Atmadharma magazine - Ank 027
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: ६४ : आत्मधर्म : पोष : २४७२ :
• शुं धर्मने युग साथे संबंध छे? •
पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीना श्री समयसार गाथा २६७ – २६८ पर व्याख्याना आधारे
त. २९ – १० – ४प अस वद १०. २०१

धर्म करवा माटे जीवोए प्रथम धर्मनुं साचुं स्वरूप ओळखवुं जोईए. धर्म ए वस्तुनो स्वतंत्र स्वभाव
छे. कोई एक वस्तुनो धर्म कोई बीजी वस्तुना आधारे नथी अर्थात् दरेक वस्तु पोताना स्वभावथी अस्तिरूप
छे अने बीजाना स्वभावथी ते नास्तिरूप छे, आम होवाथी दरेक द्रव्यो जुदां छे, जुदां जुदां द्रव्यो एक बीजानी
क्रिया करी शके नहि तेथी एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शके नहि. –आवुं त्रिकाळी वस्तुस्वरूप ओळखवुं ते
ज सम्यक्श्रद्धारूपी प्रथम अपूर्व धर्म छे. वस्तुस्वरूपनी साची ओळखाण वगर कोई पण युगमां धर्म थई
शकतो नथी.
धर्म ए वस्तुनो स्वभाव होवाथी तेनो संबंध स्वद्रव्य साथे छे, कोई पण परद्रव्यना परिणमन साथे
आत्माना धर्मनो संबंध नथी; स्वपर्याय ते ज वस्तुनो धर्म छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान चारित्ररूपी धर्मथी ज अनंत
जीवोए आत्महित कर्युं छे. जे उपाय वडे एक व्यकितए आत्महित कर्युं ते ज उपाय दरेक व्यकितने आत्महित
करवा माटेनो छे. आत्महित माटे एक व्यकितने अमुक उपाय अने बीजी व्यक्तिने तेनाथी जुदो उपाय–एम
बनी शके नहि. जे उपाय वडे एक काळे धर्म थाय ते ज उपाय वडे त्रणे काळे धर्म थाय छे, काळ बदलतां धर्मनुं
स्वरूप बदली जतुं नथी, केमके आत्माना धर्मनो संबंध काळ साथे नथी. जे उपाय वडे एक क्षेत्रे धर्म थाय ते ज
उपायथी सर्वक्षेत्रे धर्म थाय छे, क्षेत्र बदलता धर्मनो उपाय बदली जतो नथी. आत्मस्वभावनी साची श्रद्धा–
ज्ञान–स्थिरतारूपी जे शुद्धभावथी एक जीवे धर्म कर्यो ते ज भावथी सर्वे जीवो धर्म करी शके छे, ते सिवायना
बीजा कोई भावथी कोई जीवने धर्म थई शकतो नथी.
धर्मनुं स्वरूप कोई जीव एम माने के ‘एक जीवना भाव बीजा जीवनुं कांई न करी शके एवी साची
समजण करवी ते चोथाकाळनो धर्म, अने देशना बधा दुःखी जीवोने मदद करीने सुखी करवा ते पंचम काळनो
धर्म’ –तो आ मान्यता खोटी छे. चोथाकाळे एक जीव बीजानुं न करी शके अने पंचम काळे करी शके–एवुं
वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. आ काळे के अनंतकाळे पण एक जीव बीजा जीवोने सुखी के दुःखी करी शकतो नथी. आ
समजवुं ते धर्म छे; परंतु ‘हुं बीजा जीवोने सुखी–दुःखी करी शकुं अने बीजानुं हित करी शकुं’ एवा
अज्ञानभावरूप जे अध्यवसाय ते परमां अक्रिंचित्कर होवाथी अने पोताने नुकशाननुं कारण होवाथी अधर्म छे.
एक जीवना बीजा जीवोने सुखी के दुःखी करवाना भावथी बीजा जीवो सुखी के दुःखी थता ज नथी, माटे हुं परने
सुखी–दुःखी करूं के पर मने सुखी–दुःखी करे एवी मान्यता ते मिथ्यात्व छे. हुं ज्ञानस्वभावी आत्मा मारा
भावनो कर्ता छुं, पण बीजा जीवोना सुख दुःखनो हुं कर्ता नथी–आवी यथार्थ मान्यता ते सम्यक्त्व छे अने ते ज
धर्म छे. धर्म कोई काळे बदलतो नथी. स्वर्गमां के नरकमां, तीर्यंचमां के मनुष्यमां, आजे के वर्षो पहेलांं सर्वे
जीवोए आवा सम्यग्दर्शनद्वारा ज आत्महित कर्युं छे–करे छे अने करशे. कोई पण क्षेत्र के कोई पण काळ एवो
नथी के जेमां आ सम्यग्दर्शन वगर जीवो धर्म करी शके!
सर्वे युगमां धर्मनुं स्वरूप एक ज प्रकारनुं छे.
आ काळमां जीवोने खावा–पीवानुं नथी मळतुं माटे बीजा जीवोने मदद करीए ते आ काळनो धर्म छे––
एवी मान्यता असत्य छे; केमके पर जीवना जीवन–मरण के सुख–दुःख वगेरे पोताथी करी शकातां नथी; पोते ते
प्रकारना भाव करी शके अने ते भावथी पोताने शुभ के अशुभ बंधन थाय छे; परंतु सामा जीवनुं तो मनथी–
वचनथी–कायाथी के शस्त्रादिथी कांई करी शकतो नथी. वळी कोई एम माने के ‘देश पराधीनतानी बेडीमां
जकडायेलो होय तेने पहेलांं स्वतंत्र करीए पछी धर्म करी शकाय, पण ज्यां सुधी देश पराधीन होय त्यांसुधी धर्म
थई शके नहि.’ आ मान्यता पण अज्ञानरूप छे अने ते ऊंधो भाव ज दुःखनुं मूळ छे. देशनुं तुं कांई करी शकतो
नथी. देश उपर जे राजय करे छे ते तेना पुण्यने लीधे करे छे,