ज्ञानाभ्यासनी जरूरियात भगवती आराधनामांथी
ज्ञान परिणामथी रहित पुरुष पोताना चित्त (संकल्प–विकल्प) नो निग्रह करवा––समर्थ थतो नथी,
अर्थात् ज्ञान मनने जीतवामां उत्तम साधन छे; तेना विना मन अन्य उपायथी जीती शकातुं नथी. जेम मत्त
हाथीने अकुंश वश करे छे तेम उन्मत्त थएल चित्तरूप हाथीने वश करवाने माटे ज्ञान अंकुश समान छे. ज्ञानथी
ज मन जीताय छे तेनां चार द्रष्टांतो.
ज्ञाननी तरफ पूर्ण उपयोग देवाथी आ हृदयरूपी पिशाच, पुरुषने स्वाधीन थाय छे. ते हृदय पिशाचनी
माफक अयोग्य कार्य करे छे, परंतु ज्ञानोपयोगथी पुरुष ते हृदयने शुभ अथवा शुद्ध परिणामोमां प्रवर्तावी शके
छे, माटे हे शिष्य! ज्ञानाराधना करी तुं शुद्ध परिणामोमां तत्पर था.
जेम योग्य विधिथी साधन करेलो मंत्र–प्रयोग कृष्ण सर्पने वश करे छे तेम आ हृदयरूपी कृष्य सर्प पण
उत्तम प्रकारथी प्रयुक्त ज्ञानपरिणाम द्वारा वश करी शकाय छे.
अरण्यमां स्वच्छंदपणाथी विहार करतो मत्त हाथी जेम मजबूत सांकळथी बांधी शकाय छे तेम आ
मनरूपी हाथी ज्ञान रूपी सांकळथी बांधी शकाय छे.
वांदरो एक क्षण पण स्थिर अर्थात् निर्विकार एकस्थानमां रहेतो नथी तेम मन पण विषयो विना स्थिर
रहेतुं नथी. हंमेशांं विषयोमां विचरे छे अर्थात् हमेशां शब्द, रस, स्पर्श वगेरे विषयोमां निमित्त मळतां ते राग–
द्वेषवाळुं थया ज करे छे; सतत् ज्ञाननो अभ्यास न होवाथी तेनी राग–द्वेषमां परिणति थई रही छे, परंतु
ज्ञाननो अभ्यास करवाथी मध्यस्थ भाव उत्पन्न थाय छे.
मनोमर्कटने वश करवानो उपाय.ज्ञान.
आ मनोमर्कटने जिनागमना अभ्यासमां दिनरात तत्पर करवुं जोईए के जेथी रागद्वेषादिक विकारने ते छोडी दे.
मनोमर्कट वश करवाने माटे हमेशां ज्ञानाभ्यासनी आवश्यकता छे.
अज्ञानी जीवनुं आडापणुं अने पुद्गलनी सरळता.
पुद्गल परमाणुओनो एवो स्वभाव छे के तेओने जो कोई जीव विकार न करे तो तेओ जीवने वळगता
नथी, पण ज्यारे कोई जीव आडाई करीने परमाणुओने वतावे (ते तरफलक्ष करे) त्यारे तेओ आव्या वगर
रहेता नथी; अज्ञानी जीव पोते रागद्वेष करे छे छतां परमाणुओनो खोटो वांक काढे छे के “ आणे मने रागद्वेष
कराव्यां ” पण खरेखर तो तें रागद्वेष करीने पुद्गलोने बोलाव्या छे तुं रागद्वेष करीने पुद्गलने बोलाव अने ते
न आवे ए केम बने?
पुद्गलो तो बिचारां जीवने कांई करतां नथी. पण जीव पोते रागादि करीने रोकाय छे त्यारे पुद्गल तो
मात्र हाजर छे...छतां पोताना रागमां परनो दोष काढवो ते जीवनी आडाई ज छे, ज्ञानाभ्यास विना तत्त्व
समजातुं नथी.
विशुद्ध परिणाम युक्त जे जीवना हृदयमां ज्ञानरूपी दीपक सतत् प्रकाशमान रहे छे तेने जिनेश्वरना
कहेला आगममां नष्ट थवानो भय रहेशे नहीं. अर्थात् सतत् ज्ञानाभ्यास करवाथी जीवादिक पदार्थोनुं जैन
शास्त्रमां जे नयोना आधारथी अनेक अपेक्षाओ लई स्वरूप वर्णन कर्युं छे तेमां खूब खुलासो तेने थशे; परंतु
जेने ज्ञानाभ्यास नथी तेने जिनागमनुं रहस्य मालुम नहीं पडे.
ज्ञान उत्कृष्ट प्रकाश छे.
ज्ञानरूपी जे प्रकाश छे ते उत्कृष्ट प्रकाश छे, तेमां विशिष्टता ए छे के कोई द्वारा ते नष्ट करी शकातुं नथी.
हवा वगेरे पदार्थ दीपकनो नाश करे छे परंतु ज्ञानदीपकनो नाश करवावाळो जगतमां कोई पण पदार्थ नथी.
सूर्यनो प्रकाश घणो तीव्र छे परंतु ते पण अल्प क्षेत्रने ज प्रकाशित करे छे, परंतु आ ज्ञाना–प्रदीप समस्त
जगतने प्रकाशित करे छे; ज्ञान समान बीजो प्रकाश जगतमां नथी.
ज्ञान विना चारित्र–तपनी ईच्छा व्यर्थ छे.
ज्ञानरूपी प्रकाश अर्थात् ज्ञानदीपक वगर मोक्षना उपायभूत एवा चारित्र अने तपनी प्राप्ति करवानी जे
ईच्छा करे छे तेने अंधकारमां वृक्ष तृणादिकोथी व्याप्त एवा दुर्गम प्रदेशमां प्रवेश करवावाळा अंधमनुष्य समान
समजवा जोईए; जेम जीवोथी भरेला प्रदेशोमां हिंसादिकने मटाडवी शक्य नथी तेम ज्ञान विना मोक्षनी प्राप्ति
करी शकाय नहीं.