Atmadharma magazine - Ank 024
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA With the permisson of Baroda Govt. Regd. No. B. 4787
Order No. 30-24 date 31-10-44
श्री समयसार शास्त्र अत्यंत अज्ञानीओनुं अज्ञान टाळवा माटे रचायेलुं छे दर्शन चोथुं
(आ लेखनी १ थी ४२ सुधीनी कलमो अंक १७, १८, १९ मां आवी गई छे.) रा. मा. दो.
४३. गाथा २६ मां अज्ञानी जीवे कह्युं हतुं के–भगवान अने आचार्यनी स्तुतिना वचनो कहेवामां आवे
छे ते उपरथी तो देह अने जीव एक छे–एम ते माने छे; तेना प्रश्नना उत्तरमां आचार्य भगवाने तेने करूणाथी
नय विभागथी व्यवहार अने निश्चय स्तुतिनुं स्वरूप गाथा २७ थी गाथा ३३ सुधीमां समजाव्युं. आ स्वरूप
समजतां शिष्यनां अज्ञान पडल दूर थयां अने ते ज्ञानी थयो. तेणे पोताना स्वरूपने जाण्युं; अने पोताना
स्वरूपमां स्थिर थवानी जिज्ञासा थतां प्रत्याख्याननुं स्वरूप गुरुमुखे सांभळवा माटे प्रत्याख्यान संबंधे प्रश्न
कर्यो के आ आत्मारामने अन्य द्रव्योनुं प्रत्याख्यान (त्यागवुं) ते शुं छे? तेने आचार्य भगवाने जवाब आप्यो
के–प्रत्याख्यान करवा योग्य जे परभाव तेनो त्याग करवो एम जे कहेवामां आवे छे ते खरेखर तो
ज्ञानस्वभावथी पोते न छूटवुं–पोतामां स्थिर रहेवुं ते छे; माटे प्रत्याख्यान ज्ञान ज छे एम अनुभव करवो.
(गाथा ३प)
४४. आ गाथामां प्रत्याख्याननुं स्वरूप द्रढपणे समजी शकाय ते माटे द्रष्टांत–अने तेनो सिद्धांत कहे छे:–
द्रष्टांत–जे सज्जन कोई पण पारकी वस्तु पोतानी पासे आवी गयानुं जाणे के तुरत ज तेने छोडी दीए छे.
तेम–
सिद्धांत–तमाम प्रकारना विकारी भावो पोतानुं स्वरूप नथी एम जाणनारा ज्ञानीओ तेने परित्यजे छे.
४प. सम्यग्ज्ञान प्राप्त करी परभावोनो त्याग करवो ते खरूं प्रत्याख्यान छे एम अहीं आचार्य भगवाने
समजाव्युं छे. (गाथा ३६–३७)
४६. प्रत्याख्याननुं स्वरूप वधारे द्रढ थवा माटे आ बे गाथाओ कहेवामां आवी छे.
गाथा ३६ मां कह्युं के–मोह मारो कांई पण संबंधी नथी. एक उपयोग छे ते ज हुं छुं एवुं जाणी तेमां
टक्यो ते भावकभाव (रागादि) थी पोतानो स्वाद जुदो छे एवुं भेदज्ञान थयुं.
गाथा ३७ मां कह्युं के–शरीर–परजीवो–अने बीजा द्रव्यो मारां कांई पण लागतां वळगतां नथी, एक
उपयोग छे ते ज हुं छुं एवुं जाणी पोताना ज्ञानमां टक्यो ते ज्ञेयभावनुं भेदज्ञान थयुं. तेने ज प्रत्याख्यान
कहेवामां आवे छे–एम कही साचा प्रत्याख्याननो विषय पूरो कर्यो.
(गाथा ३८)
४७. जे पूर्वे अत्यंत अज्ञानी हतो ते आ शास्त्रनी पहेलेथी ३३ गाथाओमां आचार्यदेवे आपेलो उपदेश
सांभळी सम्यग्ज्ञानी थयो; पछी पोताना स्वरूपमां स्थिर रहेवानी भावना करी, तेथी तेने गुरु भगवाने तेनुं
स्वरूप गाथा ३४ थी ३७ सुधीमां संभळाव्युं. तेवा जीवने–एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप परिणत
थयेल आत्माने स्वरूपनुं केवुं लक्ष होय छे ते आ गाथामां कही जीव अधिकार पूरो करवामां आव्यो छे.
४८. जीव अधिकारनी आ छेल्ली गाथा छे, तेमां आचार्य भगवान कहे छे के–ए (प्रत्याख्यान करनार)
जीव एम जाणे छे के–हुं खरेखर एक छुं, शुद्ध छुं–दर्शनज्ञानमय छुं, सदा अरूपी छुं. कांई पण अन्य द्रव्य परमाणु
मात्र–पुण्य पाप–रागद्वेष मारां नथी.
४९. आ गाथामां जीवनुं अनेकान्त स्वरूप कह्युं छे–एटले के जीव शुं छे अने शुं नथी ते समजाव्युं छे.
जीव शुं छे?
(आस्तिस्वरूप)
(१) पोते एक छे. (२) शुद्ध छे. (३) ज्ञान दर्शनमय छे (४) सदा अरूपी छे.
जीव शुं नथी?
(नास्तिस्वरूप)
कांई पण अन्य द्रव्य परमाणु मात्र–एटले के पुण्य–पापनो–रागनो के द्वेषनो के परवस्तुनो एक नानामां
नानो भाग पण जीव नथी.
प०. जे पोतानुं स्वरूप जाणे ते जीव ज हुं परद्रव्यनुं कांई कदी करी शकुं नहीं अने आत्मामां थतां विकारी
भाव ते आत्मानुं स्वरूप नथी एम समजी, तेनुं स्वामीत्व प्रथम मान्यतामांथी टाळी शके छे अने पछी क्रमेक्रमे
पोतामां टकी ज्ञान–प्रत्याख्यान स्वरूप पोते थई जाय छे. ते सिवाय बीजी कोई रीते धर्म थाय नहीं. एम अहीं
अनेकान्त द्वारा वस्तु स्वरूप आचार्यदेवे समजावी आ विषय पूरो कर्यो छे.
मुद्रक–प्रकाशक:– श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी
शिष्ट साहित्य मुद्रणालय दासकुंज, मोटा आंकडिया, काठियावाड ता. २९–८–४५