Atmadharma magazine - Ank 008
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 21

background image
: १३० : आत्मधर्म : अषाढ : २००० :
धर्म मानी बेसे छे, आटलो ज ज्ञानी–अज्ञानी वच्चे आंतरो!
अहीं तो आचार्य महाराज कहे छे के:– अनंतकाळे नहीं प्रगटेलुं एवुं अपूर्व, आत्म जीवननुं शुध्धपणुं
जेने मनुष्य जीवनमां प्रगट करवुं छे तेने प्रथम तो “आत्माना शुध्ध स्वभावनी अपेक्षाए आ शुभ क्रिया
पण झेर छे” एवी श्रध्धानुं जोर लाववुं पडशे. ए श्रध्धा वगर पुण्य–पापनुं हळवापणुं टळीने मोक्षनुं वजन
आवशे क्यांथी?
विषय कषायथी तो छूटवुं पण “विषय कषायथी छूटुं” एवी वृत्तिथी पण छूटवुं एम अहीं कहेवुं छे.
निंदा, गर्हा रहित स्वरूप छे. जो ताराथी थाय तो श्रध्धा अने चारित्र बन्ने कर, पण जो तेम न थाय तो जेम छे
तेम श्रध्धा तो अवश्य कर! तेनी श्रध्धा मात्रथी तुं जन्ममरण रहित थई जईश.
आत्मा शुध्ध ज्ञान स्वरूप अमृत कुंभ छे, तेमांथी जो शरीरादिनो संयोग काढी नांखो तो चैतन्य मूर्ति ज छे.
आत्मा पोते ज अमृतकुंभ छे, तेनो स्वभाव तो निर्दोष वीतराग छे. जे शुभ–अशुभ भाव देखाय छे ते
क्षणिक नवा थाय छे, ते नाशवान छे अने आत्मा तो अमृतनो दरियो त्रिकाळ पड्यो छे. अंदर जाणनार छे ते
ज्ञान स्वभाव छे, एवा ज्ञानादि अनंत गुणो छे, ते बधा गुणोनो दरियो चैतन्य पोते छे. ते स्वरूप तो
अमृतकुंभ छे. पण परथी– पुण्यथी लाभ थाय एवी मान्यताए झेर करी दीधुं छे.
भगवान तुं अमृतकुंभ छो. तेमां न ठरी शक तो पण श्रध्धा तो तेनी ज कर. तेनी श्रध्धा अने प्रतीत
करवाथी तारो अमृतकुंभ स्वभाव उघडी जशे–तारो आत्मा पुण्य–पापना विकारनो नाश करीने क्रमे क्रमे स्वभाव
मूर्ति खीली जशे. आ रीते शुध्ध स्वरूपनी सेवनानी पहेली जरूर छे. शुभभाव आत्मानी शुद्धिनुं निमित्त
शुध्धनी श्रध्धा वगर अंशे पण नथी–बोलवा मात्र पण नथी. सम्यग्द्रष्टिने जे द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि छे तेओ
सर्व अपराधरूपी विषना दोषोने घटाडवामां समर्थ होवाथी अमृत कुंभ छे एम व्यवहारे कह्युं छे.
अज्ञानीनां तो पुण्य भाव पण शुध्ध आत्मानी सिध्धिना अभावरूप होई झेरमय ज छे, तेनी तो वात
ज शुं करवी?
प्रभु! पुण्यनी वात तो अनंतकाळथी करतो आव्यो छे, तेथी ते शीख्या वगर पण आवडे छे; अहीं तो
अमे धर्मनुं स्वरूप बताववा मांगीए छीए. ज्यारे अमे धर्मीनो (आत्मानो) धर्म बताववा मागीए छीए
त्यारे पापनी तो वात ज नथी. हिंसादि परिणाम तो नीतिवंतने होय ज नहीं–ए कहेवानी अमारे जरूर नथी,
ते लौकिक नीति तो अनंत वार करी छे. अमारे तो तने धर्म बताववो छे, तारी जन्म मरणनी भूख भांगवी छे,
अनंतकाळथी तें धर्मनो उपाय लीधो नथी.
आत्माना स्वतंत्र सहज शुध्ध शाश्वत स्वरूपनी जेने प्रगट प्राप्ति करवी होय तेने पाप तो छोडवानां छे
ज, अने साची समजण वगरना जे शुभभाव तेनी पण वात नथी; अहीं तो साची समजण पछीना जे
प्रतिक्रमण आदि शुभ भाव तेओ आत्मानी शुध्धतानुं निमित्त कारण होवाथी तेने व्यवहारे अमृत कुंभ कह्या छे.
हुं शुध्ध पवित्र छुं एवुं भान थया पछी आत्मामां थता अशुभ भाव तथा प्रतिक्रमाणादि शुभ भाव ते
क्रमे क्रमे बन्ने टाळीने शुध्धमां तो आत्मा आववानो होवाथी एटले के तेनी पाछळ शुध्ध द्रष्टिनुं जोर होवाथी ते
प्रतिक्रमणादि शुभ भावने व्यवहारे अमृत कुंभ कह्या छे. मारामां ठरी शकतो नथी एटले शुभभाव आवे छे
एवा भान सहितना शुभभावने पण भगवाने निश्चयथी झेर कह्या छे. शुध्ध द्रष्टिना जोर सहित ते जीव
होवाथी ते शुभ भाव टळी जईने शुध्धमां ते आववानो
आषाढ
सुद २ गुरु २२ जुन वद २ शुक्र ७ जुलाई
,, प रवि २प ,, ,, प सोम १० ,,
,, ८ गुरु २९ ,, ,, ८ गुरु २३ ,,
,, ११ रवि २ जुलाई ,, ११ रवि १६ ,,
,, १४ बुध प ,, ,, १४ बुध १९ ,,
,, १प गुरु ६ ,, ,, ०)) गुरु २० ,,