Atmadharma magazine - Ank 022
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 17

background image
: अषाढ : २००१ : आत्मधर्म : १६५ :
पदमां अनादि अनंत आत्मा दर्शावी दे छे. अनादि अनंत आत्मस्वरूप समजतां अनंतकाळ न लागे. आ
समयप्राभृतरूपी नाटक द्वारा अल्पकाळमां जगतना जीवोने आत्मानुं आखुं स्वरूप बतावी देवुं छे. ज्ञानीना
अंतर जुदां छे. टुंकामां घणुं गूढ रहस्य मुकी दीधुं छे एकेक पदे पदे परिपूर्णता बतावी छे ते जगतनी उपलक
द्रष्टिए नहि देखाय........
आ समयप्राभृत एकवार पण समजतां श्रोताने कांई अजाण्युं न रहे. (‘श्रोता’ शब्द गुरुगम सूचवे छे.
प्रथम, पोतानी मेळे बधा भाव समजाय नहि तेथी यथार्थ ज्ञानी पुरुषो द्वारा सांभळीने समजतां कांई अजाण्युं
रहे नहि–आ हेतुथी ‘श्रोता’ शब्द आव्यो छे.) अनादि अनंत आत्मस्वरूपनी ओळखाण, मोक्षमार्गनुं स्वरूप,
बंध–मोक्षनुं स्वरूप, उपादान–निमित्तनुं स्वरूप, निश्चय–व्यवहारनुं स्वरूप, कर्ताकर्मनुं स्वरूप ए बधुं, कांई बाकी
राख्या वगर अल्पकाळमां बतावी दीधुं छे. आ बधुं पंचमआराना श्रोताने आखुं आत्मस्वरूप अल्पकाळमां
बताववुं छे, पात्र थईने समजे तो खबर पडे... आ रीते कह्युं के “ग्रंथाधिराज तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्यां.”
– शिखरिणि –
“अहो! वाणी तारी प्रशम रस भावे नीतरती, मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी, अनादिनी
मूर्छा विषतणी त्वराथी उतरती, विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.”
हे नाथ! हे समयसार भगवान! तारी वाणी केवी सुंदर छे! आत्मानो उपशम रस–जे पुण्य–पाप रहित
निराकुळ प्रशम आनंदरस तेना भावथी तारी वाणी नीतरी रही छे. तारी वाणीमां आत्मानो शांत स्वभावरस
टपके छे. जेम घीथी भरेली तपेलीमां गरम पुरणपोळी झबोळीने पछी उपाडे तो ते पुरणपोळी अंदरमां तो
घीथी भरचक थई जाय अने बहारमां पण घीथी नीतरती होय, तेम तारी वाणी अंदरमां तो उपशम रसथी
भरपूर छे, एटले जे समजे तेमने अंतरमां तो आत्मानो शांत अमृतरस अनुभवाय छे अने बहारमां पण
तेमनी दशा अद्भुत थई जाय छे.
‘मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी’ आ वाणी मुमुक्षु जीवोने अमृतरस पानारी छे. जेने
संसारनो आताप–भय लाग्यो होय, तरस लागी होय, आत्मानी धगश–तृषा जागी होय तेवा जीवोने आ
समयसारजीनी वाणी अमृतरस पाय छे, ते जेने रुचशे तेनी जन्म मरणनी तृषा टळी जशे. भगवान
कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचंद्राचार्य समयप्राभृतरूपी अंजलि भरी भरीने जगतना भव्यात्माओने कहे छे के–ल्यो रे
ल्यो! जन्म–मरणनी तृषा टाळवा आ अमृतनां पान करो... आवां टाणां फरी फरी नहि मळे...
आ अमृतनुं पान करतां शुं थाय छे–तो कहे छे के “अनादिनी मूर्छा विषतणी त्वराथी उतरती.” हे नाथ
समयप्राभृत! तारी पवित्र वाणीमां एवा मंत्रो छे के अनादिनी विष मूर्छा एकदम ऊतरी जाय छे, तारी
वाणीना नादथी जे जाग्या तेने त्वराथी मुक्ति होय. आ समयसार जेने रूच्युं अने हुं आत्मा, मारा आनंदने
माटे पर वस्तुनी मारे जरूर नथी, हुं पोते ज ज्ञानानंदथी भरपूर स्वाधीन तत्त्व छुं’ आम जे अंतरभान करीने
जागृत थया तेने एक बे भवमां ज मुक्तिना कोलकरार छे; आ तो कुंदकुंद भगवाननी हुंडी छे–जेम शाहुकारनी
हुंडी कदी पाछी न फरे तेम अहीं शाहुकार (स्वरूपनी साची लक्ष्मीवाळा) श्री कुंदकुंद भगवाननी मुक्तिनी हुंडी
आ समयप्राभृतमां छे ते कदी पाछी न फरे... जेणे आ समयप्राभृतनुं अमृत पीधुं तेनी विषमूर्छा
[अज्ञान] ते
ज क्षणे टळी जाय छे... मूर्छा उतरतां शुं थाय–ते कहे छे–
“विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति”
अज्ञान भावरूपी विषरूपी विष मूर्छा उतरी जतां पुण्य–पाप रूपी विभावभावोथी थंभी जईने परिणति
निज स्वरूप तरफ दोडे छे. –दोडे छे एम कहीने पुरुषार्थनुं जोर बताव्युं छे. समयसारने (शुद्ध आत्मस्वरूपने)
सांभळतां अने ओळखतां पोतानी परिणति–अवस्था चैतन्यजयोत आत्मस्वरूप तरफ जलदी–जलदी परिणमे
छे. वार लागे ए वात ज नथी.
– : शार्दुलविक्रिडित: –
तुं छे निश्चय ग्रंथ भंग सघळा व्यवहारना भेदवा, तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो विसामो भवकलांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
हे गं्रथाधिराज! तुं निश्चयनो ग्रंथ छो, परम शुद्ध आत्मस्वरूपने दर्शावनार छो. अने व्यवहारना अनेक
भेद छे तेने तोडीने एकरूप अभेद स्वभाव समजावनार छो. अगीआरमी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के–
ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भुयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।