Atmadharma magazine - Ank 013
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
• प्रश्नोत्तर •
प्रश्न:– संसारी जीवोने पुण्य भलुं–आत्माने सहायक–लाभदायक केम लागे छे?
उत्तर:– आस्रवनुं शुं स्वरूप छे अने तेनुं लक्षण शुं छे ते अनादिथी आत्माए जाण्युं नथी तेथी.
प्रश्न:– क्रोधादिभाव मारुं कार्य (–कर्म) छे, एम कोण माने छे?
उत्तर:– संसारी अज्ञानी जीव माने छे के हुं कर्ता अने क्रोधादि भाव मारुं कार्य.
प्रश्न:– क्रोधादिभाव मारुं कार्य एम अज्ञानी जीव माने छे, एम शा उपरथी कहो छो?
उत्तर:– अज्ञानी जीवो माने छे के, घरमां जरा सर्पफुंफाडो (कडकाई) राखीए तो स्त्री, पुत्र, नोकरादि सरखां
चाले. नहीं तो गणकारे नहीं.
प्रश्न:– ते मान्यता खोटी केम कहो छो; अमे एम करीए छीए त्यारे ए बधां सरखां चाले छे एवो अमने
अनुभव छे, अने तमे तेने खोटुं कहो ते केम मनाय?
उत्तर:– ए सर्पफुंफाडाने तमे वीतरागता कहो छो के कषाय कहो छो?
प्रश्नकार कहे छे–तेने वीतरागता कही शकाय नहीं, तेने तो कषाय ज कहेवो जोईए.
उत्तरचालु–ए सर्प फुंफाडो पाप छे, अने पापनुं फळ बहारनो लाभ मळे एम मानवुं ते महादोष
छे. जो पापथी बहारनी सगवड के लाभ मळतो होय तो सर्वथी सर्वात्कृष्ट पापीने बहारनी सर्वोत्कृष्ट
सगवडता होवी जोईए. पापनुं फळ सगवड मळे एम बने ज नहीं.
प्रश्न:– त्यारे अमारी मान्यतामां शुं भूल छे?
उत्तर:– संसारनी सगवडता ते पूर्वना पुण्यनुं फळ छे. संसारनी सरखी व्यवस्था पूर्वना पुण्यनुं फळ छे.
मिथ्याद्रष्टिनुं पुण्य ज पापानुबंधी पुण्य होय छे, तेथी तेने संसारनी पण सरखी व्यवस्था होय ज नहीं.
पूर्वे पापानुबंधी पुण्य बांध्युं, अने अज्ञान भाव टाळ्‌यो नहीं तेथी ते पुण्यनुं फळ भोगवती वखते तेने
क्रोध वगेरे पाप करवाना भाव आवे छे. ए ध्यानमां राखवुं जोईए के, संसारनी सगवड–अगवड ते
वर्तमान धर्म करवामां लाभदायक के नुकशानकारक नथी. बहारना संजोगो तो पोतपोताना कारणे
नियमसर बने छे; अज्ञानी पोते माने छे के, में मारी हुशियारीथी ते बहारनी वस्तुने सरखी राखी.
ए रीते क्रोधादि कार्य मारुं छे, एम अज्ञानी माने छे ए सिद्ध थयुं.
प्रश्न:– ‘क्रोधादि भाव’ मां क्रोध तमे कोने कहो छो?
उत्तर:– आत्मानुं स्वरूप समजवानी अरुचि ते क्रोध छे.
प्रश्न:– क्रोधादिमां ‘क्रोध’ नो अर्थ कह्यो. हवे ‘आदि’ मां शेनो समावेश थाय छे?
उत्तर:– ‘क्रोधादि’ शब्दनो अर्थ मिथ्यात्व (मोह) अने राग द्वेष थाय छे, एटले आदि शब्दमां मिथ्यात्व अने
रागनो समास थाय छे.
प्रश्न:– जे जीव क्रोधादिभाव मारुं कार्य (कर्तव्य, कर्म) माने ते जीवने शास्त्रनी परिभाषामां शुं कहे छे?
उत्तर:– (१) अज्ञानी (२) पर्याय बुद्धि (३) दीर्घ संसारी (४) मिथ्याद्रष्टि.
प्रश्न:– जे आत्माना चैतन्य स्वरूपने अने क्रोधादि भावने भिन्न भिन्न लक्षणथी पिछान करी यथार्थ जाणे तेने
शास्त्रनी परिभाषामां शुं कहे छे?
उत्तर:– (१) ज्ञानी (२) अल्प संसारी (३) सम्यग्द्रष्टि (४) आत्मज्ञानी.
प्रश्न:–
What is the cause of continuous cycle of existence? (संसारमां चालु भवभ्रमणना चक्रनुं कारण शुं?
उत्तर:– It is wrong belief and errorfeeding passions which are the cause of continuous cycle of
existences.
भवचक्रना भ्रमणनुं कारण खोटी मान्यता अने भूलपोषक कषाय छे. (भूलपोषक कषायने
शास्त्रनी परिभाषामां अनंतानुबंधी कषाय कहे छे.)
– : निवेदन: –
जे ग्राहकोए रूा. प लवाजम भरेलुं छे तेमने बे वर्ष सुधी एटले ३६ मां अंक सुधी मासिक मोकलवामां आवशे. अथवा बीजा
एक ग्राहकनुं नाम मोकली आपी रूा. २ाा ए ग्राहक पासेथी वसुल लई लेवा अने ते बन्ने वस्तुओ अनुकूळ न होय तो बाकी
रहेल रूा. २ाा पोस्टकार्ड लखी पाछा मंगावी लेवा कृपा करशो.
जमु रवाणी
मुद्रक:– जमनादास माणेकचंद रवाणी शिष्ट साहित्य मुद्रणालय दासकुंज, मोटा आंकडिया, काठियावाड ता. १८–१०–४४
प्रकाशक:– जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, दासकुंज मोटा आंकडिया (काठि)