Atmadharma magazine - Ank 005
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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विनति
आपने जणावता आनंद थाय छे
के ‘आत्मधर्म’ मासिकनुं वांचन तेना वांचकोने
खूब उपयोगी नीवडे छे. अने हरहंमेश तेनी
ग्राहक संख्या वध्या ज करे छे. आजे ग्राहक
संख्यानो आंकडो छसो (६०) ए पहोंच्यो छे.
आशा छे के थोडा वखतमां ए संख्या एक हजार
(१०) न थई जश.
परंतु एटली ग्राहक संख्या ए कोई रीते
पूरती न ज कहेवाय.
आवुं अद्भुत, कल्याणदायी वांचन जे
कोई शाश्वत सुखना कामी छे तेमने, जेओ
वास्तविक जैनदर्शन शुं ते जाणवा ईच्छता होय
तेओने, तेमज अज्ञाने कारणे जैनदर्शने
विपरीत रीते प्ररूपी रह्या छे तेवा जैन बंधुओने
नियमित मळे ए माटे ग्राहक बनावानी
भलामण करवानुं कार्य आत्मधर्मना वांचको करे
अने एनी ग्राहक संख्या ५० सुधी पहोंचाडे
एवी विनति छे.
जमु रवाणी