Atmadharma magazine - Ank 017
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म
: फागण : २००१ : ६७ :
शा श्व त सु ख नो मा र्ग द र्शा व तुं मा सि क
वर्ष: २ फा ग ण
अंक: प २ ० ० १
श्री सी मं ध र भ ग वा न
स्तवन
[गाजे पाटणपुरमां–ए राग]
सुंदर स्वर्णपुरीमां स्वर्ण–रवि आजे उग्यो रे,
भव्यजनोना हैये हर्षानंद अपार,
श्री सीमंधर प्रभुजी पधार्या छे अम आंगणे रे.
(वसंततिलका)
निर्मूळ मोह करीने प्रभु निर्विकारी,
छे द्रव्यभाव सहुना परिपूर्ण साक्षी;
कोटि सुधांशु करतां वधु आत्मशान्ति,
कोटि रवींद्र करतां वधु ज्ञान ज्योति.
जेनी मुद्रा जोतां आत्मस्वरूप लखाय छे रे,
जेनी भक्तिथी चारित्र विमळता थाय,
एवा चैतन्य मूर्ति प्रभुजी अहो! अम आंगणे रे.... सुंदर
‘सद्धर्मवृद्धि वर्तो’ जयनाद बोल्या,
श्री कुन्दना विरह ताप प्रभु निवार्या;
सप्ताह एक वरसी अद्भुत धारा
श्री कुंदकुंद हृदये परितोष पाम्या.
जेनी वाणी झीली कुन्दप्रभु शास्त्रो रच्यां रे,
जेनी वाणीनो वळी सद्गुरु पर उपकार,
एवा त्रण भुवनना नाथ अहो! अम आंगणे रे.... सुंदर
छे पूर्वधारी गणधरो प्रभुपादपद्मे,
छे चार तीर्थ प्रभु अहो! तुज छत्र नीचे;
साधक संतमुनिना हृदयेश स्वामी,
सीमंधरा! नमुं तने शिर नामी नामी.
जेना द्वार जिनजी आव्या; भव्ये ओळख्या रे,
ते श्री कानगुरुनो अनुपम उपकार,
नित्ये देव–गुरुनां चरणकमळ हृदये वसो रे.... सुंदर
(विशेष हकीकत माटे पाछळनुं पानुं जुओ.)