जेने आत्मानी स्वतंत्रता जोईए छीए तेने प्रथम तो ‘कर्म अने पराधीन भावथी आत्मानी स्वतंत्रता
निज जातनो (स्वरूपनो) ते भाव नथी. एक तत्त्व बीजा तत्त्वनो आश्रय मागे ते भाव शुध्ध नथी. आत्मा
ज्ञान स्वभावी वस्तु पोताना सुख माटे परनो आधार मागे ते बधो भाव दुःख रूप छे अने परवस्तु तेमां (ते
भावमां) निमित्त छे. मारा निराकूळ सुखमां पुण्य–पापना कोई पण भाव मददगार नथी एवा निर्णय वगर
सुख प्रगटे नहीं.
सुखदायक के दुःखदायक नथी; परने माटे जे पापभाव ते सुखदायक नथी, अने जे दया–दानादिना शुभभाव थाय
ते भाव पण आत्माना सहज सुखने माटे मददगार नथी.
आत्मा शुध्ध छे, तेमां दया, व्रतादिना शुभभाव पण झेर छे–पराधीनता छे, माटे ते रहित शुध्ध
छोडवानुं तो साधारण जनता (नानुं बाळक) पण कही रही छे, ते अपूर्व नथी. अनंतकाळे अचिंत्य मनुष्य देह
मळ्यो तेमां जो स्वाधीन तत्त्वनी श्रध्धाना बीजडां न रोप्यां तो तेणे कांई अपूर्व कर्युं नथी. पुण्य तो दरेक प्राणी
अनंतवार करी चूक्यो छे. अहीं तो आचार्य देव अनंतकाळे नहीं समजायेल एवुं स्वरूप बतावे छे. अंदर जे
शुभलागणी ते राग छे–विकार छे, ते वडे धर्म माननार आत्माना स्वरूपनुं खून करे छे. एवी जोर पूर्वक वात
आवी त्यारे शिष्ये प्रश्न कर्यो:–
आत्मा शुध्ध छे, देह, मन, वाणीथी निराळो छे, पुण्य–पापना क्षणिक भावोथी पण भिन्न छे. तेनी
जीव जेने आत्मानी.
आत्मानी उपासनानो ज प्रयास करवानी शुं काम वात करो छो? शुभ क्रिया केम नथी बतावता? कारण के
आत्मानी शुध्धता तो प्रतिक्रमणादिथी ज थाय छे. अमे तो आत्मगुणमां प्रेरणाकारक (निमित्त) देव, गुरुना