Atmadharma magazine - Ank 003
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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मूळ:–
संस्कृत–
हरिगीत:–
(श्री समयसार)
[१०]
[समयसार कळश]
[१२]
[समयसार]
[१३]
(४)
माह : २००० आत्मधर्म : ३७ :
७ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः (अध्याय १ सूत्र १ श्री तत्त्वार्थ सूत्र,) अर्थ:– आत्माना
स्वरूपनी यथार्थ प्रतीति, यथार्थ ज्ञान अने ज्ञाननी स्थिरता रूप चारित्र ते मोक्ष (पवित्रतानो) मार्ग छे.
(८) सम्यग्दर्शननी व्याख्या नीचे प्रमाणे छे.
भूयत्थेणा भिगदा जीवा जीवा य पुण्य पापंच।
अस्रव संवर णिज्जर वंधो मोकखो य सम्म त्त।।
१३।।
भूतार्थे नामिगता जीवाजीवौ च पुण्यं पापं च।
आस्रव संवर निर्जरा बंध मोक्षश्च सम्यक्त्वम।।
१३।।
भूतार्थथी जाणेल जीव, अजीव वळी पुण्य, पापने
आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध मोक्ष ते सम्यक्त्व छे. १३
अर्थ:– भूतार्थनयथी जाणेल जीव अजीव वळी पुण्य, पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष
ए नव तत्त्व सम्यक्त्व छे. खुलासो: अजीव पांच प्रकारना छे. तेमांथी एक पुद्गल जीवनी विकारी अवस्थामां
निमित्त थाय छे. पुण्य, पाप, आस्रव अने बंध ए चार जीवना विकारी भावो छे. तेमां पुण्य जीवनो मंद
विकारी भाव छे, ५ाप ते जीवनो मंद विकारी भाव छे, आस्रव ते जीवनो प्रगट थतो नवो विकारी भाव छे,
(तेमां पुण्य–पाप बन्ने समाई जाय छे.) जीवनुं विकारमां अटकवुं ते बंध छे. संवर, निर्जरा अने मोक्ष ते
जीवनी अविकारी अवस्था छे; नवो विकार अटकवो अने अंशे शुद्धता प्रगट थवी तेने संवर कहे छे. जुना
विकारोअंशे टळी जवा तेने निर्जरा कहे छे. संपूर्ण विकारथी मुक्त थवुं ते मोक्ष छे.
जे आ नव भावो कहेवामां आव्या तेनुं स्वरूप आत्माना स्वरूपना यथार्थ ज्ञानी पासेथी सांभळी तेनुं
मनन करी तेना स्वरूपनो पोते यथार्थ निर्णय करवो जोईए. तेवो निर्णय कर्या पछी ते नव तत्त्वनो विकल्प टाळी
पोताना ध्रुव स्वरूप तरफ आत्मा वळतां पोताना स्वरूपनी यथार्थ प्रतीति थाय छे, तेने सम्यग्दर्शन कहे छे.
(९) आत्माना स्वरूपनी खोटी मान्यताने जैनशास्त्रमां मिथ्यात्व कहेवामां आवे छे अने ते मिथ्यात्व संसारनी
(एटले के, आत्माना शुद्ध स्वरूपमांथी सरी जवानी) जड छे, ते ज जीवने दुःखनुं कारण छे; पर सुख, दुःखना कारण
नथी. पण जीव परने अवलंबी सुख दुःख कल्पे छे. सम्यग्दर्शन ते मोक्षनी (आत्मानी पूर्ण पवित्रतानी) जड छे.
आत्मा ज्ञानं स्वयंज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽपं व्यवहारिणाम्।।
६२।।
अर्थ:– आत्मा ज्ञान स्वरूप छे, पोते ज्ञान ज छे, ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? आत्मा पर भावनो
कर्ता छे एम मानवुं ते व्यवहारी जीवोनो मोह [अज्ञान] छे. [११] अत्यंत वीतराग थया विना आत्यंतिक
मोक्ष नथी. सम्यग्ज्ञान विना वीतराग थई शकाय नहीं. सम्यग्दर्शन विनानुं ज्ञान असम्यक् कहेवाय छे. वस्तुनी
जे स्वभावे स्थिति छे ते स्वभावे ते वस्तुनी स्थिति समजवी तेने सम्यग्ज्ञान कहेवामां आवे छे. सम्यग्दर्शन–
ज्ञानथी प्रतीत थयेला तथा जाणेला आत्मामां आत्मभावे वर्तवुं ते चारित्र छे, ते त्रणेनी एकताथी मोक्ष थाय.
जीवो चरित्तदंसणणाणठ्ठिउ तं हि ससमयंजाण।
पुग्गल कम्मपदेस ठ्ठिय च तं जाण पर समयं।।
२।।
जीव चरित्त दर्शनज्ञान स्थित स्वसमय निश्चय जाणवो;
स्थित कर्म पुद्गलना प्रदेशे परसमय जीव जाणवो.।। ।।
अर्थ:– जे जीव दर्शन, ज्ञान चारित्रमां स्थित थई रह्यो छे तेने खरेखर स्वसमय [शुद्ध आत्मा:] जाण;
अने जे जीव पुद्गल कर्मना प्रदेशोमां स्थित थयेल छे ते परसमय [अशुद्ध आत्मा] जाण.
ववहारोडभुयत्थो देसिदो दु सुद्वणओ।
भुयत्थमस्सिदो खलु सम्माइठ्ठी हव इ जीवो।।
११।।
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे;
भूयार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे.
।। ११।।
अर्थ:– व्यवहारनय अभूतार्थ छे अने शुद्धनय भूतार्थ छे एम ऋषिश्वरोए दर्शाव्युं छे; जे जीव भूतार्थनो
आश्रय करे छे ते जीव निश्चयथी सम्यग्द्रष्टि छे. [नयनो अर्थ द्रष्टि–View point छे.]
अहभिक्को खलु सुध्धो दंसणणाणमइओ सदारूपी।
णवि अत्थि मज्झ किं चिवि अणं परमाणुमितपि।। ३८।।