Atmadharma magazine - Ank 024
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपद : २००१ : १९७ :
करावे? एक द्रव्यमां बीजुं द्रव्य प्रवेशी तो शके ज नहि, अने प्रवेश्या वगर ते शुं करे? जड अने चेतन ए बे
द्रव्य ज जुदां छे, पछी तेमां कर्ताकर्मपणुं होई ज शके नहि. बे द्रव्यो जुदा छे एम कहेवुं अने तेओ एक बीजानुं
कांई करे एम कहेवुं ए वात ज परस्पर विरूद्ध छे. जेणे बे जुदा द्रव्यो वच्चे कर्ताकर्म संबंध मान्यो तेणे बे द्रव्यने
एक मान्यां छे एटले के द्रव्यना स्वतंत्र स्वभावने जाण्यो नथी, ते अज्ञानी छे.
आत्मा अने कर्म जुदां छे, आत्मा चेतनस्वरूप वस्तु छे, कर्म जडस्वरूप छे; आत्मा अरूपी छे, कर्मो रूपी
छे. मारा आत्मामां कर्मथी कांई अवगुण थाय नहि. वर्तमान अवस्थामां क्षणिक विकार छे ते कर्मे कराव्यो नथी.
मारा त्रिकाळी द्रव्य–गुणमां विकार नथी. द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ शुद्ध अनादि अनंत छे, एक समय पुरतो विकार
मारा स्वभावमां नथी, एक समयनी संसार दशाने गौण करीने जो द्रव्यने लक्षमां लेवामां आवे तो त्रिकाळी
द्रव्य तो मुक्त स्वरूप ज छे, अने
द्रव्यना परिपूर्ण स्वरूपनो स्वीकार ते ज जैनपणुं छे. आम जाणे ते ज
यथार्थ द्रष्टिवाळो छे. दरेक द्रव्य जुदां छे अने एक द्रव्य पोताना द्रव्यथी, पोताना गुणथी अने पोतानी स्वाधीन
पर्यायथी परिपूर्ण स्वभाववाळुं छे. ए रीते द्रव्य–गुण पर्यायथी वस्तुनी स्वतंत्रता ए ज तेनी परिपूर्णता छे,
अने ए परिपूर्ण स्वरूपनी प्रतीति ते ज सम्यग्दर्शन छे. आत्मानी पर्याय स्वतंत्र छे, पर्यायनी स्वतंत्रता ते
पुरुषार्थनी स्वतंत्रता छे, आत्माना पुरुषार्थने कोई रोकी शकतुं नथी.
शुभ विकारथी अविकारी धर्म थाय नहि.
आ साचा सम्यग्दर्शननो उपाय कहेवाय छे. आ समज्या वगर सम्यग्दर्शन होय ज नहि. व्यवहार करतां
करतां परमार्थ पमाय ते वात खोटी छे. शुभराग ते पण विकार छे, ते विकार वडे धीरे धीरे दर्शन–ज्ञान पमाशे
ए वात त्रिकाळ खोटी छे. शुभराग करतां करतां धर्म थाय एटले विकारी कारणथी अविकारी कार्य प्रगटे एम
माननारने त्रिकाळी अविकारी द्रव्यनी के गुणनी श्रद्धा नथी. धर्म तो अविकारीदशा छे. ते अविकारी स्वभावनी
श्रद्धाना जोरे प्रगटे छे, पण विकारथी प्रगटतो नथी.
जेणे द्रव्यनो स्वीकार कर्यो तेने भवनी शंका होती नथी.
“हुं आत्मा छुं, आत्म द्रव्य अने गुण तो शुद्ध ज छे, पर्यायमां विकार छे ते मारो स्वभाव नथी, पर
वस्तु मने विकार करावे नहि अने एक समयनो विकार बीजा समये टळी ज जाय छे, ते मारुं स्वरूप नथी”
आवो जेणे निर्णय कर्यो तेणे पोताना ज्ञानमां द्रव्यनो स्वीकार कर्यो, तेने भवनी शंका टळी गई; केमके तेनी
श्रद्धामां एकलुं द्रव्य छे, द्रव्यमां विकार नथी. जेने भवनी शंका छे तेनी श्रद्धानुं जोर विकारमां अटक्युं छे, तेने
निर्विकार स्वरूपनी श्रद्धा नथी. जो अविकारी आत्मस्वभावनी श्रद्धा होय तो भवनी शंका कदि न होय,
भवरहित स्वरूपनी श्रद्धा थई तेनुं वीर्य निःसंदेह होय. जेनुं वीर्य हजी भवरहितनी निःसंदेहतामां काम नथी
करतुं अने भवनी शंकामां ज झूली रह्युं छे ते भवरहित थवानो पुरुषार्थ कोना जोरे करशे? संदेहमां अटकेलुं वीर्य
आगळ वधी शकशे नहि. जेने भवनी शंका छे तेने आत्मानी श्रद्धा नथी, अने जेने आत्मानी श्रद्धा छे तेने
भवनी शंका नथी.
कोई कहे के केवळी भगवाने जोया होय तेटला भव थाय ने? कांई आपणने खबर पडे? तेनो उत्तर ए
छे के–जेणे पोताना ज्ञानमां केवळी भगवाननो अने तेमना परिपूर्ण सामर्थ्यनो निर्णय कर्यो ते ज्ञानमां भवनी
शंका होय ज नहि. केवळी भगवान परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप छे अने भवरहित छे–एम जे ज्ञाने निर्णय कर्यो ते
ज्ञान पोताना भव रहितपणानो निःसंदेह निर्णय करे छे. एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने विकार रहित केवळी
भगवान जाणे छे एवुं एक पर्यायनुं परिपूर्ण सामर्थ्य छे अने मारो स्वभाव पण परमार्थे तेवो ज छे आवो
निर्णय करवामां ज्ञाननो अनंतो पुरुषार्थ आव्यो, जेना ज्ञानमां अनंत पुरुषार्थ आव्यो तेने भव होय ज नहि.
अनंत आत्माओ छे तेमां एकेक आत्मामां अनंता गुणो, तेमां एक ज्ञान गुण, ते गुणनी अनंत
अवस्थाओ, तेमांथी एक समयनी एक पूर्णअवस्था ते केवळज्ञान अने ते केवळज्ञाननुं अनंत सामर्थ्य छे आवुं
जेणे यथार्थपणे स्वीकार्युं ते जीव सम्यग्द्रष्टि होय ज अने सम्यग्द्रष्टिने भवनी शंका होय ज नहि. श्री
प्रवचनसारजीमां कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के:–