Atmadharma magazine - Ank 008
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २००० : आत्मधर्म : १२९ :
दर्शन भक्तिमां रोकाईए, विषय छोडीए, पापनी निंदा करीए, प्रायश्चित करीए एवा भाव करतां करतां
अमारा आत्मानो उद्धार थई जशे. पण तमे एमांनुं कांई न कहेतां पहेलेथी ज शुध्ध आत्माने समजवानी वात
केम करो छे?
उत्तर:–ज्यां धर्म समजवानी वात आवी त्यां पुण्य पाप बन्ने छोडवानुं आव्युं. पाप छोडीने
पुण्यथी धर्म
मानीने तो तुं अनादिथी रखडी रह्यो छो, पण प्रभु! आ मनुष्य देह चाल्यो जवानो छे, जो शुध्ध
आत्मानी ओळखाण नहीं करी तो क्यां तारा ठेकाणां? अहींथी ऊडीने क्यांय चाल्यो जईश.
तोल विनानां तरणां पवनना वंटोळीए क्यां ऊडी जशे तेनो मेळ नथी, पण कांकरी (वजनदार
होवाथी) ऊडे नहीं; तेम साची श्रध्धाना जोर विना आत्मा चोराशीनां अवतारमां क्यां रखडशे तेनो मेळ नथी.
आत्मामां–पुण्य–पाप ते हुं अने शरीर, मन, वाणी मारां एवी मान्यतामां सम्यक्श्रध्धानुं वजन नथी एटले
तेवो आत्मा चोराशीमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. ‘हुं पुण्य–पाप रहित शुध्ध निर्मळ छुं’ एवी आत्मानी
श्रध्धाना महत्ताना वजनना भार विना आत्मा क्यां ऊडी जशे तेनो पत्तो नथी.
छोकरो एक मांसनी पूतळी लेवा खातर (लग्न वखते) एवो भार राखे के सामा (ससरा पक्ष) गमे
तेटलो प्रयत्न करे छतां मरकवुं पण करे नहीं. एम अहीं मुक्तिरूप कन्या लेवा माटे (राग द्वेष थाय छतां)
निर्णयमां तो वजन राख, भार तो राख! परमां होंश अने हरखनो एकवार नकार तो कर! आत्माना हरख
तो लाव!
आत्मा पवित्र चिदानंद शुध्ध छे तेने थोडो काळ तो भार लाव! अने पुण्य–पापथी मरक नहीं. तो तने
थोडे काळे आत्म परिणतिरूप कन्या प्राप्त थशे.
बापु! स्वतंत्र स्वभावनी श्रध्धा तो कर! हुं शुध्ध स्वरूपमां ठरी शकतो नथी एटले आ शुभमां आववुं
पडे छे. एम शुभनो नकार लावी आत्माना गुणनो भार तो लाव! ए भारमां तने पूर्ण शुध्ध परिणतिरूप
कन्या मळी जशे.
पुण्य क्यारे थाय परवस्तु उपरथी तृष्णा घटाडे त्यारे पुण्य थाय. अहीं “ते पुण्यना कारणे आत्माने धर्म
थाय.” एम शिष्य कहेवा मागे छे; ते कहे छे के––पहेलेथी ज शुध्ध आत्मानी उपासनानो प्रयास करवो तो
अमने आकरो लागे छे.
[आवुं कहेनाराओ अनादिना छे, तेथी आ प्रश्न उपाड्यो छे.] अमे तो हजी पुण्य–
पापमां पड्या छीए, अने तमे तो पुण्य–पाप रहितनी श्रध्धानी मांडी छे. अमारे तो पाप भाव झेर छे, अने
प्रतिक्रमणादि (आत्माना भान वगर) करवा ते अमारे अमृतकुंभ छे. व्यवहार श्रध्धा, नवकार मंत्र, देव–गुरुनी
भक्ति, व्रत, तप, एनाथी अमारे आत्मानी शुध्धता प्रगटी जशे एवो शिष्यनो तर्क छे.
ए तर्कनुं समाधान आचार्य महाराज निश्चयनयनी प्रधानताथी उत्तर आपीने करे छे:–
सांभळ! आत्माना भान वगर एकला दयादिभाव ते तो झेर छे, पण सम्यक् श्रध्धा पछी जे
पुण्यना शुभभाव आवे तेने पण झेर कह्या छे. पुण्य भाव ते आत्माना अमृतकुंभनो विरोध करीने थता
होवाथी आठे बोल
[प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा गर्हा अने शुद्धि] ते झेर छे.
प्रतिक्रमण–हिंसादि भावथी “मिच्छामि दुककडं” करवुं ते– अर्थात् पापथी पाछा फरवुं ते. भगवान ते
शुभभावने पण झेर कहे छे, कारणके ते आत्माना अमृतकुंभनुं खून करीने थाय छे, ते छोडीने आत्मामां स्थिर
था! एम आचार्ये उपदेश कर्यो छे. शुभ भावने शुभ तो अमे पण कहीए छीए, पण शुभभावने धर्मनुं
कारण मानता नथी.
तुं अनंतकाळथी रखडयो तेनुं कारण पापने छोडवामां अने पुण्यमां धर्म मानीने तेमां ज रोकाई
गयो ते छे.
संपूर्ण वीतराग दशा प्रगट्या पहेलांं अशुभ छोडवा ज्ञानीओने पण भक्ति आदि शुभनुं अवलंबन
आवे छे, परंतु तेनाथी धर्म मानता नथी, अने अज्ञानी शुभमां