Atmadharma magazine - Ank 024
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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पुण्य–पाप विकार छे अने विकार छोडवा जेवा छे

पुण्य–पाप ते आत्माना चारित्र गुणनी विकारी अवस्था छे. शरीरनी क्रियाथी पुण्य–पाप नथी, पण
आत्माना विकारी भावथी पुण्य–पाप छे. शुभ भावथी पुण्य अने अशुभ भावथी पाप थाय छे एम न मानतां
जे शरीरादि परवस्तुनी क्रियाथी पुण्य–पाप माने छे तेने तो नव तत्त्वना स्वरूपनी ज खबर नथी, केमके तेणे
जीवनी विकारी पर्यायने जडनी मानी छे. पुण्य–पाप शरीरादि पर द्रव्यनी कोई क्रियाथी नहि पण जीवना
पोताना विकारी भावथी थाय छे––आटलुं प्रथम जाण्या पछी एम नक्की करवुं जोईए के ते विकारी भावो
आस्रव छे, बंधनुं कारण छे, तेनाथी संवर–निर्जरारूप धर्म थतो नथी. धर्म तो पुण्य–पापना विकारथी पार
आत्मानो अविकारी स्वभाव छे. ते आत्माना अविकारी स्वभावना भान पछी, पूर्ण वीतराग–अविकार न
थाय त्यां वच्चे चारित्रना दोषथी शुभभावरूप विकार आवे खरो, पण धर्मनुं स्वरूप जाणनार ज्ञानीने ते ज
वखते ते विकारनो नकार होय छे. जो द्रष्टिमां ते ज वखते ते नकार न होय अर्थात् ते विकार भावने छोडवा
जेवा न माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. सम्यग्दर्शनद्वारा अविकारी स्वभावनी ओळखाण थया पछी जे व्रत,
तपादिना शुभ विकल्प थाय ते पण धर्म नथी, हेय छे. पूर्ण वीतराग थई गया पछी तो कांई छोडवापणुं रहेतुं ज
नथी; पण वीतराग थया पहेलांं, शरूआतथी ज श्रद्धामां सर्व प्रकारना विकार–भावोने तद्न छोडया वगर कदी
वीतरागतानो अंशपण आवे ज नहि.
“आ काळे संपूर्ण वीतरागता अने साक्षात् मोक्ष नथी, माटे शुभ विकारने छोडवा लायक कही शकाय
नहि केमके वीतरागता न होय त्यां राग तो होय ज, माटे अत्यारे विकारने–पुण्यने हेय कहेवाय नहि” आम जे
कहे छे ते यथार्थवादी नथी. संपूर्ण वीतरागता नथी माटे विकार करवो एनो अर्थ तो एवो थयो के हंसना
अभावमां कागडाने हंस गणवो. पण एम बने नहि; भले, आ काळे संपूर्ण वीतरागता–मोक्ष नथी परंतु
मोक्षनुं स्वरूप शुं छे, तेनो उपाय शुं छे–ए बधानी यथार्थ श्रद्धा तो आ काळे पण जरूर थई शके छे.
मोक्ष करवा माटे शुभ विकारने पण छोडवा योग्य मानवा ज जोईए. स्थिरतारूप संपूर्ण वीतरागता न
थाय तो श्रद्धामां तो वीतराग भाव ज धर्म छे एम मानवुं. परंतु ‘संपूर्ण वीतरागता नथी थती माटे श्रद्धामां
विकार करवा जेवो मानवो’ एटले के गरीबोने साकरपान न मळे तो झेर पीवुं–एवो उपदेश तो जैनमां केम
होय? एवो विपरीत उपदेश तो जैनमां होय ज नहि. हा, एटलुं खरूं के जो गरीबोने पूरती साकर न मळे तो
जेटली लई शकाय तेटली पण साकर ल्ये, परंतु कांई साकरने बदले झेर तो गरीब पण न ज ल्ये, तेम आ काळे
पुरुषार्थनी नबळाईमां स्थिरतारूप पूर्ण धर्म न थाय तो पण श्रद्धारूप धर्म तो जरूर थई शके छे; पूर्ण धर्मनी
प्रगटताना अभावमां पण अधर्मनुं सेवन करवानुं तो केम कहेवाय? एम तो न ज कहेवाय. हा, एटलुं खरूं छे
के पूर्ण धर्म न थाय तो त्यां पूर्णनी भावना राखीने जेटलो थाय तेटलो पण धर्म करे अने अधर्मने हेय जाणे...
अशुभभाव तो हेय छे ज, अने ज्यां ज्यां शुभभावनुं हेयपणुं कहेवाय छे त्यां त्यां धर्म द्रष्टिए वात छे.
धर्म एटले आत्मानो अविकारी स्वभाव, तेनी द्रष्टिए पुण्य (ते विकार होवाथी) हेय छे. परंतु पापनी
अपेक्षाए पुण्य हेय नथी केमके पापमां तीव्र विकार छे, पुण्यमां मंद विकार छे. पापथी बचवा माटे समकिति
जीवोने पण शुभभाव ज्यारे शुद्धस्वरूपमां न ठरी शके त्यारे, थाय छे, परंतु तेमां तेओ धर्म मानता नथी;
ऊलटुं तेमने ते शुभ विकार छोडीने अविकारी स्वरूपनी निरंतर भावना होय छे. तेथी नक्की थाय छे के
शुभभाव करतां करतां धर्म थाय ज नहि. शुभभाव ज्ञानी–अज्ञानी बंनेने होय, पण ज्ञानी तेमां धर्म न माने,
अज्ञानी तेमां धर्म माने छे–आ ज महान अंतर छे, आ ज द्रष्टिनो फेर छे.
‘शुभ भाव हेय छे’ ए कथननो एवो अर्थ नथी के शुभभावथी छूटीने अशुभभावमां जोडावुं, पण
अशुभ शुभ बंनेथी छूटीने स्वभावमां एकाग्रता करवा माटे ते कथन छे. मात्र पापथी बचवा माटे पुण्य भाव छे
छतां तेने बदले पुण्य भावथी धर्म मानीने तेने आदरणीय माने तो तेणे पुण्यना अने धर्मना वास्तविक स्वरूपने
जाण्युं नथी. ज्यां पुण्य अने धर्मना वास्तविक स्वरूपनुं पण भान न होय त्यां धर्म तो थाय ज क्यांथी?