Atmadharma magazine - Ank 026
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARAM With the permissdon of the Baroda Govt. Regd No. B. 4787
order No. 30/24 date 31-10-44
शक्ति प्राप्त करी होवा छतां, तेनो सदुपयोग करवाने बदले अनादिना अगृहीत मिथ्यात्व साथे नवुं लफरूं
लगाडी तेने पोषण आप्युं तेनुं फळ ज्यां विचारशक्तिनो अभाव छे एवी हलकी दशा जीवने प्राप्त थाय.
पोतानी विचारशक्तिने गीरो मूकीने, बाप जो कुदेवने माने तो पोते पण तेने माने–एम धर्मना नामे अनेक
प्रकारे ऊंधी ऊंधी मान्यताओ मनवाळा जीवो पोषे छे. अर्थात् पोतानी मननी शक्तिनो घात करे छे–पोते
पोताना माटे निगोदनी तैयारी करे छे –जेम निगोदना जीवने विचारशक्ति नथी तेम गृहीतमिथ्यात्वी जीव
पोतानी विचारशक्तिनो दुरुपयोग करी–पोतानी विचारशक्तिनो घात करी, ज्यां विचारशक्ति नथी एवा
निगोदनी तैयारी करे छे.
देवमूढता–साचो धर्म समजावनार कोण होई शके तेनी विचारशक्ति होवा छतां तेनो निर्णय कर्यो नहि.
(देव = पुण्यना फळना–स्वर्गना देव नहि पण ज्ञाननी दिव्यशक्ति धरावे ते सर्वज्ञदेव.)
पोताने ऊंधु ज्ञान होवाथी जेने साचुं पूरुं ज्ञान थयुं छे तेवा दिव्यशक्तिवाळा देव पासेथी साचुं ज्ञान
मळी शके. परंतु जीव तेने ओळखतो नथी अने देवना संबंधमां एटले के संपूर्ण साचुं ज्ञान कोने प्राप्त थयुं छे
तेना संबंधमां ते मूर्खता धारण करे छे एटले के देव संबंधमां पण पोतानी विचारशक्तिनुं महान देवाळुं काढे छे.
ते देवमूढता छे.
गुरुमूढता–मांदो माणस डोकटरनी तपास करे के कया डोकटरनी दवा लईशुं तो रोग मटशे! कुंभारने त्यां
तावडी लेवा जाय त्यां त्रण टकोरा मारी तावडीनी परीक्षा करे, विगेरे अनेक संसारना प्रसंगोमां परीक्षा करे,
पण अहीं आत्मामां अज्ञाननो नाश करवा माटे अने दुःख टाळवा माटे कोण निमित्त (गुरु) थई शके तेनो
परीक्षाद्वारा निर्णय करवामां विचारशक्तिने लगावतो नथी अने बापे कह्युं ते प्रमाणे अथवा कुळनी परंपरा
प्रमाणे आंधळी दोडे माने छे. ते जीवनी गुरुमूढता छे.
आ प्रमाणे जीव कांतो विचारशक्तिनो उपयोग करतो नथी. अने उपयोग करवा जाय छे तो उपर कह्या
प्रमाणे (१) लोकमूढता, (२) देवमूढता अने गुरुमूढता त्रण रीते लूंटाई जाय छे. कुगुरु तो कहे के दान देशो तो
धर्म थशे, पण भला! एवुं तो गामना भंगीआ पण कहे छे के ‘मा बाप! एक बीडी आपशो तो धर्म थशे’
एमां कुगुरुए अपूर्व शुं कीधुं? वळी शीलनो उपदेश बाप पण आपे छे. तो पछी बाप पण धर्म गुरु ठरे.
निशाळमां पण सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य सेववानुं कहेवाय छे तो पछी निशाळना मास्तर धर्मगुरु ठरे अने
निशाळना पुस्तको धर्मशास्त्र ठरे–पण तेम बनतुं नथी. धर्मनुं स्वरूप अपूर्व छे.
‘अपवास’ थी धर्म माने परंतु अपवास शब्दनो अर्थ ज न समजे. अप=माठो अने वास=रहेवुं. हवे
ऊंधो वास करवाथी कांई धर्म थतो हशे? वळी कोई कहे के मूळ शब्द ‘उपवास’ छे–तो पण त्यां उपवासनो अर्थ
‘रोटला न खावा’ एम माने छे पण ते जूठुं छे. उपवास शब्दनो भाव उपवास करवानुं माननार के कहेनार
समजतां न होय त्यां धर्म केम थाय? अनाजनो संयोग शरीरने न थयो एमां उपवास मानी लीधो, पण जीव
तो कदी रोटला खातो नथी बहु तो जीव अज्ञानदशामां अज्ञान अने दुःख खाय छे
[भोगवे छे]. ज्ञानदशामां
साचुं ज्ञान अने तेनुं अविनाभावी सुख भोगवे छे.
त्रण प्रकारनी मूढतामां गुरुमूढता विशेष छे. तेमां धर्मने नामे पोते अधर्म करतो होय छतां तेमां धर्म
माने छे. दा. त. दुकाने बेठेलो माणस हुं अत्यारे सामायिक–धर्म करूं छुं एम न माने पण धर्मस्थाने आवीने
पोते मानेला गुरु के वडीले कहेला अमुक शब्दो बोली जाय के जेना अर्थ पण पोते जाणतो न होय तेमां
सामायिक धर्म कर्यो एम ते जीव माने छे, वळी शुभ भाव होय तो पुण्य थाय अने ते शुभमां धर्म मान्यो–
एटले त्यां अधर्मने धर्म मान्यो छे ते ज गृहीत मिथ्यात्व छे.
गृहीत मिथ्यात्व एटले पोते विचारशक्तिवाळो थया पछी नवां लफरां ग्रहण कर्या छे. अहीं भूल–
मिथ्यात्व संबंधी आपणे बे वात करी, (१) अनादिथी चाल्युं आवतुं पुण्यथी धर्म थाय अने शरीरनुं कार्य हुं
करी शकुं ए मानवारूप ऊंधी मान्यता ते अगृहीतमिथ्यात्व छे. (२) लोकमूढता, देवमूढता अने गुरुमूढताना
सेवनथी कुदेव–कुगुरुद्वारा जीव ऊंधी मान्यताने पोषण आपनारां लफरां ग्रहण करे छे ते गृहीत मिथ्यात्व छे.
साचा देव–गुरु–धर्मनी तेम ज पोताना आत्मस्वरूपनी साची समजण द्वारा ए बंने मिथ्यात्वने टाळ्‌या वगर
जीव कदी पण सम्यकत्व पामी शके नहि, अने सम्यग्दर्शन वगर कदी धर्मात्मापणुं थाय नहि; माटे धर्मात्माने
प्रथम भुमिकामां ज गृहीत अने अगृहीत मिथ्यात्वनो त्याग तो जरूर होय ज.