Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARAM With the permissdon of the Baroda Govt. Regd No. B. 4787
order No. 30/24 date 31-10-44
उत्तर:–त्यां निश्चय सम्यकत्वनी व्याख्या छे; द्रव्य–
कर्मना उपशम, क्षय वगेरेना निमित्तथी सम्यकत्व पेदा थाय
छे–एम निश्चय सम्यक्त्वनी व्याख्या करवी ते व्यवहारनयथी
छे केमके ते व्याख्या परद्रव्यनी अपेक्षाए कही छे. पोताना
पुरुषार्थथी निश्चय सम्यक्त्व प्रगटे छे ए निश्चय नयनुं कथन
छे. हिंदीमां जे ‘व्यवहार सम्यकत्व’ एवो अर्थ भर्यो छे ते
मूळ गाथा साथे बंध बेसतो नथी.
(१०)
व्यवहार सम्यग्दर्शननी व्याख्या
(१) पांचअस्तिकाय, छ द्रव्यो तथा जीव–पुद्गलना
संयोग परिणामोथी उत्पन्न आस्रव, बंध, पुण्य, पाप,
संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए रीते नव पदार्थोना विकल्परूप
व्यवहार सम्यक्त्व.
[पंचास्तिकाय, जयसेनाचार्यकृत टीका गाथा–१०७ पा. १७०]
(२) जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा
अने मोक्ष ए सात तत्त्वो जेम छे तेम यथार्थ अटळ श्रद्धा
करवी ते व्यवहार सम्यग्दर्शन छे.
[छहढाळा–ढाळ–३ गाथा–३]
(३) प्रश्न:–व्यवहार सम्यग्दर्शन कया जीवने अने
क्यारे होय छे? तथा निश्चय सम्यग्दर्शन नहि होवा छतां
तेने व्यवहार सम्यग्दर्शन शा माटे कहेवामां आवे छे?
उत्तर:–प्रथम निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट थाय त्यारे
विकल्परूप व्यवहार सम्यग्दर्शननो अभाव थाय छे. तेथी ते
[व्यवहार सम्यग्दर्शन] खरेखर निश्चयसम्यग्दर्शननुं साधक
नथी, तो पण तेने भूत नैगमनयथी साधक कहेवामां आवे
छे, एटले के पूर्वे जे व्यवहार सम्यग्दर्शन हतुं ते निश्चय
सम्यग्दर्शन प्रगट थती वखते अभावरूप थाय छे, तेथी
ज्यारे तेनो अभाव थाय छे त्यारे पूर्वनी विकल्प सहितनी
श्रद्धाने व्यवहार सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे.
[परमात्म
प्रकाश–गाथा–१४० पानुं–१४३ आवृत्ति पहेली संस्कृत टीका]
आ रीते व्यवहार सम्यग्दर्शन ते निश्चय सम्यग्दर्शननुं कारण
नथी, पण तेनो अभाव ते कारण छे.
(११)
व्यवहाराभास सम्यग्दर्शनने कोईवार व्यवहार
सम्यग्दर्शन पण कहे छे.
द्रव्यलींगी मुनिने आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान,
तत्त्वार्थश्रद्धान अने संयमभावनी एकता पण कार्यकारी नथी.
[जुओ प्रवचनसार अध्याय ३ गाथा–३९ तथा मोक्षमार्ग
प्रकाशक पानुं २३७–२३८–२४१] अहीं जे ‘तत्त्वार्थ श्रध्धान’
शब्द वापर्यो छे, ते भाव निक्षेपे नथी पण नाम निक्षेपे ते
कथन छे.
‘जेने स्व–परनुं यथार्थ श्रद्धान नथी पण वीतरागे
कहेला देव–गुरु अने धर्म ए त्रणेने माने छे तथा अन्यमतमां
कहेला देवादि तथा तत्त्वादिने माने नहि–तो एवा केवळ
व्यवहार सम्यकत्ववडे ते निश्चय सम्यकत्वी नाम पामे नहि.’
[मोक्षमार्ग प्रकाशक पनुं. ३४३.] तेने गृहीत मिथ्यात्व टळ्‌युं
छे ए अपेक्षाए व्यवहारसम्यकत्व थयुं छे एम कहेवाय छे;
पण तेने अगृहीत मिथ्यादर्शन छे माटे खरी रीते तेने
व्यवहाराभास सम्यग्दर्शन छे.
मिथ्याद्रष्टि जीवने देव–गुरु–धर्मादिनुं श्रद्धान
आभासमात्र होय छे, तेना श्रद्धानमांथी विपरीताभिनिवेशनो
अभाव थयो नथी; वळी तेने व्यवहार सम्यकत्व आभास
मात्र छे तेथी तेने जे देव–गुरु–धर्म नव तत्त्वादिनुं श्रद्धान छे
ते विपरीताभिनिवेशना अभाव माटे कारण न थयुं, अने
कारण थया विना तेमां
[सम्यग्दर्शननो] उपचार संभवतो
नथी; तेथी तेने व्यवहार सम्यग्दर्शन पण संभवतुं नथी, तेने
व्यवहार सम्यकत्व मात्र नाम निक्षेपथी कहेवामां आवे छे.
[मोक्षमार्ग प्रकाशक–पानुं. ३२४–३३२]
आ.त्म.ध.र्म.नी.प्र.भा.व.ना
सत्देव, गुरु अने शास्त्र प्रत्येनी भक्तिना उल्लासथी
मोटा आंकडियाना रहीश धर्मप्रेमी बहेनश्री हेमकुंवरबहेन तरफथी रूपिया
पांचसोने एक आत्मधर्म मासिकना २५ मा अंकने खास अंक–भगवान श्री
महावीर निर्वाण महोत्सव अंक–तरीके प्रगट करी आत्मधर्मनी प्रभावना करवा
माटे पर्युषणपर्व वखते मळ्‌या हता, ते मुजब आजे चालु अंकना १६ पानां उपरांत
बीजा २८ पानां मळी ४४ पानांनो आ अंक आपवामां आवेल छे. प्रकाशक
मुद्रक – प्रकाशक – श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी
शिष्ट साहित्य मुद्रणालय, दासकुंज, मोटो आंकडिया, काठियावाड. ता. ७ – १ – ४प