अंक : ५
सात दिवस वहेलो प्रगट कर्यो छे, जेथी सौने आत्मधर्म पोताने घेर वखतसर मळी जाय अने पाछळथी
झंखना करे छे; ए सुख केम थाय? शुं ए सुख बहारथी पैसा वगेरेमांथी आवतुं हशे? तो कहे छे के ना; ते सुख
बहारथी आवतुं नथी, पण अंदरथी ज प्रगटे छे. बहारमां क्यां सुख छे? शुं शरीरना लोचामां सुख छे, पैसामां छे,
स्त्रीमां छे, क्यां छे? बहारमां तो धूळ–जड देखाय छे, शुं जडमां आत्मानुं सुख होय! न ज होय, पण ते पर
छतां मूढताए कल्प्युं छे. अयथार्थने यथार्थ माने तेथी कांई परिभ्रमणनुं दुःख टळे नहि. सुख स्वभावनी खबर
नथी तेथी स्वभावथी विरुद्ध भाव करी रह्यो छे, अने तेना कारणे आठ प्रकारनां कर्मो बंधाय छे तेथी आकुळतानो
भोगवटो करे छे, पण जो स्वभावनुं भान करे अने स्वभावथी विरुद्ध जे राग–द्वेषना भाव तेनो नाश करे तो सर्व
कर्मो टळी जाय अने दुःख टळीने सुख थाय.
केमके तेमने तो तत्त्व विचारनी शक्ति ज नथी. मनुष्यपणामां पण यथार्थ श्रध्धानादि थवुं कठण छे; ‘श्रद्धानादि’
एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ए त्रणे थवा कठण छे, पण मात्र सम्यक्भान तो बाळ–गोपाळ, रोगी–निरोगी
सर्वे करी शके छे. एथी सुखी थवा माटे सम्यक्भान