: १३२ : आत्मधर्म : अषाढ : २००० :
बतावे तथा पुण्य करतां करतां धर्म थशे एम कहे अने कहे के आ धर्मनी वात छे तो तेम होई शके नहीं, धर्मना
उपदेशमां “पहेली जरूर आत्म–श्रध्धानी छे.” ए वात प्रथम ज होय, नहीतर उपदेशके कही देवुं जोईए के “अहीं
धर्मनी वात ज नथी, पण पुण्यनी वात छे.” धर्म वस्तु शुं छे तेनी समजण करवी नथी अने बहारमां मोटाई
मूकवी नथी, ते बधा पुण्यथी धर्म माने छे अने मनावे छे–ते मान्यतानुं फळ संसार छे.
पुण्यथी धर्म नथी एवी श्रध्धा कर्या पछी जे शुभ आवे तेने व्यवहारे अमृतकुंभ कहेवाय, पण भान
वगरना शुभभाव तो व्यवहारे पण अमृतकुंभ नथी. प्रथम निश्चय होय तो ज व्यवहार होई शके! निश्चय वगर
एकलो व्ययवहार होई शके नहीं. आत्मानी श्रध्धा वगर गमे तेटला शुभभाव करे तोपण ते एकलो पोतानो
गुन्हेगार ज छे, ते बंधनमां जकडायेलो ज छे.
‘सारुं करवुं छे’ एम बधा कहे छे. जो सारापणुं आत्मामां न होय तो बहारथी आवशे क्यांथी? एटले
जे सारुं करवुं छे ते सारापणुं आत्मामां ज छे. पण तेनी श्रध्धा नथी तेथी सारुं बहारथी माने छे. पोतानी
श्रध्धा वगर देरासर, पूजा, भक्ति बधो आत्मानो गुन्हो छे. ज्ञानीने साची वस्तुना वलणना भावे जेवा ऊंची
जातना शुभभाव थाय तेवा अज्ञानी नहीं करी शके! ईन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि लौकिक मोटा पदो पण साचा
भान वगर होई शके नहीं.
निरपराधपणुं अप्रतिक्रमण–प्रतिक्रमणना भेद रहितनी त्रीजी भूमिकामां ज छे, माटे ते त्रीजी भुमिकानी
प्राप्ति अर्थे ज भानवाळा जीवने प्रतिक्रमणादि होय छे; तेमने ते व्यवहारे त्रीजी भूमिकानुं कारण कहेवाय छे.
अहीं एम न मानो के आ शास्त्र पुण्य छोडावीने अशुभमां जोडावे छे; पण पहेलांं श्रध्धामां शुभ–
अशुभ बन्ने छोडावीने पछी क्रमे क्रमे वीतराग थाय त्यारे सर्वथा छूटी जाय छे.
आ शास्त्र एटलेथी ज (शुभ–अशुभ बन्ने छोडवानो उपदेश आपीने) अटकतुं नथी पण कांईक
अपूर्व–अति दुष्कर एवुं करावे छे.
छेवट :– निश्चय सहितनो व्यवहार ज मोक्ष मार्गमां आवे छे. निश्चयना भान वगरनो व्यवहार तो बंधन ज
छे. सम्यक्भान पछी शुध्धमां ठर! अने शुध्धमां न ठरी शकाय त्यारे शुभभावमां जोडावारूप व्यवहार आवे छे–
पण–शुध्धना भान वगर एकला शुभने तो व्यवहार पण कह्यो नथी.
खशखबर
आत्मधर्म अंक १, २, ३, ४, प अने ६ नी ७प० नकल तथा ७ मां अंकनी १००० नकल
खलास थतां ते बधा अंकोनी बीजी आवृत्ति छपाई रही छे. आठमा अंकनी १प०० नकल छापी छे.
जे ग्राहकोने आगला अंको खूटता होय तेओ अंक दीठ चार आनानी टिकिटो मोकलावी
मंगावी ले. जमु रवाणी.
त्याग एटले शुं?
परनो त्याग तो आत्माने नथी, पण रागद्वेषनो त्याग ते पण नाममात्र (कहेवा मात्र) छे, रागना
त्यागनुं कर्तापणुं द्रव्यद्रष्टिए आत्माने नथी. पोताना स्वभावमां स्थिर रहेतां रागद्वेष सहेजे टळी जाय छे, ते
त्याग कहेवाय छे–ते पण व्यवहार छे.
आत्मा पोताने ग्रहे छे एम कहेवुं ते पण व्यवहार मात्र छे–केमके एम कहेवामां ‘पोते’ अने ‘पोताने
पकडे छे’ एवा ग्राह्य–ग्राहक भेद पडे छे. द्रष्टिमां ज्ञानीने ग्राह्य–ग्राहकना भेद टळी ज गया छे. पर्याय समजवा
माटे व्यवहार छे; ज्ञाननी पर्याय पण व्यवहार छे.
व्यवहारे बंध छे एटले पर्यायमां हुं निमित्ताधीन छुं (–पुरुषार्थमां नबळाई छे) एम जाणे छे, पण वस्तुए
अबंध छुं–ए द्रष्टिना भान पछी पर्यायमां पर उपर जेटलुं लक्ष जाय छे ते अवस्थानी नबळाई छे. मान्यतामां
(द्रष्टिमां) तो बंध छे ज नहीं. पर्यायमां जे राग थाय छे ते परने लईने नथी, एम जाण्युं एटले “आ पर वस्तुने
लईने हुं नहीं के परने कारणे मारी पर्याय नहीं” एम ते नबळी पर्यायने छोडतो जाय छे––ए ज निर्जरा छे.
सत्य त्रिकाळ एकरूप छे–सत्यनी ना पाडनार कोण? द्रव्य तो ना पाडतुं नथी. पण अंदर ऊंधी
मान्यतारूप महान शल्य तेने ना पडावे छे. भगवान आत्मा सुख शैय्यामां ज सूतो छे.