Atmadharma magazine - Ank 027
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४७२ : आत्मधर्म : ६३ :
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक
वर्ष त्रीजुं पोष
अंक त्रीजो २४७२
• केवळज्ञान अने मुक्ति •


आ काळे केवळज्ञान थतुं नथी अने आ काळे मोक्ष थतो नथी एवी ओथ लईने केटलाक पुरुषार्थहीन
जीवो धर्मनुं स्वरूप समजवा प्रत्ये अरुचि करे छे; परंतु आ काळे य जीवो धर्मनुं स्वरूप समजीने केवळज्ञान अने
मोक्षदशा तरफ प्रयाण करी शके छे अर्थात् केवळज्ञान अने मोक्षनो उपाय आ काळे पण साची समजण द्वारा थई
शके छे; आ बाबतमां महान तत्त्वज्ञानी श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के––
“२१. शास्त्रमां आ काळमां मोक्षनो साव निषेध नथी. जेम आगगाडीनो रस्तो छे तेनी मारफते वहेला
जवाय, ने पगरस्ते मोडा जवाय तेम आ काळमां मोक्षनो रस्तो पगरस्ता जेवो होय तो तेथी न पहोंचाय एम
कांई नथी; वहेला चाले तो वहेला जवाय; कांई रस्तो बंध नथी. आ रीते मोक्षमार्ग छे तेनो नाश नथी. अज्ञानी
अकल्याणना मार्गमां कल्याण मानी, स्वछंदे कल्पना करी, जीवोने तरवानुं बंध करावी दे छे. अज्ञानीना रागी
बाळाभोळा जीवो अज्ञानीना कह्या प्रमाणे चाले छे; अने तेवां कर्मनां बांधेलां बन्ने माठी गतिने प्राप्त थाय छे.
आवो कुटारो जैनमां विशेष थयो छे.
२२. नय आत्माने समजवा अर्थे कह्या छे; पण जीवो तो नयवादमां गुंचवाई जाय छे. आत्मा
समजाववा जतां नयमां गुंचवाई जवाथी ते प्रयोग अवळो पड्यो. समकितद्रष्टि जीवने ‘केवळज्ञान’ कहेवाय.
वर्तमानमां भान थयुं छे माटे ‘देशे केवळज्ञान’ थयुं कहेवाय; बाकी तो आत्मानुं भान थयुं एटले केवळज्ञान. ते
आ रीते कहेवाय:– समकितद्रष्टिने आत्मानुं भान थाय त्यारे तेने केवळज्ञाननुं भान प्रगट्युं; अने भान
प्रगट्युं एटले केवळज्ञान अवश्य थवानुं; माटे आ अपेक्षाए समकितद्रष्टिने केवळज्ञान कह्युं छे. सम्यक्त्व थयुं
एटले जमीन खेडी झाड वाव्युं, झाड थयुं, फळ थयां, फळ थोडा खाधां, खातां खातां आयुष पूरूं थयुं; तो पछी
बीजे भव फळ खवाय. माटे ‘केवळज्ञान’ आ काळमां नथी. एवुं अवळुं मानी लेवुं नहि, अने कहेवुं नहि.
सम्यक्त्व प्राप्त थतां अनंता भव मटी एक भव आडो रह्यो. माटे सम्यक्त्व उत्कृष्ट छे. आत्मामां केवळज्ञान छे,
पण आवरण टळ्‌ये केवळज्ञान होय. आ काळमां संपूर्ण आवरण टळे नहि, एक भव बाकी रहे; एटले जेटलुं
केवळज्ञानावरणीय जाय तेटलुं केवळज्ञान थाय छे. समकित आव्ये मांही–अंतरमां–दशा फरे; केवळज्ञाननुं बीज
प्रगट थयुं. सद्गुरु विना मार्ग नथी, एम मोटा पुरुषोए कह्युं छे. आ उपदेश वगर कारणे कर्यो नथी.
२३. समकिती एटले मिथ्यात्व मुक्त; केवळज्ञानी एटले चारित्रावरणथी संपूर्णपणे मुक्त; अने सिद्ध
एटले देहादिथी संपूर्णपणे मुक्त.” [श्रीमद् राजचंद्र, उपदेशछाया भाद्रपद शुद १प, १९प२.]
उपरमां स्पष्ट कह्युं छे के आ काळे केवळज्ञाननो उपाय थई शके छे अने ते माटे सम्यक्त्व उपर भार
दीधो छे अने सम्यक्त्वने ज केवळज्ञाननुं बीज कह्युं छे, माटे साची समजणनो प्रयत्न करवो, ‘आ काळे
केवळज्ञान नथी’ एम मानीने समजणना प्रयत्नमां अटकवुं नहीं...
“सम्यग्दर्शन थतां श्रद्धा अपेक्षाए द्रव्यनो मोक्ष थाय छे अने सम्यक् स्थिरता थतां पर्यायनो मोक्ष थाय
छे. आ काळे द्रव्यनो मोक्ष थई शके छे; हे भाई! पहेलांं द्रष्टिमां द्रव्यनो मोक्ष तो तुं समज, जेणे द्रव्यना मोक्षने
द्रष्टिमां लीधो छे तेने पर्यायनो मोक्ष तो ते द्रव्यना जोरे थई ज जाय छे; माटे ‘मोक्ष नथी’ ए वात ज द्रष्टिमांथी
छोडी दे अने द्रव्यनी द्रष्टि कर. जेने सम्यग्दर्शन थयुं तेने केवळज्ञान अने मोक्ष थाय ज... माटे सौथी पहेलांं
आत्मानी साची समजण वडे सम्यग्दर्शन प्रगट करो.”
(पू. गुरुदेवश्री...मागशर वद–२)