: १९६ : आत्मधर्म : २४
मिथ्यात्वनुं जोर
पुण्यथी मारो ज्ञानस्वभाव जुदो छे, अने देहादि जड पदार्थनी क्रियाना आधारे मारो धर्म नथी आवा साचा
भान वगर, जीव अनंतवार जैननो त्यागी साधु थयो, अने अनेक प्रकारे शुभकरणी करी परंतु मिथ्यात्व अने
अज्ञानरूपी पाडो तेना व्रतना बधा पूळा खाई गयो–अर्थात् मिथ्यात्वनुं एवुं महा पाप छे के तेना सद्भावमां जीव
गमे तेवी शुभ करणी करे तोपण तेने किंचित् आत्म लाभ थतो नथी अने ते अनंत संसारमां रखडे छे.
जीव गमे तेटला शुभभाव करे, त्याग करे, महाव्रत पाळे, उपवास करे तो पण ते सर्वथी तेनुं मिथ्यात्व
टळी शकतुं नथी. केमके ते बधा पुण्य करतां एक मिथ्यात्वनुं पाप वधारे छे. मिथ्यात्व टाळवानो उपाय तो एक
मात्र साची समजण ज छे. जेम अंधकार टाळवा माटे तो प्रकाश ज जोईए, तेम मिथ्यात्व टाळवा माटे साची
समजण ज जोईए. जेने आत्मस्वभावनी समजण नथी अने शुभरागमां धर्म मानीने जे भक्ति पूजा करे छे ते
वीतरागनी भक्ति–पूजा करतो नथी पण रागनी भक्ति करे छे, अने मिथ्यात्वनुं पोषण करे छे.
मिथ्यात्व ए ज पाप
श्री समयसारजीमां तो त्यागी मुनि होय पण जो मिथ्याद्रष्टि होय तो तेने पापी ज कह्या छे. कलश–१३७
अर्थ:– “आ हुं पोते सम्यग्द्रष्टि छुं मने कदी बंध थतो नथी (कारण के शास्त्रमां सम्यग्द्रष्टिने बंध कह्यो नथी) ”
एम मानीने जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित (रोमांचित) थयुं छे एवा रागी जीवो (–पर द्रव्य प्रत्ये
रागद्वेष मोह भाववाळा जीवो–) भले महाव्रतादिनुं आचरण करो तथा समितिनी उत्कृष्टता (वचन, विहार
अने आहारनी क्रियामां जतनाथी प्रवर्तवुं ते) नुं आलंबन करो तो पण तेओ पापी (मिथ्याद्रष्टि) ज छे, कारण
के आत्मा अने अनात्माना ज्ञानथी रहित होवाथी तेओ सम्यक्त्व रहित छे.
भावार्थ:– पर द्रव्य प्रत्ये राग होवा छतां जे जीव ‘हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध थतो नथी’ एम माने छे
तेने सम्यक्त्व केवुं? ते व्रत–समिति पाळे तो पण स्व–परनुं ज्ञान नहि होवाथी ते पापी ज छे...अहीं कोई पुछे
के ‘व्रत–समिति तो शुभ कार्य छे, तो पछी व्रत–समिति पाळतां छतां ते जीवने पापी केम कह्यो? ’ तेनुं
समाधान–सिद्धांतमां पाप मिथ्यात्वने ज कह्युं छे; ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ–अशुभ सर्व क्रियाने
अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे. (जुओ समयसार गुजराती. पा. –२प६)
अनंत काळथी संसार परिभ्रमण करतां जैन संप्रदायमां आवीने अनेक प्रकारे कुदेवादिनी मान्यताओनो
पण जीवे त्याग कर्यो छतां शुभ क्रियामां धर्म मानीने अटकी गयो अने अनादिनुं अगृहीत मिथ्यात्व टाळ्युं नहि.
शुभ क्रियाथी पार पोताना आत्म स्वभावने जाण्यो नहि तेथी जीवनुं संसार परिभ्रमण अटक्युं नहि.
मिथ्यात्व एटले शुं? आत्मा त्रिकाळ वस्तु छे, तेनामां ज्ञान वगेरे अनंत गुणो छे अने ते गुणनी समये
समये अवस्था थाय छे, एक समयनी अवस्थामां पर लक्षे जे विकार थाय ते विकारने पोतानो स्वभाव मानवो
अने आखा त्रिकाळ शुद्ध स्वभावने न मानवो एवी जे ऊंधी मान्यता ते ज मिथ्यात्व छे. ए मिथ्यात्व ज
संसारनुं कारण छे.
आ जैनधर्म छे. साचा जैनधर्मनुं स्वरूप जीव समजे तो तेनी मुक्ति थया वगर रहे नहि. परंतु साची
समजण न करे तो, मात्र जैन संप्रदायमां आववाथी जीवनुं कल्याण थतुं नथी. जैन तो भगवान स्वरूप छे,
वीतरागता अने सर्वज्ञता ते जैन धर्म छे, चिदानंद मूर्ति स्वतंत्र आत्मस्वभाव ते जैन धर्म छे, एवा
आत्मस्वभावने जीव न ओळखे तो जीवनुं मिथ्यात्व टळे नहि, अने यथार्थ जैनपणुं थाय नहि.
वस्तु स्वभावनी मर्यादा
दरेके दरेक आत्मा अने दरेक रजकण स्वतंत्र वस्तुओ छे, एक वस्तु बीजी वस्तुनुं कांई करवा समर्थ
नथी–ए जैननो सिद्धांत एटले के वस्तुनुं स्वरूप छे. भगवाननी वाणी सांभळवाथी ज्ञान थयुं एम खरेखर
माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, केमके वाणी परवस्तु छे तेनाथी आत्मानुं ज्ञान थाय नहि. ज्ञान तो पोताना
स्वभावमांथी प्रगट्युं छे, बहारथी परवस्तुने कारणे प्रगट्युं नथी. आत्मा स्वतंत्र तत्त्व छे. राग–द्वेष करे ते
पण आत्मा ज करे छे, कोई कर्म आत्माने रागद्वेष करावे ए वात खोटी छे. कर्म तो जड अचेतन वस्तु छे. जड
कर्म आत्माने कई रीते रागद्वेष करावे? शुं जड वस्तुनी अवस्था चेतन द्रव्यमां पेसी जईने चेतनने विकार