ATMADHARMA With the permissdon of the Baroda Govt. Regd No. B. 4787
order No. 30/24 date 31-10-44
देव – गुरु – धर्मने कोईनी भक्तिनी जरूर नथी, परंतु जीज्ञासु जीवोने साधक दशामां अशुभ रागथी बचवा
सतनुं बहुमान आव्या वगर रहेतुं नथी
आत्मा वहालो क्यारे थयो कहेवाय अर्थात् आत्मानी दरकार थई छे एम क्यारे कहेवाय? प्रथम तो जे
वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा थई गया छे एवा अरिहंतदेवनी साची प्रीति थवी जोईए. विषय कषाय के कुदेवादि
प्रत्येनो राग जे तीव्र राग छे तेने टाळीने साचां देव–गुरु प्रत्येनी भक्ति आदिमां मंदराग करवानां पण जे
जीवने ठेकाणां नथी ते जीव तद्न रागरहित आत्मस्वरूपनी श्रद्धा क्यांथी लावशे? जेनामां परम उपकारी
वीतरागी देव–गुरु–धर्मनी खातर राग ओछो करवानी पण त्रेवड नथी ते पोताना आत्मानी खातर तद्न
रागनो अभाव केम करी शकशे? जेनामां बे पाई आपवानी ताकात नथी ते बे लाख रूा. केम आपी शकशे?
तेम जेने देव–गुरुनी साची प्रीति नथी–व्यवहारमां पण हजी जेने राग घटाडवो पालवतो नथी ते निश्चयमां
‘राग मारूं स्वरूप ज नथी’ एम लावशे क्यांथी? जेने देव–गुरुनी साची श्रद्धा अने भक्ति नथी तेने तो
निश्चय–व्यवहार बेमांथी एके साचां नथी, मात्र एकलो मूढभाव पोषाय छे–तीव्र कषाय अने शुष्कज्ञानने ते
सेवे छे. प्रथम दशामां देव, गुरु, धर्मनी भक्तिनो शुभराग आवे के देव–गुरु–धर्मने माटे तृष्णा घटाडी अर्पाई
जाउं, तेमने माटे शरीरनां चामडां उतारी मोजडी करावुं तोय तेमनो उपकार पूरो न थाय एवी पोताना भावमां
सर्वस्व अर्पणता आव्या वगर देव–गुरु–धर्मनी साची प्रीति थाय नहि. अने देव–गुरु–धर्मनी प्रीति वगर
आत्मानी ओळखाण थाय नहि. देव–गुरु–शास्त्रनी भक्ति अने अर्पणता आव्या वगर त्रणकाळ त्रणलोकमां
आत्मानी साक्षी ऊगे नहि के आत्मामां स्वने माटे अर्पणता आवी शके नहि.
एकवार तुं गुरुना चरणे अर्पाई जा! पछी गुरु ज तने तारामां समाई जवानी आज्ञा आपशे. एकवार
तो तुं सत्ने शरणे झुकाई जा! तेनी हा ए हा अने तेनी ना ए ना. तारी सत्नी अर्पणता आव्या पछी संत
कहेशे के तुं परिपूर्ण छो, तने अमारी जरूर नथी, तुं तारा सामे जो. ए ज आज्ञा छे अने ए ज धर्म छे.
एकवार सत् चरणे झुकाई जा, साचा सत्देव–गुरुनी अर्पणता वगर आत्मानो उद्धार थाय नहि–परंतु–
तेनो ज आश्रय मानी बेसे तो पण ते पराश्रये आत्मानो उद्धार थाय नहि. आ रीते परमार्थ स्वरूपमां तो
भगवान आत्मा एकलो ज छे परंतु ते परमार्थ स्वरूपने पहोंची न शके त्यां पहेलांं देव–गुरु–शास्त्रने स्वरूपना
आंगणे पधराववा ते व्यवहार छे. देव–गुरु–शास्त्रनी भक्ति–पुजा वगर एकला निश्चयनी मात्र वातो करनार
शुष्क ज्ञानी छे.
देव–गुरु–धर्मने तारी भक्तिनी जरूर नथी, परंतु जिज्ञासु जीवोने साधक दशामां अशुभरागथी बचवा
सत्नुं बहुमान आव्या वगर रहेतुं नथी. श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे के–“जो के ज्ञानी भक्ति ईच्छता नथी. तोपण
तेम कर्या विना मुमुक्षु जीवने कल्याण थतुं नथी, संतोना हृदयमां रहेलुं आ गुप्तरहस्य पाने चडाव्युं छे.” सत्ना
जिज्ञासुने सत् निमित्तरूप सत्पुरुषनी भक्तिनो उल्लास आव्या वगर रहेतो नथी.
प्रथम तो उल्लास आवे के अहो! अत्यार सुधीमां असंग चैतन्यज्योत आत्मानी वात पण न बेसी
अने सदेत्व, गुरु–शास्त्रनी भक्तिमांथी पण गयो. आटलो काळ वीती गयो, एम जिज्ञासुने पूर्वनी भूलनो
प्रश्चाताप थाय अने वर्तमानमां उल्लास आवे. पण ए देव–गुरु–शास्त्रनो राग आत्मस्वभाव प्रगट करावतो
नथी. प्रथम ते राग आवे अने पछी “आ राग पण मारूं स्वरूप नथी” एम स्वभाव द्रष्टिना जोरे अपूर्व
आत्मभान प्रगटे छे.
खरेखर तो देव–गुरु–शास्त्रने साची अर्पणता पण अनादिथी करी नथी अने तेमनुं कहेवुं सांभळ्युं नथी;
नहितर देव–गुरु–शास्त्र तो एम कहे छे के तारे अमारो आश्रय नथी. तुं स्वतंत्र छो. जो देव–गुरु–शास्त्रनी
साची श्रद्धा करी होत तो तेने पोतानी स्वतंत्रतानी श्रद्धा जरूर थई जात. देव–गुरु–शास्त्रना चरणे तन, मन,
धन अर्पण कर्या विना; जेमां आखा आत्मानी अर्प–
(अनुसंधान पाछला पाने)