Atmadharma magazine - Ank 008
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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: १२८ : आत्मधर्म : अषाढ : २००० :
• शुभ लागणी ते तो राग छे, विकार छे ते वडे धर्म मानार •
परम पुज्य सद्गुरुदेवनुं राजकोटमां छेल्लुं व्याख्यान
आत्माना स्वरूप नुं खून करे छे.
संवत २० ना फागण वदी २ तारीख १ – ३ – ४. शनिवार

जेने आत्मानी स्वतंत्रता जोईए छीए तेने प्रथम तो ‘कर्म अने पराधीन भावथी आत्मानी स्वतंत्रता
प्रगटे नहि.’ ए निर्णय करवो पडशे.
आ देह तो जड छे, तेनाथी जुदो अरूपी आत्मा दर्शन–ज्ञान आनंद स्वरूप छे, तेमां वर्तमान दुःख लागे
छे तेनुं कारण ‘आत्माने परनी जरूर पडे’ एवो भाव थाय छे ते छे. ते भाव क्षणिक अने विकारी छे, आत्मानी
निज जातनो (स्वरूपनो) ते भाव नथी. एक तत्त्व बीजा तत्त्वनो आश्रय मागे ते भाव शुध्ध नथी. आत्मा
ज्ञान स्वभावी वस्तु पोताना सुख माटे परनो आधार मागे ते बधो भाव दुःख रूप छे अने परवस्तु तेमां (ते
भावमां) निमित्त छे. मारा निराकूळ सुखमां पुण्य–पापना कोई पण भाव मददगार नथी एवा निर्णय वगर
सुख प्रगटे नहीं.
आत्मा दुःख स्वरूप छे ज नहीं; आनंद ज तेनो स्वभाव छे, पण ‘माराथी मने सुख छे.’ एवी
स्वरूपनी श्रध्धाथी आत्मा अनादिनो भ्रष्ट थई गयो छे, तेथी सुख प्रगट नथी. शरीर, मन, वाणी तो पर छे ते
सुखदायक के दुःखदायक नथी; परने माटे जे पापभाव ते सुखदायक नथी, अने जे दया–दानादिना शुभभाव थाय
ते भाव पण आत्माना सहज सुखने माटे मददगार नथी.
छोडवा जेवुं शुं अने राखवा जेवुं शुं तेना विवेक वगर कदी सुखनो अंश पण ऊगे नहीं.
आत्मा शुध्ध छे, तेमां दया, व्रतादिना शुभभाव पण झेर छे–पराधीनता छे, माटे ते रहित शुध्ध
आत्मानी श्रध्धा करो!
आत्मा स्वतंत्र वस्तु छे. तेमां शरीरादि परनी क्रिया तो लाभ के नुकसाननुं कारण नथी, तथा जे
शुभभाव थाय ते पण मोक्षना सुखनुं कारण नथी. आत्माना स्वाधीन सुखनुं कारण परवस्तु न ज होय; पाप
छोडवानुं तो साधारण जनता (नानुं बाळक) पण कही रही छे, ते अपूर्व नथी. अनंतकाळे अचिंत्य मनुष्य देह
मळ्‌यो तेमां जो स्वाधीन तत्त्वनी श्रध्धाना बीजडां न रोप्यां तो तेणे कांई अपूर्व कर्युं नथी. पुण्य तो दरेक प्राणी
अनंतवार करी चूक्यो छे. अहीं तो आचार्य देव अनंतकाळे नहीं समजायेल एवुं स्वरूप बतावे छे. अंदर जे
शुभलागणी ते राग छे–विकार छे, ते वडे धर्म माननार आत्माना स्वरूपनुं खून करे छे. एवी जोर पूर्वक वात
आवी त्यारे शिष्ये प्रश्न कर्यो:–
(अनादि मिथ्याद्रष्टि मूढ जीव जेने आत्मानी ओळखाणनी प्रतीत नथी एवो शिष्य अहीं तर्क करे छे.)
आत्मा शुध्ध छे, देह, मन, वाणीथी निराळो छे, पुण्य–पापना क्षणिक भावोथी पण भिन्न छे. तेनी
श्रध्धा करो! एम पहेलेथी ज कहेता आव्या छो, तो तमे तो पहेलेथी ज शुध्धनी मांडी! अमारे (मिथ्याद्रष्टि मूढ
जीव जेने आत्मानी.
ओळखाण नथी एवा अज्ञानी जीवोने) तो आत्मा शुध्ध थवानो हशे त्यारे थशे, पहेलांं अमने कांईक
पुण्य–क्रिया तो करवा द्यो. एम करतां हळवे हळवे शुध्ध थई जशे, पहेलेथी ज शुध्ध शुं करवा बतावो छो? शुध्ध
आत्मानी उपासनानो ज प्रयास करवानी शुं काम वात करो छो? शुभ क्रिया केम नथी बतावता? कारण के
आत्मानी शुध्धता तो प्रतिक्रमणादिथी ज थाय छे. अमे तो आत्मगुणमां प्रेरणाकारक (निमित्त) देव, गुरुना