समयप्राभृतरूपी नाटक द्वारा अल्पकाळमां जगतना जीवोने आत्मानुं आखुं स्वरूप बतावी देवुं छे. ज्ञानीना
अंतर जुदां छे. टुंकामां घणुं गूढ रहस्य मुकी दीधुं छे एकेक पदे पदे परिपूर्णता बतावी छे ते जगतनी उपलक
द्रष्टिए नहि देखाय........
रहे नहि–आ हेतुथी ‘श्रोता’ शब्द आव्यो छे.) अनादि अनंत आत्मस्वरूपनी ओळखाण, मोक्षमार्गनुं स्वरूप,
बंध–मोक्षनुं स्वरूप, उपादान–निमित्तनुं स्वरूप, निश्चय–व्यवहारनुं स्वरूप, कर्ताकर्मनुं स्वरूप ए बधुं, कांई बाकी
राख्या वगर अल्पकाळमां बतावी दीधुं छे. आ बधुं पंचमआराना श्रोताने आखुं आत्मस्वरूप अल्पकाळमां
बताववुं छे, पात्र थईने समजे तो खबर पडे... आ रीते कह्युं के “ग्रंथाधिराज तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्यां.”
टपके छे. जेम घीथी भरेली तपेलीमां गरम पुरणपोळी झबोळीने पछी उपाडे तो ते पुरणपोळी अंदरमां तो
घीथी भरचक थई जाय अने बहारमां पण घीथी नीतरती होय, तेम तारी वाणी अंदरमां तो उपशम रसथी
भरपूर छे, एटले जे समजे तेमने अंतरमां तो आत्मानो शांत अमृतरस अनुभवाय छे अने बहारमां पण
समयसारजीनी वाणी अमृतरस पाय छे, ते जेने रुचशे तेनी जन्म मरणनी तृषा टळी जशे. भगवान
कुंदकुंदाचार्य अने अमृतचंद्राचार्य समयप्राभृतरूपी अंजलि भरी भरीने जगतना भव्यात्माओने कहे छे के–ल्यो रे
ल्यो! जन्म–मरणनी तृषा टाळवा आ अमृतनां पान करो... आवां टाणां फरी फरी नहि मळे...
माटे पर वस्तुनी मारे जरूर नथी, हुं पोते ज ज्ञानानंदथी भरपूर स्वाधीन तत्त्व छुं’ आम जे अंतरभान करीने
जागृत थया तेने एक बे भवमां ज मुक्तिना कोलकरार छे; आ तो कुंदकुंद भगवाननी हुंडी छे–जेम शाहुकारनी
हुंडी कदी पाछी न फरे तेम अहीं शाहुकार (स्वरूपनी साची लक्ष्मीवाळा) श्री कुंदकुंद भगवाननी मुक्तिनी हुंडी
आ समयप्राभृतमां छे ते कदी पाछी न फरे... जेणे आ समयप्राभृतनुं अमृत पीधुं तेनी विषमूर्छा
अज्ञान भावरूपी विषरूपी विष मूर्छा उतरी जतां पुण्य–पाप रूपी विभावभावोथी थंभी जईने परिणति
छे. वार लागे ए वात ज नथी.
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो विसामो भवकलांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
भुयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।