मूळगाथा:–
: ३८ : आत्मधर्म माह : २०००
हुं एक शद्ध सदा अरूपी ज्ञान दर्शनमय खरे,
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणु मात्र नथी अरे! ३८
अर्थ:– दर्शन ज्ञान चारित्ररूप परिणमेलो छे, आत्मा एम जाणे छे के, खरेखर हुं एक छुं, शुद्ध छुं, दर्शन
ज्ञानमय छुं, सदा अरूपी छुं, कांई पण अन्य परद्रव्य परमाणु मात्र मारुं नथी ए नक्की छे.
(१प) आत्मा कर्ता–भोक्ता पोताना भावनो छे. परना भावोनो नथी एम बताववामां आवे छे.
जीव कर्म गुण करतो नथी; नहि जीवगुण कर्मो करे;
अन्योन्यना निमित्तथी परिणाम बेउतणां बने. ८१
ए कारणे आत्मा ठरे कर्ता खरे निज भावथी
पुद्गल करमकृत सर्वभावोनो कदी कर्ता नथी. ८२
अर्थ:– जीव कर्मना गुणने करतो नथी, तेम ज कर्म जीवना गुणोने करतुं नथी; परंतु परस्पर निमित्तथी
बन्नेना परिणाम जाणो आ कारणे आत्मा पोताना ज भावनो कर्ता छे, परंतु पुद्गल कर्मथी करवामां आवेल सर्व
भावोनो कर्ता नथी.
आत्मा करे निजने ज ए मंतव्य निश्चयनयतणुं;
वळी भोगवे निजने ज आत्मा एम निश्चय जाणवुं.।। ८३।।
अर्थ :– खरी द्रष्टिए आत्मा पोताना ज भावने करे छे, अने पोतानाज भावने भोगवे छे. एम तुं खरेखर जाण.
जे द्रव्य जे गुण द्रव्यमां नहि अन्य द्रव्ये संक्रमे; अणसंक्रम्युं ते केम अन्य परिणमावे द्रव्यने? १०३.
अर्थ:– जे वस्तु जे द्रव्य अने गुणपणे वर्ते छे ते अन्य द्रव्यमां तथा गुणमां संक्रमण पामती नथी. अन्य रूपे
संक्रमण नहि पामी थकी ते (वस्तु) अन्य वस्तुने केम परिणमावी शके? (१६) पुण्य पापनुं स्वरूप:–
छे कर्मो अशुभ कुशीलने जाणो सुशील शुभ कर्मने,
ते केम होय सुशील जे संसारमां दाखल करे १४प
अर्थ:– अशुभ कर्म कुशील [खराब] छे अने शुभ कर्म शुशील (सारुं) छे एम तमे जाणो छो! पण ते शुभ
सुशील केम होय के जे जीवने संसारमां प्रवेश करावे छे?
परमार्थ बाह्य जीवो अरे! जाणे न हेतु मोक्षनो,
अज्ञानथी ते पुण्य ईच्छे हेतु जे संसारनो. १प४
अर्थ:– जेओ परमार्थथी बाह्य छे तेओ मोक्षना हेतुने नहीं जाणता थका–जो के पुण्य संसार गमननो हेतु छे तो
पण अज्ञानथी पुण्यने [मोक्षनो हेतु जाणीने] ईच्छे छे. (१७) जीवना विकारी भावोनुं स्वरूप.
अशुचिपणुं विपरीतता ए आस्रवोनां जाणीने,
वळी जाणीने दुःख कारणो एथी निवर्तन जीव करे.।। ७२।।
अर्थ:– आस्रवोनुं [विकारी भावोनुं] अशुचिपणुं, विपरीतपणुं तथा तेओ दुःखनां कारणो छे एम जाणीने जीव
तेमनाथी निवृत्ति करे छे.
आ जीव ज्यारे आस्रवोनुं तेम निज आत्मातणुं,
जाणे विशेषांतर तदा बंधन नहि तेने थतुं.।। ७१।।
अर्थ:– ज्यारे आ जीव पोताना आत्माना अने आस्रवोना तफावतने जाणे छे, त्यारे तेने बंध थतो नथी
(आत्मा अने जीव एक ज अर्थमां वपराय छे.)
(१८) जीवना थता शुभाशुभ भावोने अटकावनारूं [संवरनुं] स्वरूप–
जे शुद्ध जाणे आत्मने ते शुद्ध आत्म ज मेळवे
अणशुद्ध जाणे आत्मने अणशुद्ध आत्म ज ते लहे.।। १८६।।
अर्थ:– शुद्ध आत्माने जाणतो अनुभवतो जीव शुद्ध आत्माने ज पामे छे, अने अशुद्ध आत्माने जाणतो
अनुभवतो जीव अशुद्ध आत्माने पामे छे.
पुण्यपाप योगथी रोकीने निज आत्मने आत्मा थकी,
दर्शन अने ज्ञाने ठरी परद्रव्य ईच्छा परिहरी.।। १८७।।
जे सर्वसंगविमुक्त ध्याये आत्मने आत्मावडे,
नहि कर्म के,नोकर्म चेतक चेततो एकत्वने।। १८८।।
ते आत्म ध्यातो ज्ञान दर्शनमय अनन्यमयी खरे, बस अल्पकाळे कर्मथी प्रविमुक्त आत्माने वरे.
अर्थ:– आत्माने आत्मावडे बे पुण्य–पापरूप शुभाशुभ योगोथी रोकीने दर्शन ज्ञानमां स्थित थयो थको अने अन्य
[वस्तु] नी ईच्छाथी विरमीने जे आत्मा [ईच्छा रहित थवाथी] सर्व संगरहित थयो थको, पोताना आत्माने आत्मावडे