भाद्रपद : २००१ : १९५ :
जीवना भावनी बीजा जीव उपर असर थई शके नहि निश्चयथी आत्मा परनी दया न पाळी शके पण
व्यवहारथी परनी दया पाळी शके–एवो भगवानना अनेकान्तवादनो अर्थ नथी, परंतु एक जीव पर जीवनी
दया के हिंसा व्यवहारे के निश्चये कोई रीते करी शके नहि, पण पोताना भाव करी शके ए अनेकान्त छे. पोताने
शुभभाव होय अने सामो जीव तेना आयुष्यना कारणे बचे त्यां ‘में दया पाळी’ एम, जीवना भावनी
ओळखाण कराववा माटे, बोलवानी रीत छे, परंतु हुं परने बचावी शकुं एम माने तो मिथ्यात्वनुं महा पाप छे.
श्रद्धाथी धर्मीपणुं छे–त्यागथी धर्मीपणुं नथी.
कोई द्रव्य बीजा कोई द्रव्यनी अवस्थाने करे एम मानवुं ते जैन दर्शनथी दूर छे. ज्यां आवी साची श्रद्धा
नथी त्यां साचां व्रत–तप होय ज नहि. सम्यग्दर्शन शुं अने आत्मा शुं ते जाण्या विना व्रत–तप क्यां करशे?
साची श्रद्धा ए ज धर्मनुं मूळ छे. ज्यां साची श्रद्धा नथी त्यां धर्मनो अंश पण नथी.
श्री कुंदकुंदाचार्य भगवान अने सर्वे तीर्थंकर भगवंतोना हृदय एम पोकारे छे के, आत्मा परद्रव्यनुं करी
शके एम मानवुं ते सम्यग्दर्शन नथी, परंतु ‘परभावस्य कर्ता आत्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्’ एटले के आत्मा
परद्रव्यनी अवस्थानो कर्ता छे एवी मान्यता ते व्यवहारी मूढ जीवोनो मोह छे, अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे.
व्यवहारथी पण जीव परनुं करी शकतो नथी. व्यवहारथी जीव शरीरने हलावे चलावे एम नथी. शरीर तो जड
वस्तु छे, अने हुं आत्मा तो चेतनमय छुं, शरीर माराथी जुदी वस्तु छे तेनो हुं जाणनार छुं पण करनार नथी.
आत्म स्वभावनुं भान थतां अनंत पर पदार्थोनुं धणीपणुं छूटी गयुं. आत्माना भान पछी बाह्य त्याग होय के
नहि, परंतु ते जीव धर्मी छे. जेम श्रेणिक राजाने आत्मभान हतुं अने बहारमां राज–पाट तथा अनेक
राणीओना संयोगमां देखाता हता, छतां अंतरथी उदास हता, तेमने साची आत्मश्रद्धानी भूमिका प्रगट थया
पछी धर्म राग थतां तीर्थंकरगोत्र बांध्युं अने तेओ आवती चोवीशीमां पहेला तीर्थंकर थशे. आत्मानी श्रद्धा–
ज्ञान वगर कोई बाह्य त्यागी थाय अने “एक परमाणुनो फेरफार पण माराथी थाय” एम जो माने तो, जैननो
साधु कहेवातो होय तो पण ते मिथ्याद्रष्टि छे, अज्ञानी छे, जैन नथी. शरीरने हुं चलावी शकुं एम मान्युं तेणे
जीव अने शरीरने एक मान्या, ते जैन मतनी बहार छे.
जैनदर्शननी सिद्धि
जैनमत ए तो वीतराग मार्ग छे, ए कोई वाडो नथी, कल्पना नथी. एकेक आत्मा पोताना स्वभावथी परिपूर्ण
छे, परिपूर्ण आत्मस्वभाव ते ज जैनदर्शन छे, ते स्वभावनी श्रद्धा करवी ते धर्म छे. जैनदर्शनयुक्तिथी, आगमथी अने
स्वानुभवथी सिद्ध छे, परंतु शरीरनी कोई क्रियाथी, बाह्य त्यागथी के वेशथी जैनदर्शननी सिद्धि नथी.
पुण्यमां सुख माने तो मिथ्याद्रष्टि ज छे
शरीरनी क्रियामां के पैसा वगेरेमां जे जीव सुख माने छे ते तो मिथ्याद्रष्टि ज छे. पैसा वगेरे तो पूर्वनां पुण्यनुं
फळ छे, हवे ज्यारे पुर्वना पुण्यना फळमां आत्मानुं सुख नथी त्यारे वर्तमान पुण्यभावमां आत्मानुं सुख केम होय?
पुण्यनुं फळ जे जड वस्तुओ तेमां तो सुख नथी परंतु वर्तमान पुण्यभाव थाय ते विकार छे तेमां जो आत्मानुं सुख
माने तो पण ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. पुण्य–पाप बंने विकार छे, विकारमां आत्मानुं सुख नथी.
शुभमां धर्म मानवो ते महान पाप छे.
भगवाननी भक्तिनो शुभराग थाय ते राग निश्चयथी के व्यवहारथी एके रीते धर्म नथी. निश्चय धर्म
तो आत्माना निर्विकार स्वभावने ओळखीने स्थिर थई जवुं ते छे, परंतु ज्यारे संपूर्ण स्थिरता न थई शके
त्यारे कुदेवादि तरफना अशुभ पाप भावथी बचवा भक्ति आदिनो शुभराग आवे छे अने ज्ञानीने
अभिप्रायमां ते रागनो नकार वर्ते छे तेथी उपचारथी व्यवहार धर्म कह्यो छे. परंतु जेणे ते रागमां ज धर्म
मानी लीधो छे अने रागने ज आदरणीय मान्यो छे तेने धर्म तो नथी परंतु पोताना वीतराग स्वभावना
अनादररूप मिथ्यात्वनुं अनंतुपाप क्षणे क्षणे तेने ऊंधी मान्यताने लीधे थाय छे. रागने पोतानो धर्म मानवो ते
पोताना वीतराग स्वरूपनो अनादर छे, ते महान पाप छे. परनी कांई क्रिया हुं करी शकुं के पुण्यथी मारा
स्वभावने लाभ थाय एम माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, ते क्रियाकांड करीने अने त्याग करीने मरी जाय तो पण साधु
नथी, त्यागी नथी, श्रावक नथी, जैन नथी.