अंतरात्मा प्रत्ये
अहो! शांतमूर्ति अंतरात्मा! तुं ताराथी ज प्रसन्न रहे,
कोई अन्य तने प्रसन्न राखशे एवी व्यर्थ आशा छोडी दे.
तुं पोते तने पूर्ण स्वरूपमां नहि लावे तो अन्य कोई तने
शुं आपी देवाना छे? जेओने कोई प्रत्ये राग के द्वेषभाव नथी
तेमनी पासेथी मागवुं पण शुं? अने जेओ पोते ज राग अने द्वेष
भावथी रिबाई रह्या छे एवाओ बिचारां अन्यनुं शुं हित करशे?
माटे––
हे सहज पूर्ण–आनंदी अंतरात्मा! अपूर्णता छोड! जगत
पोताथी पूर्ण छे, तुं ताराथी पूर्ण स्वरूपमां आवी जा. शीतळ,
शांत, ज्ञान स्वभावथी तुं भरपूर छो, तेमां बाह्यवृत्तिथी मोजांओ
उपाडी डोळप लाववानी टेव छोड!
हे शुभ भावनाओ! तमोए अशुभनी जग्या तो पूरी
दीधी, पण मारे तो हवे तमारी पण जरूर नथी. ‘हुं मारा ज्ञायक
भावमां समाई जाउं छुं. तमाराथी पण भावे निवृत्त थाउं छुं,–छूटो
पडुं छुं.
हे पूर्व कर्मोदयो! तमोए पण सत्तामां रहेवानुं बंध कर्युं
छे–अने–उदयमां आववानुं चालु राख्युं छे तो ए पण तमारो
उपकार ज छे के मने तत्काळ छूटो थई जवामां सहायभूत बनो
छो; कारण के मारुं स्वरूप तमाराथी जुदुं छे एम में जाणी लीधुं छे.
हे आत्मा! बाह्य जंगल के वनमां पण शांति नथी, माटे
अंतररूपी जंगलमां तारा सहज ज्ञानानंदरूप वननी अनुभवनीय
सुवास लई स्वाधीन थई जा. बहारमां स्वाधीनता क्यांय नहीं
मळे.
हे जीव! संसारमां रही ईष्ट–अनिष्ठ संयोगो प्रत्ये तुं
हरख के खेद भाव राखे छे–तो–शुं तारामां असंसार–भावनाने
प्रबळ करी परमआनंदमय नथी बनी शकतो!
जो बीजा भावे कांई लाभ न थतो होय एम जणाय तो
एक स्वभावथी जेटलो लाभ लेवाय तेटलो ले, तेमां क्यारेय
खूटवापणुं नहि आवे, एम द्रढ विश्वास राखी समय वीताव्ये जा.
आयुष्य आत्मानुं नथी–कर्मनुं छे, कर्म आत्माना नथी–
पुद्गलना छे. तुं स्वद्रव्यमां रही जा–पर द्रव्य सौ पोतपोतानुं
संभाळी लेशे. अचिंत्य आत्मस्वरूप सहज सुगमताए पामी
चूकेला सिध्ध भगवंतो! तमने कोटी प्रणाम!!! • • •
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक
आत्मधर्म