Atmadharma magazine - Ank 010-011
(Year 1 - Vir Nirvana Samvat 2470, A.D. 1944)
(Devanagari transliteration).

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द्रष्टिनो विषय
वस्तु त्रिकालिक छे तेना आश्रयथी पर्याय निर्मळ थाय छे. पर्यायना आश्रयथी पर्याय निर्मळ थती नथी.
गुरुना कहेवा उपर लक्ष जाय छे त्यां सुधी निमित्त, शास्त्र, गुरु अने ज्ञान बधा विनाशी, पण ध्रुव प्रत्ये नजर
जाय त्यारे ज्ञान अविनाशी थाय छे. अनुभव ने सम्यग्दर्शन ते अवस्था छे. तेने ने आत्माने त्रिकाळी संबंध
नथी, केमके ते फरी जाय छे. दर्शन निमित्तनो स्वीकार करतुं नथी, पण त्यारपछी उपचारथी निमित्त कहेवाय छे.
पाछळथी ज्ञान निमित्तने जाणे छे. दर्शन वखते निमित्त नथी. पाछळथी (पछीथी) निमित्त कहेवाणुं निमित्तने
रागथी जाणे छे त्यां सुधी ज्ञान विनाशी अनित्य छे. ते अविनाशीने लाभ करतुं नथी. ते तो पूर्वनो ज उघाड
छे. पोते ज ज्यारे पोता तरफ वळीने निर्णय कर्यो त्यारे निमित्त कहेवाय छे. जे समये अविनाशी ज्ञान थाय छे
ते वखते निमित्तनो सवाल ज रहेतो नथी. निर्णय सामान्य उपर वळ्‌यो त्यां संसार छूटयो. संसार छूटवानुं
कारण द्रव्य पोते छे. निर्णय थया पछी निमित्त कहेवाय छे. ध्रुव शक्ति साध्य छे, मोक्ष साध्य नथी. मोक्ष प्रगट
थाय छे. प्रगट–अप्रगट पर्याय द्रष्टिमां होय. ध्रुव कायम प्रगट छे. प्रगट अप्रगट वस्तुमां सवाल ज नथी. प्रगट
अप्रगट अवस्थामां ज वस्तु ध्रुव तो कायम प्रगट ज छे. साध्य वस्तु, साधन निर्णय (व्यवहार.) ध्रुव लक्षमां
आवतां सहज निर्मळ अवस्था प्रगटे छे. पुरुषार्थ करवो पडतो नथी. सहज पुरुषार्थ थई जाय छे. आश्रय
पर्यायनो केवो! आश्रय स्वभावनो! ध्रुव ने मोक्ष ए बे साध्य थाय तो बे भंग पडी जाय, दर्शननो विषय भंग
(बे) नथी. सम्यग्दर्शन के केवळज्ञान उघडे ते निश्चयथी आदरणीय नथी. साध्य साधननो भेद निश्चयमां छे ज
नहि. भेदनुं जोर आवे तो अभेद उपर जोर आवतुं नथी.
श्री सनातन जैन पाठशाळा – सोनगढ
(१) आ पाठशाळामां जैनशास्त्रोनो अभ्यास कराववामां आवे छे.
(२) अभ्यासीओने भोजन खर्च तथा रहेवानुं स्थळ पाठशाळा तरफथी आपवामां आवे छे.
(३) अभ्यासीनी उम्मर १४ वर्ष के तेथी उपरनी होवी जोईए.
(४) अभ्यास दरमियान ब्रह्मचर्यनुं पालन आवश्यक छे.
(प) अभ्यासक्रम त्रण वर्ष सुधीनो रहे छे.
(६) भाद्रपद सुद प थी नवुं वर्ष शरू थाय छे.
(७) दाखल थवा ईच्छनारे पत्र व्यवहार करी छापेलुं फोर्म मंगावी लेवुं.
जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ (काठियावाड)
व्यवहारथी निश्चय न आवे
व्यवहारनय एटले परने आश्रये प्रवर्तेलुं कथन. दर्शननो विषय अभेद छे, एम ज्ञान जाणे तो ज्ञाने
यथार्थ जाण्युं कहेवाय. ते ज्ञान रागद्वेषने तो गौण करी नांखे एटलुं ज नहि पण निर्मळ अवस्थाने य गौण करी
नांखे. गौण करी नाखे एटले अवस्था प्रत्ये वजन नहीं. ते ज्ञान केवळज्ञानने पण गौण करी नांखे छे; एकलुं
सामान्य ते दर्शननो विषय छे. श्रद्धानुं लक्ष तो विकार उपर नथी, पण निर्मळ अवस्था केटली प्रगटी ते पर पण
नथी. निरपेक्ष द्रष्टिमां परनी अपेक्षा आवती नथी, परनुं आलंबन आवतुं नथी. व्यवहारथी निश्चय न आवे,
व्यवहारनो निषेध करे निश्चय आवे. उणी अवस्था के पूरी निर्मळ अवस्था कोई सम्यग्दर्शननो विषय नथी.
निमित्त साथे होय छे, पण द्रष्टिमां निमित्तनो आदर होतो नथी. उणी अवस्था छे तेथी ज्ञान निमित्तने जाणे खरुं,
पण दर्शननो विषय निरालंब छे; द्रष्टि तेनो ज आदर करे छे. सम्यग्दर्शन पण साधन छे, अखंड तो साध्य छे.
साध्यना जोरे साधन वचमां थई जाय छे. रागद्वेष अवगाहे, क्षेत्रे भेगा पण भावे. भेगा नथी तेथी छूटा पडे छे.
सम्यग्दर्शन थयुं एटले परमात्मा थई जवानो. सम्यग्दर्शनी तो लघुनंदन थई गयो; कृतकृत्य थई गयो. विकार वडे
निर्मळ अवस्था प्रगटे ए तो अत्रे वात ज नथी, पण निर्मळ अवस्था वडे विशेष अवस्था उघडे तेम पण नथी.
व्यवहारनो अभाव करतां निश्चय आवे. व्यवहार करतां निश्चय आवे एम त्रण लोकमां बने तेम नथी.
विनति
आत्मधर्म अने सत्शास्त्रोना प्रचार माटे ‘शिष्ट साहित्य पत्रिका’ प्रगट करवामां आवी छे. जिज्ञासुओ
पोतानुं तेमज बीन सज्जनोनुं नाम अने पूरुं सरनामुं लखी जणावे. जमु रवाणी.