द्रव्य ज जुदां छे, पछी तेमां कर्ताकर्मपणुं होई ज शके नहि. बे द्रव्यो जुदा छे एम कहेवुं अने तेओ एक बीजानुं
कांई करे एम कहेवुं ए वात ज परस्पर विरूद्ध छे. जेणे बे जुदा द्रव्यो वच्चे कर्ताकर्म संबंध मान्यो तेणे बे द्रव्यने
एक मान्यां छे एटले के द्रव्यना स्वतंत्र स्वभावने जाण्यो नथी, ते अज्ञानी छे.
मारा त्रिकाळी द्रव्य–गुणमां विकार नथी. द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ शुद्ध अनादि अनंत छे, एक समय पुरतो विकार
मारा स्वभावमां नथी, एक समयनी संसार दशाने गौण करीने जो द्रव्यने लक्षमां लेवामां आवे तो त्रिकाळी
द्रव्य तो मुक्त स्वरूप ज छे, अने
पर्यायथी परिपूर्ण स्वभाववाळुं छे. ए रीते द्रव्य–गुण पर्यायथी वस्तुनी स्वतंत्रता ए ज तेनी परिपूर्णता छे,
अने ए परिपूर्ण स्वरूपनी प्रतीति ते ज सम्यग्दर्शन छे. आत्मानी पर्याय स्वतंत्र छे, पर्यायनी स्वतंत्रता ते
पुरुषार्थनी स्वतंत्रता छे, आत्माना पुरुषार्थने कोई रोकी शकतुं नथी.
ए वात त्रिकाळ खोटी छे. शुभराग करतां करतां धर्म थाय एटले विकारी कारणथी अविकारी कार्य प्रगटे एम
माननारने त्रिकाळी अविकारी द्रव्यनी के गुणनी श्रद्धा नथी. धर्म तो अविकारीदशा छे. ते अविकारी स्वभावनी
श्रद्धाना जोरे प्रगटे छे, पण विकारथी प्रगटतो नथी.
आवो जेणे निर्णय कर्यो तेणे पोताना ज्ञानमां द्रव्यनो स्वीकार कर्यो, तेने भवनी शंका टळी गई; केमके तेनी
श्रद्धामां एकलुं द्रव्य छे, द्रव्यमां विकार नथी. जेने भवनी शंका छे तेनी श्रद्धानुं जोर विकारमां अटक्युं छे, तेने
निर्विकार स्वरूपनी श्रद्धा नथी. जो अविकारी आत्मस्वभावनी श्रद्धा होय तो भवनी शंका कदि न होय,
भवरहित स्वरूपनी श्रद्धा थई तेनुं वीर्य निःसंदेह होय. जेनुं वीर्य हजी भवरहितनी निःसंदेहतामां काम नथी
करतुं अने भवनी शंकामां ज झूली रह्युं छे ते भवरहित थवानो पुरुषार्थ कोना जोरे करशे? संदेहमां अटकेलुं वीर्य
आगळ वधी शकशे नहि. जेने भवनी शंका छे तेने आत्मानी श्रद्धा नथी, अने जेने आत्मानी श्रद्धा छे तेने
भवनी शंका नथी.
शंका होय ज नहि. केवळी भगवान परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप छे अने भवरहित छे–एम जे ज्ञाने निर्णय कर्यो ते
ज्ञान पोताना भव रहितपणानो निःसंदेह निर्णय करे छे. एक समयमां त्रणकाळ त्रणलोकने विकार रहित केवळी
भगवान जाणे छे एवुं एक पर्यायनुं परिपूर्ण सामर्थ्य छे अने मारो स्वभाव पण परमार्थे तेवो ज छे आवो
निर्णय करवामां ज्ञाननो अनंतो पुरुषार्थ आव्यो, जेना ज्ञानमां अनंत पुरुषार्थ आव्यो तेने भव होय ज नहि.
जेणे यथार्थपणे स्वीकार्युं ते जीव सम्यग्द्रष्टि होय ज अने सम्यग्द्रष्टिने भवनी शंका होय ज नहि. श्री
प्रवचनसारजीमां कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के:–