: २ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
(१) आत्मधर्म मासिकनो २५
मो अंक आसो सुद बीजे प्रगट करी नवुं
वर्ष–त्रीजुं वर्ष आसो मासथी ज शरू
करवानी गणतरी हती परंतु भाईश्री
हरिलाल अमृतलाल महेता के जेओ
‘आत्मधर्म’नुं लखाण तैयार करे छे
तेमनी नादुरस्त तबियतने करणे २५ मां
अंकनुं लखाण सवेळा तैयार थई शक्युं
नहि जेथी आसो सुद बीजे अंक प्रगट
थयो नथी. एथी हवे त्रीजा वर्षनो
पहेलो–२५ मो अंक कारतक महिनामां ज
प्रगट थाय छे. अने नवा वर्षनी शरूआत
पण कारतकथी ज थाय छे एम समजवुं.
(२) ‘आत्मधर्म’ना लवाजमनुं
धोरण बारमहिनाना हिसाबे नहि
राखता १२ अंक साथे राखेलुं छे. एथी
दरेक ग्राहकोए पोतानो अंक नंबरनी
संख्या प्रमाणे नियमित मळे छे के नहि
तेनुं ज लक्ष राखवुं के जेवी फलाणा
महिनानो अंक नथी मळ्यो एवी फरियाद
अने फिकर करवानुं न रहे.
पचीशमो अंक–भगवानश्री
महावीर निर्वाण महोत्सव अंक–
कारतक सुद बीजे सौ ग्राहकोने मळी
जाय एवी रीते प्रगट करवानुं
जणाव्या छतां ते प्रमाणे प्रगट नथी
थई शक्यो ए बदल आप सौनी क्षमा
चाहुं छुं– प्र.
(३) रूपिया पांच लवाजम
भरीने गई साले थयेला तमाम
ग्राहकोने, स्व. पारेख श्री लीलाधर
डाह्याभाईना स्मरणार्थे आपेलुं भेट
पुस्तक ‘अमृत झरणां’ हाथोहाथ
सथवारे, अथवा तो बुधपोस्टथी
मोकलावाई गयुं छे अने हवे तेमने २५
थी ३६ सुधीना अंको नियमित मळशे.
(४) दरेक ग्राहकोए पोतानो
ग्राहक नंबर नोंधी राखी ज्यारे कार्यालय
साथे पत्रव्यवहार करवो पडे त्यारे ते
ग्राहक नंबर अवश्य लखवो.
(५) कोईपण प्रकारनो
‘आत्मधर्म’ अंगेनो पत्रव्यवहार कोई
व्यक्तिना नामथी नहि करतां नीचे
प्रमाणे करवो. व्यवस्थापक, प्रकाशक,
संचालक के संपादक (जेने उद्देेशीने लखवुं
होय ते एक) आत्मधर्म
आत्मधर्म कार्यालय
सुवर्णपुरी–सोनगढ (काठियावाड)
सुख...समजसे... पावे
[राग–शुं कहुं कथनी मारी राज]
आ अंकमां अन्यत्र आपेल श्रीसमयसारजीनुं भादरवा सुद २ नुं
व्याख्यान वांचीने तेना भाव उपरथी आ काव्य बनाववामां आव्युं छे.
सुखकी ईच्छा सबी जीवोको, बाहीर फांफां मारे
ढुंढत ढुंढत मंदिर देरासर, कोई पोथी को फाडे
राज...सुख समजसे पावे. १
कस्तुरी काजे हीरण ढुंढत है, चौदीश फांफां मारे
दोडत दोडत थकत भयो तब, आखीर मृत्युको पावे....राज....सुख २
अज्ञानीका यही हाल है, सुख बाहीरसे चाहै
पराश्रयसे उपाय करत है, सुख कच्छु नव पावे....राज....सुख ३
बोत पुण्यसे सुख मिलेंगे, बाहीर धर्म मनावे
दया, दान, वृत, तप, शीयळसे, अपना सुख नव पावे....राज....सुख ४
आंबिल ओळी जात्राए जावे, मौनवृत पडिमा धरावे
तप करी देह जीर्ण करत है, तोबी सुख नव पावे....राज....सुख ५
सद्गुरुदेवकी कृपा जब होवे, शाश्वत सुख दीलादे
सुखके काजे पांव पडत है, अरज करत नव देवे....राज....सुख ६
विकारसे कबी सुख नव होवे, मिथ्यात्व बुध्धि मनावे
आनंदकंद प्रगट दशा कर, अपने स्वरूप नव जाने....राज....सुख ७
बहिर द्रष्टि सुख नव होवे, सुखस्वभावसे भरीओ
अंतर द्रष्टि ज्ञान भयो तब, अनंत गुणसे भरीओ....राज....सुख ८
सुख स्वरूप शाश्वत स्वाधीन है, स्वयमेव सुखरूप होवे
सुना नहि कबी सब जीवोने, बाहीर फांफां मारे....राज....सुख ९
‘सुवर्णपुरीकासंत’ सुनावे, सुख सागरसे भरीओ
स्वाधीन द्रष्टिसेदेख भयो तब, सुख स्वरूपसे बनीओ.....राज....सुख १०
वीरसंवत चोवीसो एकोतेर, शनिश्चर दीन बतायो
सुकल पक्ष भाद्रव मासको, बीजको दिव्यध्वनि आयो...राज...सुख ११
५०००–पांचहजार
आत्मधर्मना तमाम ग्राहकोने–वांचकोने तथा शुभेच्छकोने–सादर
विनति छे के आ वर्षे आत्मधर्म मासिकनी ग्राहक संख्या पांच हजार
थाय एवी मारी भावना छे. तेमां गुजराती आत्मधर्म ना त्रण हजार
ग्राहको करवाना रहे छे. बे हजार ग्राहको हिंदी आत्मधर्मना करवानो
प्रयत्न थशे.
आजे गुजराती आत्मधर्मना १५०० ग्राहको छे एटले जो दरेक
ग्राहक मात्र एकज नवा ग्राहकनुं नाम मोकलावी आपे तो एक ज
दिवसे १५०० नवा ग्राहको वधी ३००० ग्राहको थई जाय. आशा छे के
आत्मधर्मना ग्राहको पोताना स्वजन, स्नेही के संबंधीमांथी ओछामां
ओछा एक ग्राहक नुं नाम अने लवाजम मोकलावी आपी आत्मधर्मनो
बहोळो फेलावो करवानुं पुण्य कार्य जरूर करशे ज.
प्रकाशक