महान शास्त्र श्री जय धवला
भगवान श्री महावीरनी दिव्य ध्वनिमां आवेलुं महातत्त्व श्रीमान आचार्य भगवानोए जाळवी राख्युं अने भव्य जीवोना
हित माटे पुस्तक आरुढ कर्युं. ए प्रमाणे भगवानथी आवेल परंपरा तत्त्वना प्ररूपनारां महान पुस्तको (शास्त्रो) श्रीधवळ, श्री
जयधवळ अने श्री महाधवळ छे. आ शास्त्रो मुडबिद्रि (दक्षिण) मां हस्तलिखित छे. हाल सुधी अप्रसिद्ध हतां, मात्र तेना दर्शन भाविक
जीवो त्यां जता त्यारे थतां हतां. सद्भाग्ये ते हवे प्रसिद्ध थवा लाग्यां छे. तेमांथी श्री धवळ प्रसिद्ध थवानी शरूआत बे वर्ष पहेलांं
थएली छे, अने तेना छ पुस्तको बहार पड्यां छे, अने बीजा हजु छपावानां छे.
श्री जयधवलानुं पहेलुं पुस्तक हालमांज प्रसिद्ध थयुं छे. भगवाननी वाणी आवेली तेमां यथा तथ्यपणे जाळवी राख्यानी
प्रतित थाय छे. द्रष्टिवाद नामना बारमा अंगमां ज्ञान प्रवाद नामनुं पांचमुं पूर्व छे, तेमां एक ‘कषाय पाहूड’ नामनी वस्तु छे तेनुं
दोहन श्री गुणभद्र आचार्ये “कषाय पाहुड” नामना शास्त्रमां १८० गाथामां करी सागरने गागरमां भरी लीधो छे. ते उपर श्रीमान
यतिवृषभ आचार्ये चुर्णिसुत्र लख्युं छे अने ते उपर श्री जयधवला नामनी टीका श्रीमान वीरसेन आचार्ये करी छे. मुळ साथे हिंदी
अनुवादनो तेनो पहेलो भाग प्रसिद्ध थयो छे; तेमांथी थोडीक अगत्यनी बाबतो अहीं आपवामां आवी छे. सं.
(१) श्री जिनेदेव (आत्मा) केवळज्ञान शरीरी छे. पानुं १
(२) ‘केवलणाण शरीरो’ आ पदथी भगवाननी आभ्यंतर स्तुति करी छे. प्रत्येक आत्मा केवळज्ञान, केवळदर्शनादि अनंत
गुणोनो पिंड छे, तेथी ते अनंत गुणोना समुदाय विनानी आत्मा स्वतंत्र बीजी कोई वस्तु नथी. पा. २
(३) सिद्ध भगवान शिव स्वरूप छे. पा. २
(४) श्रुतदेवी माता (अंबा) सदा चक्षुष्मति अर्थात् जाग्रत चक्षु छे. पा. ३
(५) गणधरदेवरूपी समुद्रने लोको नमस्कार करो. पा. ३
(६) ज्ञान प्रवाद पूर्वनी निर्दोष दशमी वस्तुना त्रीजा कषाय प्राभृतरूप समुद्रना जळ समुदायथी धोवामां
आवेल मतिज्ञानरूपी लोचन समूहथी जेणे त्रिभुवनने प्रत्यक्ष करी लीधा छे अने जे त्रणे लोकना परिपालक छे एवा
गुणधर भट्टारक द्वारा परमागमरूप तीर्थनी व्युच्छित्तिना भयथी–जेमां संपूर्ण कषाय प्राभृतनो अर्थ समावी देवामां
आव्यो छे एवी गाथाओ उपदेशमां आवी छे. पा. ४, ५
नोंध–अहीं मतिज्ञाननो महिमा बताव्यो छे अने ते ज्ञान वडे सम्यग्ज्ञानीओ त्रिभुवनने प्रत्यक्ष करी लीए छे
एम जणाव्युं छे.
(७) जो के शुभ परिणाम मात्र बंधनुं कारण छे तो पण जे शुभ परिणाम सम्यग्दर्शनादिना उत्पत्तिने समये
थाय छे, तथा जे सम्यग्दर्शनादिना सद्भावमां थाय छे ते आत्माना विकासमां बाधक नहीं होवाना कारणे उपचारथी
कर्म क्षयनुं कारण कहेवाय छे. पा. ६
(८) जे शिष्य युक्तिनी अपेक्षा कर्या विना मात्र गुरुवचनने अनुसार प्रवृत्ति करे छे तेने प्रमाणानुसारी
मानवामां विरोध आवे छे. पा. ७
(९) शिष्योने सम्यक्त्व (श्रद्धा) नुं अस्तित्व असिद्ध छे एम कहेवुं बराबर नथी केमके अहेतुवाद–एवा
द्रष्टिवाद अंगनुं सांभळवुं सम्यक्त्व विना बनी शकतुं नथी, तेथी सम्यक्त्वनुं अस्तित्व सिद्ध थई जाय छे. पा. ७
(१०) लाभ, पूजा अने सत्कारनी ईच्छाथी पण अनेक शिष्यो द्रष्टिवाद सांभळे छे, एम कहेवुं ते बराबर नथी
केमके तेवा शिष्योनुं सांभळवुं सांभळवा मात्र छे, अहीं तो भाव श्रवण करनारा शिष्योनी वात छे. पा. ७
(११) द्रव्य श्रवणथी अज्ञाननुं निराकरण थई सम्यग्ज्ञाननी उत्पत्ति थती नथी. पा. ८
(१२) देशव्रतनी समान सरागसंयम पण पुण्य बंधनुं कारण छे. पा. ८
(१३) जे विवेकी जीव भावपूर्वक अरहंतने नमस्कार करे छे ते अतिशीघ्र समस्त दुःखोथी मुक्त थई जाय. पा. ९
नोंध:– विवेकी जीव अने भावपूर्वक ए बे शब्दो उपयोगी छे माटे तेनो अर्थ बराबर समजवो.
(१४) द्वेष रागनो अविनाभावी छे; जीव द्रव्यनी अपेक्षाए राग अने द्वेष बन्ने एक छे; ‘राग’ ए राग अने
द्वेष ए बन्नेनुं वाचक छे ए सुप्रसिद्ध छे. पा. ११
(१५) ‘आचेलककुदेसियं’ ए पदमां ‘चेल’ शब्दनो अर्थ समस्त परिग्रह थाय छे–माटे तेनो अर्थ परिग्रह
मात्रनो त्याग एवो करवो. पा. १२
(१६) गुण प्रत्यय अवधीज्ञान सम्यग्दर्शन, देशव्रत, अथवा महाव्रतना निमित्तथी थाय छे तो पण ते बधा
सम्यग्द्रष्टि, देशव्रती के महाव्रती जीवोने होतुं नथी केमके–असंख्यात लोक प्रमाण सम्यक्त्व, संयमासंयम अने संयमरूप
परिणामोमां अवधिज्ञानावरणना क्षयोपशमना कारणभूत परिणाम बहु ज थोडा होय छे. पा. १७
(१७) ज्ञानथी भिन्न आत्मा होतो नथी, तेथी केवळज्ञानने केवळ अर्थात् असहाय कहेवामां कांई आपत्ति
नथी. पा. २२
(१८) केवळज्ञान अर्थनी सहायताथी थाय छे एम कही शकाय नहीं. पा. २२
आत्मधर्मना ग्राहको एकेक नवा ग्राहकनुं नाम मोकली आपे तो?