: अषाढ : २००० : आत्मधर्म : १३१ :
छे ते अपेक्षाए–तथा शुध्धनी द्रष्टिए शुभनुं कर्तापणुं नथी अने शुध्ध स्वभावनुं भान छे तेथी ते शुभने
व्यवहारे अमृतकुंभ कहेल छे.
शुध्धना भानमां ज्ञानी शुभमां जोडाय त्यारे आत्मानी ओळखाण होवाथी ते शुभभावने व्यवहारे
(उपर कह्युं ते अपेक्षाए) अमृतकुंभ कहेल छे. अज्ञानीना तो शुभभाव पण झेर छे केमके तेनी पाछळ तेने
शुध्धनुं लक्ष नथी पण शुभनुं कर्तापणुं छे.
बधाने स्वतंत्रता जोईए छे, पण स्वतंत्रता केम आवे ते जाणता नथी. भगवान! तारा आत्मानी
स्वतंत्रतानुं अपूर्व भान आ जीवनमां न करी जा तो तारुं जीवन गलुडीया जेवुं थयुं. भाई रे! देह के रूपिया
कोईपण पर वस्तु आत्मानी स्वतंत्रतामां मददगार थाय नहीं स्वतंत्रता बहारथी आवे नहीं, स्वतंत्रता
आत्मामां ज छे. जो आत्मानी स्वतंत्रता न समजो तो पराधीनतानी बेडीमां जकडायेला ज छो. आत्माना
स्वतंत्र स्वरूपना भान विना कदी स्वतंत्र थवानी योग्यता ज न होई शके.
जेणे जीवनमां चैतन्यनी जुदाई जाणी नहीं, मरतां शरण थाय तेवो भाव पाम्यो नहीं, ते मरण पछी केवळ
साथेनी संधि क्यांथी लावशे? अने जीवनमां चैतन्यनी जुदाई जेणे जाणी छे, मरतां शरण राख्युं छे ते मरतां पण
साथे केवळज्ञान लेवानी संधि लईने जाय छे. तेथी ते ज्यां जशे त्यां पूर्णनो पुरुषार्थ उपाडी पूर्ण थई जवाना!
भाई रे! तें तारा गाणा सांभळ्यां नथी. जे भावे पैसादि धूळ मळे ते भावनी ज्यां मीठाश छे त्यां तें
छोड्युं शुं? जेने अंतरथी पुण्यनी मीठाश छूटी नथी तेनो त्याग पण द्वेष भावे छे.
आत्मा शुध्ध छे, पुण्य–पापना परिणाम थाय तेवडो नथी एवी द्रष्टिमां जे शुभभाव थाय तेने व्यवहारे
अमृतकुंभ कह्यां छे. अज्ञानीना शुभभावमां तो पाप टाळवानी ताकात अंशे पण नथी, अने शुध्धना
भानसहित शुभमां पाप टाळवानी अंशे ताकात छे. ज्ञानीने पण वीतराग थया पहेलांं शुभ भाव सर्वथा छूटे
नहीं, पण श्रध्धामां पुण्यभाव ते मोक्षमार्ग के तेनुं कारण नथी. एवी शुध्धनी द्रष्टि होवाथी तेना शुभमां अशुभ
टाळवानी ताकात अंशे छे; जेने अप्रतिक्रमण प्रतिक्रमण रहित त्रीजी भुमिकानुं भान नथी तेने तो शुभभाव
एकला झेर छे–तेथी तो एकलुं बंधन छे. अप्रतिक्रमण–प्रतिक्रमणना भेद रहित त्रीजी भूमिकानी श्रध्धा करीने जो
ठर्यो तो ते साक्षात् अमृत ज छे, पण जो ठरी न शक्यो अने श्रध्धा राखीने शुभमां जोडायो तो पण ते व्यवहारे
अमृत छे.
धर्म कोने समजाववो?
जे संसारमां पड्या छे एवा अज्ञानीने के मुनिने? मुनिने धर्म समजाववानुं होय नहीं केमके मुनिपणुं
धर्म समज्या पछी ज आवे. आ समज्या वगर कोईने मुनिपणुं होय नहीं. मुनिपणुं बाह्य त्यागमां नथी पण
अंदरनी समजणमां छे. समजण वगरनो त्याग कोनो? तेणे तो ऊलटो (पुण्य–पाप रहित जे) आत्मा तेने
छोड्यो. (जेने अंदरमां पुण्यनी रुचि छे तेणे पुण्यपाप रहितना आत्माने छोड्यो छे.)
आ तो नग्न सत्य छे. सत्य कोईनी शरम राखे तेम नथी. सत्य छे ते त्रणे काळ सत्य ज छे, सत्य फरे
तेम नथी. सत्य समजवा माटे तारे फरवुं पडशे. जगत माने के न माने तेनी साथे सत्यने संबंध नथी. सर्व काळे
अने सर्व क्षेत्रे सत्य तो एक ज प्रकारे छे.
पहेली जरूर आत्मानी श्रध्धानी छे, ते विना धर्मनी वात नथी. पहेलो उपदेश आत्मानी श्रध्धानो ज
होवो जोईए. ते विना उपदेश पण यथार्थ होई शके नहीं. कोई पुण्य करवानुं
श्रावण
सुद २ रवि २३ जुलाई वद २ रवि ६ ओगस्ट
,, प मंगळ २प ,, ,, प मंगळ ८ ,,
,, ८ शुक्र २८ ,, ,, ८ शुक्र ११ ,,
,, ११ सोम ३१ ,, ,, ११ सोम १४ ,,
,, १४ गुरु ३ ओगस्ट ,, १४ गुरु १७ ,,
,, १प शुक्र ४ ,, ,, ०)) शुक्र १८ ,,