Atmadharma magazine - Ank 024
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: १९८ : आत्मधर्म : २४
जो जाणदि अरहतं दव्वत गुणत्त पज्जय तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादितस्सलयं।।
जे जाणतो अर्हंतने गुण द्रव्यने पर्ययपणे, ते जाणतो निज आत्मने तसु मोह लय पामे खरे.
(अध्याय–१ गाथा–८०)
अर्थ:– जे जीव द्रव्य, गुण अने पर्यायथी अरिहंतनुं स्वरूप जाणे छे तेनो मोह खरेखर नाश पामे छे.
केवळज्ञान तो आत्मानो स्वभावभाव छे. जेणे केवळज्ञानरूपी स्वभावभावना सामर्थ्यनो भरोसो कर्यो तेने
भवनी शंका ज नथी, केमके स्वभावभावमां भव नथी. जो भवनी शंका होय तो तेने केवळीनी श्रद्धा नथी. अने ज्यां
केवळीनी ज श्रद्धा नथी त्यां ‘केवळीए जोयुं हशे’ एम ते केवळीना नामे मात्र वातो करे छे, परंतु केवळीनी तेने श्रद्धा
नथी. जे केवळीनी श्रद्धा करे तेने ‘केवळी भगवाने मारा अनंत भव जोया हशे तो? ’ एवो संदेहनो विकल्प ज न ऊठे.
प्रथम अमे तने पूछीए छीए के जिनभगवानने तुं माने छे के नहि? जो तुं जिनभगवानने माने छे तो
तेमने भव छे के नथी? (जिनभगवानने भव नथी.) जिनभगवान आत्मा छे के नहि? (आत्मा छे.) तुं
आत्मा छो के नथी? (आत्मा ज छुं.) जिनभगवान आत्मा छे अने तुं पण आत्मा ज छो तो बंने आत्मानो
स्वभाव सरखो छे के नहि? हा, बधा आत्मानो स्वभाव तो सरखो ज छे. बस! बधा आत्मानो स्वभाव
सरखो छे एटले जेवो जिनभगवाननो स्वभाव भवरहित छे तेवो ज तारो स्वभाव पण भवरहित छे, जिनने
भव नथी अने तारे पण भव नथी–आ रीते जिनभगवाननी श्रद्धा थतां पोताना आत्मानी श्रद्धा थाय छे अने
भवनी शंका रहेती नथी.
द्रव्य–गुणमां भव के भवनुं कारण विकार नथी. विकार एक समय पूरतो छे ते मारुं त्रिकाळ स्वरूप नथी, हुं तो
अविकार स्वभावी छुं–आम स्वभावनी श्रद्धाना जोरे जेणे विकार आत्मानुं स्वरूप नथी–एम मान्युं तेनी श्रद्धामां भव ज
न रह्या, एटले तेने भवनी शंका रही ज नहि; स्वभावनी श्रद्धाना जोरे ते अल्पकाळमां भव रहित थई जशे...
(ता. १प–८–४प रात्रि चर्चा)
आत्मामां भव नथी. जेने आत्मानी श्रद्धा ज्ञान थया तेने भवनी शंका न रही. श्रद्धामां तो अभव
(भवरहित) स्वभाव छे; चारित्र गुणमां एक समय पूरतो विकार छे ते पुरुषार्थनी नबळाई छे. परंतु चारित्रनो
क्षणिक विकार ते पण स्वभाव नथी. चारित्र गुण तो प्रतीतिमां पूर्ण निर्मळ आव्यो छे. एटले वर्तमान विकार छे तेने
जो के ज्ञान जाणे छे पण ते विकारने पोतानो स्वीकारतुं नथी. ज्ञान त्रिकाळी शुद्ध चारित्र गुणने जाणे छे. “श्रद्धाए जे
द्रव्यने प्रतीतिमां लीधुं छे तेमां चारित्र गुण परिपुर्ण शुद्ध ज आव्यो छे” –एम ज्ञान जाणे छे. तथा पुरुषार्थनी अल्प
नबळाई तेने पण जाणे छे परंतु पुरुषार्थनी नबळाई पण स्वभाव नथी. द्रष्टिमां तो चारित्र, वीर्य वगेरेथी परिपूर्ण
स्वभाव ज आव्यो छे–एम ज्ञान स्वीकारे छे–तेथी ते ज्ञानमां भवनी शंका नथी. पुरुषार्थनी कचाशथी एक–बे भव
होय तो तेने ज्ञान जाणे छे. पुर्ण स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञानना जोरे पुरुषार्थ वधतो ज जाय छे, अने स्वभाव तरफ
परिणमन ढळतुं ज जाय छे पछी तेने वधारे भव होय ज नहि. अल्पकाळमां ज स्वभावना जोरे पुर्ण पुरुषार्थ प्रगटी
जशे. आ रीते साची श्रद्धा–ज्ञानवाळाने भव होता नथी तेम ज तेमने भवनी शंका पडती नथी.
मफतनुं तोफान
भाई रे! अनंतकाळनी मोंघी जे वात कहेवाय छे, ते समजवानो उत्साह थवो जोईए. जेम मातेलो सांढ
उकरडा उथामे, ने धूळ, राख, विष्टा आदि कचरो पोताना ज माथे नाखे, राडां, राख आदिना मोटा उकरडामां
माथुं मारी फूंफाडा मारे अने माने के में केवुं जोर कर्युं! केटलुं बधुं तोड्युं! फींदयुं!
...पण सांढनुं ते तोफान मफतनुं छे, तेम संसारना काम अमे कांईक करी नाखीए, एवा अभिमाननुं
मफतनुं तोफान करी तेमां हर्ष माने छे. अज्ञान भावमां संसारना उकरडा उथामवानुं जोर करी जगत उछाळा
मारे छे, पण तेमां कांई हाथ आवतुं नथी. अंदर ज्यां माल भर्यो छे, त्यां डोकियुं करी जीव माथुं मारतो नथी.
आत्मा एकरूप ज्ञायक, ध्रुव, टंकोत्कीर्ण वस्तु छे, तेने विवेकनुं माथुं मारी जाग्रत करवो छे. अनादिकाळथी
अज्ञानमां उछाळा मार्या, हवे ते परनी ममतामां ऊंघी रहेवुं पालवशे नहि. (समयसार प्रवचन भाग–१ पानुं २प८–२प९)