Atmadharma magazine - Ank 015
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA With the permisson of Broda Govt. Rgd No. B. 4787
Order No. 30/24 date 31-10-44
ते करी शके एम मानी जे शुभभाव करे ते शुभभाव पछी तुरत ज अशुभभाव आवे. तेनुं फळ तो संसार
(दुःख) होय ज, धर्म होय ज नहि. पण जे बीजानुं हुं कांई करी शकुं नहि एम मानतो होय तेने जे शुभभाव
थाय ते पण धर्म नथी, के धर्मनुं कारण नथी.
संपूर्ण वीतरागता प्राप्त न थाय त्यां सुधी ज्ञानीओने शुभभाव थाय छे पण तेओ ते शुभ भावने धर्म
कदी माने ज नहि. पुण्यने धर्म के धर्मने मददगार मानवानी प्रवृत्ति दुनियामां जोसबंध चाले छे तेथी आचार्य
भगवाने ते सामे बळवान लालबत्ती आडी धरी कह्युं छे के:–
छे कर्म अशुभ कुशील ने जाणो सुशील शुभ कर्मने!
ते केम होय सुशील जे संसारमां दाखल करे?
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पुण्य अने पाप बन्ने विभाव परिणतिथी उपज्यां होवाथी बन्ने बंधरूप ज छे. भ्रमने लीधे तेमनी
प्रवृत्ति जुदी जुदी भासवाथी, सारुं अने खराब एम बे प्रकारे तेओ देखाय छे. साची द्रष्टिए तेओ एक रूप ज,
बंधरूप ज, खराब ज छे एम ज्ञानीओ जाणे छे. ए बन्ने क्षुद्राणीना उदरथी एकी साथे जन्मेला छे तेथी बन्ने
साक्षात क्षुद्र छे. आ जातनी मान्यता प्रथम थवी जोईए. मान्यता थतां ज ते शुभ भाव टळी जाय नहीं, तेथी
ज्ञानीने पण शुभ भाव थाय. परंतु ज्ञानी अने अज्ञानीनो आंतरो ए छे के अज्ञानी शुभ भावने सारो माने,
धर्मनुं कारण माने (जेने सारो माने तेने टाळवा योग्य कोई माने ज नहि. पण ते विकार होवाथी बदलाईने
थोडा वखतमां अशुभ थया विना रहे नहीं. वळी शुभ भाव थाय त्यारे पुण्य अने पाप बन्ने प्रकारना कर्मो
बंधाय छे तेथी अज्ञानीने कदी धर्म थाय नहीं) ज्यारे ज्ञानीने अज्ञानी करतां शुभ भाव जुदा प्रकारनो ऊंचो
अने घणो थाय छतां तेने ते कदी धर्म माने ज नहि.
४–जीव अनंत छे दरेक जीव स्वयंसिद्ध पूर्ण चैतन्य स्वरूप वस्तु छे. अनादिथी जीव परवस्तुओथी मने
लाभ–नुकशान थाय छे एम पोतानी अवस्थामां माने छे तेथी ते दुःखी छे.
प–जे एम माने छे के हुं पर जीवोने जीवाडुं छुं अने पर जीवो मने जीवाडे छे–ते मूढ छे, अज्ञानी छे,
ज्ञानी तेथी विपरीत छे.
६–जे एम माने छे के हुं पर जीवोने हणुं छुं अने पर जीवो मने हणे छे–ते मूढ छे, अज्ञानी छे, ज्ञानी
तेथी विपरीत छे.
७–जे एम माने छे के हुं पर जीवोने सुखी के दुःखी करी शकुं, पर जीवो मने सुखी दुःखी करी शके–त मूढ
छे, अज्ञानी छे, ज्ञानी तेथी विपरीत छे.
८–हे भाई! हुं जीवोने सुखी–दुःखी करी शकुं, हुं जीवोने धर्म पमाडी शकुं, तेने मोक्ष पमाडी शकुं, तेने
बंधनमां नांखी शकुं ए तारी मूढमति छे तेथी ते मिथ्या छे.
९–जीवे प्रथम मिथ्यादर्शन टाळी सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं जोईए, ते विना साचुं ज्ञान के चारित्र होतां नथी.
१०–जे सम्यग्दर्शन सहित होय तेने ज साचां व्रत, दान के तप, शील होई शके, अज्ञानीने होय नहि.
११–धर्मनी शरूआत सम्यग्दर्शनथी थाय छे. पोतानुं स्वरूप यथार्थ समज्या वगर सम्यग्दर्शन थाय
नहि–माटे स्वरूप यथार्थपणे समजी सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं. अभव्य ज ते प्रगट करी शके नहि (प्रगट करवानो
पुरुषार्थ ते न करे) भव्य वृद्ध, बाळ, रोगी, निरोगी, सधन, निर्धन बधा प्रगट करी शके.
१२– (सम्यक्) दर्शन ते धर्मनुं मूळ छे, मिथ्यात्व ते संसारनुं मूळ छे. माटे जीवना विकारी भाव (पुण्य,
पाप, आस्रव, बंध) अने अविकारी भाव (संवर, निर्जरा अने मोक्ष) समजी शुद्धता प्रगट करवी.
निर्ग्रंथ साधुपदनुं स्वरूप :– सम्यग्दर्शनथी धर्मनी शरूआत थाय छे. ते विना कोईने पण साधुपद–के सम्यक्चारित्र
प्रगटे ज नहीं. सम्यग्दर्शन–ज्ञान पूर्वक जेने साचुं चारित्र होय छे तेवा साधुओ हजारोवार सातमा अने छठा
गुणस्थाने रहे छे. सातमागुणस्थानने अप्रमत्त गुणस्थान कहेवामां आवे छे. ते
(वधु माटे जुओ पानुं ३४)
मुद्रक:– जमनादास माणेकचंद रवाणी शिष्ट साहित्य मुद्रणालय दासकुंज, मोटा आंकडिया. काठियावाड. ता. १३–१२–४४
प्रकाशक:– श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, दासकुंज, मोटा आंकडिया (काठि.)