: अषाढ : २००० : आत्मधर्म : १३३ :
सम्यक्दर्शन सहित अने सम्यक्दर्शन रहित
दन, शल, तप अन भव
रजाु करनार: – रामजीभाई माणेकचंद दोशी
[१] धर्मनी शरूआत सम्यग्दर्शनथी थाय छे, तेथी जेने सम्यग्दर्शन होय नहि तेने साचां दान, शील,
तप अने भाव होतां नथी. आ बाबतमां श्री सत्तास्वरूप शास्त्रमां नीचे प्रमाणे कह्युं छे:–
“ तेथी जेने साचा जैनी थवुं छे तेणे तो शास्त्रना आश्रये तत्त्वनिर्णय करवो योग्य छे. पण जे
तत्त्वनिर्णय तो नथी करतो अने पूजा, स्तोत्र दर्शन, त्याग, तप, वैराग्य, संयम संतोष आदि बधां कार्यो करे छे
तेनां ए बधांय कार्यो असत्य छे. ” (पानुं–६)
एटली वात लक्षमां राखवानी छे के–सम्यग्दर्शन न होय अने कोई दान, शील, तप अने भाव करे–तेमां
जो मंद कषाय करे तो तेथी पुण्य थाय खरूं–पण धर्म न थाय. पापनी अपेक्षाए पुण्य ओछो विकार छे तेथी ते
अपेक्षाए तेनो निषेध नथी, पण धर्म अपेक्षाए तेनो निषेध अनंत ज्ञानीओए कर्यो छे, केमके ते विकार होई
आत्माना गुणनो घातक छे. सम्यग्द्रष्टिने पण नीचली अवस्थामां राग–द्वेष टाळतां अशुभ टळी शुभभाव रही
जाय–पण तेने ते धर्म कदी माने नहीं.
[२] दान, शील, तप अने भावनुं यथार्थ स्वरूप समज्या वगर कोई यथार्थ दानादि करी शके नहीं ए
स्पष्ट छे. तेनुं साचुं स्वरूप सम्यग्द्रष्टि ज समजी शके; एटले साचां दान, शील, तप अने भाव करवाना
अभिलाषी जीवोए प्रथम पोतानुं स्वरूप समजवुं जोईए.
[३] केटलाक माने छे के–आपणे बीजाने अनाज, पैसा, पाणी के बीजी सगवड आपीए तेनुं नाम
‘दान’ छे–पण आ मान्यता दोषवाळी छे. दाननुं साचुं स्वरूप शुं छे ते अहीं टुंकमां आपवामां आवे छे; दान
करतां नीचेनी क्रियाओ थाय छे:–
(अ) पैसा, अनाज, पाणी के बीजां परद्रव्यो एक मनुष्य पासेथी बीजा मनुष्य वगेरे पासे जाय.
(ब) ते पर द्रव्यो एक क्षेत्रेथी बीजे क्षेत्रे जाय त्यारे जीवने थता भाव. तेमां पहेली जे जडनी क्रिया
जणावी ते जडथी थाय छे, जीव ते करी शकतो नथी, तेथी तो जीवने लाभ के नुकसान नथी, केमके एक द्रव्यने
बीजा द्रव्यथी लाभ–नुकसान थतां ज नथी; अने एक द्रव्यनुं परिणमन बीजुं द्रव्य करी शकतुं नथी. बीजी क्रिया
जीवना भावनी छे. जो जीवनो भाव अशुभ होय तो पाप थाय अने जीव ते वखते पोतानो लोभ–कषाय जो
ओछो करे तो पुण्य थाय.
[४] सम्यग्द्रष्टि दान देता शुं माने छे ते तपासीए.
(अ) जडनी क्रिया जडथी थाय छे अने मने लाभ नुकसान नथी एम ते माने छे.
(ब) जीवनो लोभ ओछो करवानी क्रिया ते शुभभाव छे तेथी ते वडे पुण्य बंध थाय, पण ते
शुभभावथी धर्म थतो नथी; एवी तेनी मान्यता छे.
(क) शुभभावनुं तेने स्वामीत्व नहि होवाथी वीतरागता अंशे वधे छे तेथी तेने वीतरागभावना
अंशवडे संवर निर्जरा थाय छे.
[प] वीतरागी विज्ञाननो उपदेश सांभळवानो सुअवसर भव्य जीवोने आ क्षेत्रे प्राप्त थयो छे; अने
वीतरागी विज्ञाननो सदुपदेश परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी पासेथी सांभळी, मुमुक्षु जीवो आत्मानुं
स्वरूप समजी लोभ–कषाय ओछो करवा यथाशक्ति प्रयास करे छे. पू. सद्गुरुदेवना आ सालना (१९९९–
२०००) विहारथी सदुपदेशनो धोधमार प्रवाह वह्यो छे, अने घणा मुमुक्षु जीवोए तेनो लाभ लीधो छे.
[६] श्री “आत्मधर्म” ना त्रीजा अंकमां रूा. ३०१४६–३–० ना ‘दाननी विगत’ आपवामां आवी छे ते
उपरांत “सोनगढ जैन अतिथि सेवा समिति” वगेरेने जे दान वगेरेनी रकम आपवामां आवी छे तेनी विगत
तेमां आपवामां आवी न हती, एथी लोभ–कषाय पातळो पाडवानां कार्य तरीके दान प्रभावना, आदिनो प्रवाह
जे सतत् चालु रह्यो छे तेनी विगत अहीं आपवामां आवे छे:–