
जे बंधमांही विरक्त थाये कर्म मोक्ष करे अहो! २९३
अर्थ:– बंधोनो स्वभाव अने आत्मानो स्वभाव जाणीने जे बंध भावथी विरक्त थाय छे ते विकारी भावथी मुक्त
थाय छे.
–सत् [वास्तविक] असत् [अवास्तविक] ना भेदने जाण्या विना जेम ठीक पडे तेम मानवावाळुं ज्ञान ते विचार
शुन्यतानी उपलब्धि छे, अने ते उन्मत्तवत् होवाथी अज्ञान छे.
प बीजी रीते कहीए तो जीवने अनादिनी सात भूलो छे; ते समज्या विना बीजुं गमे तेटलुं ज्ञान मेळवे अने
बीजुं गमे ते करे तो जीव कदी सुखी थाय ज नहीं. तेथी ते सात भूलो कई कई छे ते जणाववामां आवे छे:–
१ शरीरने जीव जाणवो–शरीरनी कोई क्रिया जीव करी शके छे तेम मानवुं ते. [जीव तत्त्वनी मिथ्या श्रद्धा.]
२ शरीर उपजतां पोते उपज्यो अने शरीरनो वियोग थतां पोतानो नाश मानवो ते. (अजीव तत्त्वनी मिथ्या श्रद्धा.)
३ रागादि प्रगट दुःख आपे छे. छतां तेने सुख मानी सेववां. (आस्रव तत्त्वनी मिथ्या श्रद्धा.)
४ शुभना फळमां राजी थवुं अने अशुभना फळमां नाराजी थवुं ते.
[बंध तत्त्वनी मिथ्याश्रद्धा.]
प आत्म हितनो हेतु स्वरूपनुं ज्ञान अने तेवा ज्ञानपूर्वक वैराग्य छे, तेने कष्टदायक मानवो ते. [संवर तत्त्वनी
मिथ्या श्रद्धा.]
६ शुभाशुभ भावनी ईच्छा न रोकवी ते. [निर्जरा तत्त्वनी ऊंधी श्रद्धा.]
७ निराकुळताने मोक्षनुं स्वरूप न मानवुं ते. [मोक्ष तत्त्वनी ऊंधी श्रद्धा.]
आ बधी मान्यतानी भूलो एक साथे ज जाय छे; अने ते टळ्‌या सिवाय कोईने सुख थाय नहीं; माटे आ वस्तु
बराबर समजवी जोईए. (पंडित दौलतरामजी कृत ‘छह ढाला’ उपरथी ढाळ २ जी गाथा २ थी ८ पानुं २३ थी २८)
ते ज हकीकत प्रकारांतरे कहेवा मागीए तो कही शकाय के, जीवने अनादिना सात वास्तविक व्यसनो छे, ते जीव
टाळे तो ज ते सुखी थाय छे. तेथी ते व्यसनोनुं स्वरूप अहीं टुंकामां आपवामां आवे छे:–
१. अशुभमां हार अने शुभमां जीत मानवी ते जुगार छे.
२. शरीरमां लीनपणुं
[एकत्वबुद्धि] ते मांसभक्षण छे.