Atmadharma magazine - Ank 003
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
• आत्मानुं हित एक मोक्ष ज छे. •
आत्माने नाना प्रकारनी गुणपर्यायरूप अवस्था थाय छे. तेमां अन्य तो गमे ते अवस्था थाओ; पण
तेथी आत्मानो कंई बगाड सुधार नथी. परंतु एक दुःख सुख अवस्थाथी तेनो बगाड–सुधार छे. अहीं कांई हेतु
द्रष्टांतनी जरूर नथी. प्रत्यक्ष एम ज प्रतिभासे छे. लोकमां जेटला आत्माओ छे, तेमने आ एक ज उपाय
जोवामां आवे छे के, –– ‘दुःख न थाय–सुख ज थाय’ तेओ अन्य जेटला उपाय करे छे, तेटला एक ए ज
प्रयोजन अर्थे करे छे बीजुं कांई प्रयोजन नथी. तेओ जेना निमित्तथी दुःख थतुं जाणे तेने दूर करवानो उपाय
करे छे. तथा जेना निमित्तथी सुख थतुं जाणे तेने राखवानो उपाय करे छे. वळी संकोच–विस्तारआदि अवस्था
पण आत्माने थाय छे. अनेक परद्रव्यनो पण संयोग मळे छे, परंतु जेनाथी सुख दुःख थतुं न जाणे तेने दूर
करवानो वा होवानो कंई पण उपाय कोई करतुं नथी. अहीं आत्मद्रव्यनो एवो ज स्वभाव जाणवो. अन्य तो
बधी अवस्थाओने ते सहन करी शके छे, परंतु एक दुःखने सहन करी शकतो नथी. परवशपणे दुःख थाय तो
आ शुं करे? तेने भोगवे, पण स्ववश पणे तो किंचित् पण दुःखने सहन करी शकतो नथी. तथा संकोच–विस्तार
आदि अवस्था जेवी थाय तेवी थाय, तेने स्ववशपणे पण भोगवे छे. त्यां स्वभावमां तर्क नथी, आत्मानो
एवो ज स्वभाव छे एम समजवुं जुओ! दुःखी थाय त्यारे सुवा ईच्छे छे जो के सुवामां ज्ञानादिक मंद थई जाय
छे, परंतु जड जेवो बनीने पण दुःखने दूर करवा ईच्छे छे. वा मरवा ईच्छे छे. हवे मरवामां पोतानो नाश माने
छे, परंतु पोतानुं अस्तित्व गुमावीने पण दुःख दूर करवा ईच्छे छे. माटे एक दुःखरूप पर्यायनो अभाव करवो
ए ज तेनुं कर्तव्य छे. हवे दुःख न थाय ए ज सुख छे. कारणके–आकुळता लक्षण सहित दुःख छे, तेनो जे अभाव
थवो ए ज निराकुळता लक्षण सहित सुख छे. अने ए पण प्रत्यक्ष जणाय छे के, बाह्य कोई पण सामग्रीनो
संयोग मळतां जेना अंतरंगमां आकुळता छे ते दुःखी ज छे. तथा जेने आकुळता नथी ते सुखी छे. वळी
आकुळता थाय छे ते रागादिक कषायभाव थतां थाय छे, कारणके रागादिभावो वडे आ जीव तो सर्व द्रव्योने
अन्य प्रकारे परिणमाववा ईच्छे छे. अने ते सर्व द्रव्यो अन्य प्रकारे परिणमे छे. त्यारे आने आकुळता थाय छे.
हवे कां तो पोताने रागादिभाव दूर थाय अथवा पोतानी ईच्छानुसार ज सर्व द्रव्यो परिणमे तो आकुळता मटे.
हवे सर्व द्रव्यो तो आना आधिन नथी पण कोई वेळा कोई द्रव्य आनी ईच्छा होय तेम ज परिणमे तो पण
आनी आकुळता सर्वथा दूर थती नथी. सर्व कार्य आनी ईच्छानुसार ज थाय अन्यथा न थाय, त्यारे ज आ
निराकुळ रहे; पण एम तो थई ज शकतुं नथी, कारणके–कोई द्रव्यनुं परिणमन कोई द्रव्यने आधीन नथी, पण
पोताना रागादिभाव दूर थतां निराकुळता थाय छे; अने ते कार्य बनी शके एम छे. कारणके रागादिभावो
आत्माना स्वभाव भाव तो छे नहि. पण औपाधिक भाव छे. परनिमित्तथी थया छे, अने ए निमित्त
मोहकर्मनो उदय छे, तेनो अभाव थतां सर्व रागादिभाव नाश पामी जाय त्यारे आकुळतानो पण नाश थतां
दुःख दूर थई सुखनी प्राप्ति थाय छे. माटे मोह कर्मनो नाश ज हितकारी छे.
वळी ते आकुळताने सहकारी कारण ज्ञानावरणादिनो उदय छे, ज्ञानावरण–दर्शनावरणना उदयथी
ज्ञानदर्शन सम्पूर्ण प्रगट थतां नथी, अने तेथी आने देखवा जाणवानी आकुळता थाय छे. अथवा वस्तुनो
स्वभाव यथार्थ संपूर्ण जाणी शकतो नथी त्यारे रागादिरूप थई प्रवर्ते छे. त्यां आकुळता थाय छे.
वळी अंतरायना उदयथी ईच्छानुसार दानादि कार्य न बने त्यारे पण आकुळता थाय छे.
(अनुसंधान पाछळने पाने)
मुद्रक:– चुनीलाल माणेकचंद रवाणी, शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, विजयावाडी, मोटा आंकडिया, काठियावाड ता. २७–१–४४
प्रकाशक:– जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ, वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, विजयावाडी, मोटा आंकडिया काठि.