Atmadharma magazine - Ank 017
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष : २
अंक : ५
फा ग ण
२ ० ० १
१७
ओ! अरिहंता भगवंता, देवाधिदेवा, प्रभु सीमंधरा तुज पाद पद्मे सर्वांग अर्पणता.
दर वर्षे फागण सुद बीजे सुवर्णपुरीमां भगवान श्री सीमंधरनाथ सनातन जैन मंदिरनो प्रतिष्ठा
महोत्सव दिन उजवातो होवाथी घणा मुमुक्षु भाई–बहेनो ए महोत्सवमां सोनगढ जाय छे एथी आ अंक
सात दिवस वहेलो प्रगट कर्यो छे, जेथी सौने आत्मधर्म पोताने घेर वखतसर मळी जाय अने पाछळथी
अंक न मळ्‌यानी फरियाद करवानुं कारण न रहे. प्रकाशक
दरेक जीवने सुख प्रिय छे ए विषे तो कोईने पूछवा जवुं पडे तेम नथी. दरेक कार्यमां सुखने माटे ज झावां
नाखे छे. स्वर्गना देव के नरकना नारकी, तीर्यंच के मनुष्य, त्यागी साधु के गृहस्थ वगेरे बधा सुखने ज माटे
झंखना करे छे; ए सुख केम थाय? शुं ए सुख बहारथी पैसा वगेरेमांथी आवतुं हशे? तो कहे छे के ना; ते सुख
बहारथी आवतुं नथी, पण अंदरथी ज प्रगटे छे. बहारमां क्यां सुख छे? शुं शरीरना लोचामां सुख छे, पैसामां छे,
स्त्रीमां छे, क्यां छे? बहारमां तो धूळ–जड देखाय छे, शुं जडमां आत्मानुं सुख होय! न ज होय, पण ते पर
वस्तुओमां सुखनी खोटी कल्पना अज्ञानी जीवे करी नांखी छे; परमां सुख छे नहि, कदी परमां सुख जोयुं पण नथी
छतां मूढताए कल्प्युं छे. अयथार्थने यथार्थ माने तेथी कांई परिभ्रमणनुं दुःख टळे नहि. सुख स्वभावनी खबर
नथी तेथी स्वभावथी विरुद्ध भाव करी रह्यो छे, अने तेना कारणे आठ प्रकारनां कर्मो बंधाय छे तेथी आकुळतानो
भोगवटो करे छे, पण जो स्वभावनुं भान करे अने स्वभावथी विरुद्ध जे राग–द्वेषना भाव तेनो नाश करे तो सर्व
कर्मो टळी जाय अने दुःख टळीने सुख थाय.
सुख तो दरेक जीवने वहालुं छे; पण कर्मना नाश विना सुख प्रगटे नहीं, वीतरागता विना कर्मनो नाश
निर्णयरूप आगमनुं ज्ञान एकेन्द्रियथी मांडीने असंज्ञी पंचेन्द्रिय सुधीना जीवोने तो थई शकवा योग्य नथी,
केमके तेमने तो तत्त्व विचारनी शक्ति ज नथी. मनुष्यपणामां पण यथार्थ श्रध्धानादि थवुं कठण छे; ‘श्रद्धानादि’
एटले सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ए त्रणे थवा कठण छे, पण मात्र सम्यक्भान तो बाळ–गोपाळ, रोगी–निरोगी
सर्वे करी शके छे. एथी सुखी थवा माटे सम्यक्भान
प्राप्त करो. (पूज्य गुरुदेव)
: संपादक:
रामजी माणेकचंद दोशी
शिष्ट साहित्य भंडार–मोटा आंकडिया–काठियावाड